भारतीय राजनीति को जानने वाला ऐसा कौन होगा जो शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे को नहीं जानता होगा। एक समय ऐसा था जब उन्होंने महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश की राजनीति का चेहरा बदलकर रख दिया था। उन्हीं बाला साहेब ठाकरे पर एक फिल्म देखी ‘ठाकरे’, जिसे बाला साहेब के बेहद करीबी रहे संजय राउत ने बनाया है, जिसमें वे उनके ग्रे पहलुओं को तो दर्शाते हैं, लेकिन साथ में यह कोशिश भी पूरी करते हैं कि ये फिल्म उनकी छवि को कहीं से धूमिल ना करने पाए।
फिल्म : ठाकरे
निर्देशक : अभिजीत पानसे
कहानी : संजय राउत
निर्माता : वायाकॉम 18 मोशन पिक्चर्स
श्रीकांत भासी
वर्षा संजय राउत
पूर्वशी संजय राउत
विधिता संजय राउत
अभिनीत : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अमृता राव आदि
छायांकन : सुदीप चटर्जी
रेटिंग : ***
परिचय…
बाला साहेब ठाकरे के जीवन पर आधारित फिल्म ठाकरे का आधा से ज्यादा हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट दिखाया गया है, लेकिन ठाकरे की इमेज पूरी फिल्म में व्हाइट ही दिखाई गई। फिल्म उन सभी सवालों का जवाब देती है, जिनसे बाला साहेब ठाकरे जीवन भर घिरे रहे। फिर चाहे वो लोकतंत्र में भरोसा न करने का उनका सिद्धांत हो, या फिर आपातकाल का समर्थन या फिर महाराष्ट्र में बाहरी लोगों पर बैन का सवाल।
कहानी…
फिल्म की कहानी शुरू होती है लखनऊ की अदालत से, जहां बाला साहेब ठाकरे और उनके संगठन पर अयोध्या के विवादास्पद ढांचे को गिराने और दंगे फैलाने का आरोप है। अदालत से कहानी वर्ष १९६० के दशक में पीछे जाती है, जहां ठाकरे फ्री प्रेस जरनल में कार्टूनिस्ट का काम करते हैं, मगर अपने कार्टूनों के कारण उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है। नौकरी से इस्तीफा देकर वह इरॉस नामक एक सिनेमा हॉल में फिल्म देखने जाते हैं और वहां उन्हें अहसास होता है कि महाराष्ट्र मराठियों की होने के बावजूद उन्हें ना तो यहां इज्जत मिलती है और ना ही कोई उन्हें नौकरी पर ही रखना चाहता है। बस उसी वक्त उनके दिमाग में मराठी माणुस को संगठित करने का विचार उत्पन्न होता है, जो आगे चलकर शिवसेना में तब्दील होता है।
मुकदमे को साथ लेते हुए कहानी आगे बढ़ती है और अतीत की घटनाओं के साथ बाला साहेब ठाकरे के उद्भव और कद्दावर पावरफुल नेता बनने की दास्तान बयान करती है। उनके मुखपत्र मार्मिक का प्रकाशन, शिवसेना की स्थापना, दक्षिण भारतीय और गुजरातियों को महाराष्ट्र से निकाल बाहर करने की मुहिम, मुस्लिम लीग से उनका हाथ मिलाना, हिंदुत्व का नारा बुलंद करना, कारवार बेलगाम और निपानी का महाराष्ट्र विलय आंदोलन, इमर्जेंसी, शिवसेना के मनोहर जोशी का महाराष्ट्र का सीएम बनना, शिवसेना की दबंगई, जनता पार्टी की जीत, विवादास्पद ढांचे का गिराया जाना, राधा बाई चाल घटना, वर्ष १९९३ के कौमी दंगे जैसे तमाम घटनाक्रम के साथ कहानी उस अंत पर पहुंचती है, जहां बाला साहेब ठाकरे कहते हैं, ‘मैंने हमेशा से देश को पहले रखा, इसीलिए मैं जय महाराष्ट्र से पहले जय हिंद कहता हूं।’
समीक्षा…
फिल्म शुरू में ही यह तथ्य स्थापित कर देती है कि बाला साहेब ठाकरे को शिवसेना बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? फिल्म में स्पष्ट तौर पर यह दिखाने की कोशिश की गई है कि जब बाला साहेब ठाकरे एक अखबार में मामूली कार्टूनिस्ट थे, तब मराठियों के साथ महाराष्ट्र में कितना अन्याय हो रहा था? इसके बाद मूवी में एक-एक कर बाला साहेब ठाकरे पर लगे आरोपों पर सफाई दी गई है। इसके बावजूद फिल्म के अंत में ठाकरे कठघरे में ही खड़े नजर आते हैं।
फिल्म सिर्फ ठाकरे को एक हीरो या मराठियों का मसीहा के तौर पर पेश करती है। ये दर्शकों के लिए कोई नया तथ्य नहीं है, लेकिन इसकी कहानी कहने वाले संजय राउत इतने सख्त और दमदारी से ठाकरे की क्लीन इमेज पेश करेंगे, ये थिएटर में ही पता चलता है। पूरी फिल्म में ठाकरे के रूप में नवाजुद्दीन सिद्दीकी छाए रहते हैं, हर सीन में उनका स्टारडम दिखता है। वे कहीं कमजोर नहीं पड़े, चाहे बाबरी मस्जिद गिराने का आरोप हो या फिर दंगों में हाथ होने का।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय नहीं करते हैं। उन्होंने ठाकरे के लहजे, हावभाव और उनके तल्ख अंदाज को पकड़ने की पूरी कोशिश की, मगर हर समय एक सख्ती का आवरण ओढ़े रहना उनके जीवन के उस पक्ष को सामने नहीं ला पाता, जिसमें वे एक पुत्र हैं, पिता हैं, एक पति हैं या इनसे अलग एक कोमल ह्रदय वाले कलाकार भी हैं। अमृता राव को ठाकरे की पत्नी मीना ठाकरे के रूप में स्क्रीन पर जितना भी स्पेस मिला, उससे उन्होंने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई।
शिवसेना की कट्टर हिंदुत्व की छवि रही है और यही उसकी पहचान भी है, ठाकरे के बहाने से शिवसेना की इस इमेज को पॉलिस करने की कोशिश की गई है, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी।
निष्कर्ष…
फिल्म को देखने के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कहानी कहने वाला जबर्दस्ती छोटे-छोटे संवाद और दृश्यों के जरिए दर्शक से अपनी बात मनवाना चाहता है या फिर आरोपों की सफाई दी जा रही है। इतना तो सभी जानते हैं कि बाला साहेब ठाकरे अपनी विचारधारा को लेकर काफी स्पष्ट थे, जो तमाम मीडिया इंटरव्यू में दिखता भी है, लेकिन उनके (ठाकरे ) बचाव में फिल्म जो तथ्य पेश करती है, वे कमजोर दिखते हैं और यही इसकी कमजोरी भी है।