ये दुनिया एक करोड़ आइंस्टाइन, शेक्सपियर पैदा कर सकता है मगर व्यास एक ही थे एक ही रहेंगे, उनके जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।
ये आपकी परेशानी है कि आप व्यास को नहीं जानते और जानेंगे भी कैसे उनके बारे में कोई बात करता ही नहीं है और ना ही उनके बारे में ncert की किताबों में पढ़ाया ही जाता है। बस इतना बता दिए कि वो एक रचनाकार थे, किस्सा खत्म हो गया हो गया परिचय।
मैं कहता हूं कभी उनकी गली से एक बार गुजर कर देखो सीमाएं तय नहीं कर पाओगे ऊंचाई की, इतनी ऊंची ऊंची इमारतें हैं वहां और सभी इतने चमकदार हैं कि आँखें चौंधिया जाएंगी। और ऐसा भी हो सकता है कि मन भी थक जाए विचरते विचरते।
वहां चारों वेदों का संकलन है, जो ब्रह्मांड को छेद कर निकल चुके हैं। अठारह पुराण पूरी सृष्टि में फैले हुए हैं। एक सौ आठ उपनिषद विचारों में ऐसे घुले हुए हैं जैसे संगीत। ब्राह्मण ग्रन्थ हर एक धर्म की मान्यताओं में बसे हुए हैं। और अंत में महाभारत, जिसमें गीता ने भी अपने लिए स्थान खोजा है, सर्वग्य है, जिसमें सभी हैं और जो सबमें है। उन्होंने रामायण को भी स्थान दिया है जो राम को बाल्मिकी से पृथक तो नहीं करता मगर विस्तृत अवश्य करता है। ये वही रामायण है जो राम से कृष्ण को जोड़ता है। क्या ऐसा संभव है किसी रचनाकार के लिए? नहीं संभव ही नहीं है।
ये हैं व्यास, जो सभी रचनाकारों के आदि में भी हैं और अंत में भी। उन्हीं से नानक और कबीर हैं तो उन्हीं से तुलसी और जायसी भी। उन्हीं से टालस्टॉय तो उन्हीं से मैकाले भी। सब उन्हीं से तो हैं। उनसे ही तो दक्षिण पंथ और बाम पंथ है। उन्हीं के द्वारा कृष्ण नीति समाज में आई और विस्तृत होकर कहीं गीता से पोषित तो कही क्रिश्चिनिटी बन अवशोषित हुई।
ये उनका ही तो शब्द है ‘नमस्’ जिससे मुसलमानों की ‘नमाज़’ अदा होती है। ईसा और मुहम्मद के आने से पूर्व ‘ख्रीस्त गीता’ और ‘ख्रीस्त भागवत’ ही तो उनके धार्मिक ग्रंथ हुआ करते थे, जो कालांतर में बदलकर बाइबिल और कुरान हो गए।
कितनी बातें लिखूं और कितनी बातें करूं ना तो संसार में इतनी स्याही है और ना ही मेरे पास इतने शब्द ही हैं। अतः जितना हम समझते हैं, उसके अनुसार जिन्हें हम आज धर्म कहते हैं वो सभी एक पंथ ही तो हैं, जिनके आचार तो नए हैं किंतु उन सभी के विचार व्यास के हैं तो वो प्राचीन हैं। भक्ति कालीन सन्तों की शिक्षाओं पर अगर ध्यान दें तो, ये सन्त बातें तो वे ही कहते हैं जो व्यास के ग्रंथों में पहले ही कही जा चुकीं हैं, किन्तु पद्धति अवश्य नवीन थी इसलिए प्रचारित हुई। केवल आचार की नूतनता के कारण ही इन पथों का जन्म हुआ, जिन्हें आप संप्रदाय कहें अथवा धर्म ये सभी उस स्वर्ण के कण ही तो हैं जिसकी बातें व्यास करते हैं।