भगवान शंकर के अवतार माने जाने आदि शंकराचार्य जी का जन्म ७८८ ई. में हुआ था। वे अद्वैत वेदान्त के प्रणेता, संस्कृत के महान ज्ञाता, उपनिषद व्याख्याता और सनातनी थे।इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और दक्षिण में जन्म होने के बावजूद इनका जीवन अधिकांश भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद है। शंकराचार्य को भारत के ही नहीं अपितु सारे संसार के उच्चतम दार्शनिकों में महत्व का स्थान प्राप्त है। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, मिलता है। गीता और ब्रह्मसूत्र पर अन्य आचार्यों के भी भाष्य हैं, परन्तु उपनिषदों पर समन्वयात्मक भाष्य जैसा शंकराचार्य का है, वैसा अन्य किसी का नहीं है।
आइए हम आदि शंकराचार्य जी के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं…
जन्म
शंकराचार्य जी का जन्म दक्षिण भारत के केरल स्थित निम्बूदरीपाद ब्राह्मणों के ‘कालडी़ ग्राम’ में ७८८ ई. में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर भारत में व्यतीत किया। उनके द्वारा स्थापित ‘अद्वैत वेदांत सम्प्रदाय’ ९वीं शताब्दी में काफ़ी लोकप्रिय हुआ। उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न किया। उन्होंने ईश्वर को पूर्ण वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया और साथ ही इस संसार को भ्रम या माया बताया। उनके अनुसार अज्ञानी लोग ही ईश्वर को वास्तविक न मानकर संसार को वास्तविक मानते हैं। ज्ञानी लोगों का मुख्य उद्देश्य अपने आप को भम्र व माया से मुक्त करना एवं ईश्वर व ब्रह्म से तादाम्य स्थापित करना होना चाहिए। शंकराचार्य जी ने वर्ण पर आधारित ब्राह्मण प्रधान सामाजिक व्यवस्था का समर्थन किया। शंकराचार्य जी ने संन्यासी समुदाय में सुधार के लिए उपमहाद्वीप में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। ‘अवतारवाद’ के अनुसार, ईश्वर तब अवतार लेता है, जब धर्म की हानि होती है। धर्म और समाज को व्यवस्थित करने के लिए ही आशुतोष शिव का आगमन आदि शकराचार्य के रूप में हुआ।
शिक्षा
हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार आदि शंकराचार्य ने अपनी अनन्य निष्ठा के फलस्वरूप अपने सदगुरु से शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त किया, बल्कि ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया। जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता को इन्होंने जहाँ काशी में घटी दो विभिन्न घटनाओं के द्वारा जाना, वहीं मंडनमिश्र से हुए शास्त्रार्थ के बाद परकाया प्रवेश द्वारा उस यथार्थ का भी अनुभव किया, जिसे संन्यास की मर्यादा में भोगा नहीं जा सकता। यही कारण है कि कुछ बातों के बारे में पूर्वाग्रह दिखाते हुए भी लोक संग्रह के लिए, आचार्य शंकर आध्यात्म की चरम स्थिति में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। अपनी माता के जीवन के अंतिम क्षणों में पहुँचकर पुत्र होने के कर्तव्य का पालन करना इस संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है।
रचनाएँ व व्यक्तित्व
शंकराचार्य ने उपनिषदों, श्रीमद्भगवद गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं। उपनिषद, ब्रह्मसूत्र एवं गीता पर लिखे गये शंकराचार्य के भाष्य को ‘प्रस्थानत्रयी’ के अन्तर्गत रखते हैं। शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के स्थायित्व, प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में अपूर्व योगदान दिया। उनके व्यक्तितत्व में गुरु, दार्शनिक, समाज एवं धर्म सुधारक, विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के समन्वयकर्ता का रूप दिखाई पड़ता है। शंकराचार्य अपने समय के उत्कृष्ट विद्वान् एवं दार्शनिक थे। इतिहास में उनका स्थान इनके ‘अद्वैत सिद्धान्त’ के कारण अमर है। गौड़पाद के शिष्य ‘गोविन्द योगी’ को शंकराचार्य ने अपना प्रथम गुरु बनाया। गोविन्द योगी से उन्हें ‘परमहंस’ की उपाधि प्राप्त हुई। कुछ विद्वान् शंकराचार्य पर बौद्ध शून्यवाद का प्रभाव देखते हैं तथा उन्हें ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ की संज्ञा देते हैं।
हिन्दू धर्म की पुनः स्थापना…
आदि शंकराचार्य को हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ़ उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ़ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया। सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होंने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें ‘प्रछन्न बुद्ध’ कहा गया है।
मोक्ष और ज्ञान
आचार्य शंकर जीवन में धर्म, अर्थ और काम को निरर्थक मानते हैं। वे ज्ञान को अद्वैत ज्ञान की परम साधना मानते हैं, क्योंकि ज्ञान समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देता है। सृष्टि का विवेचन करते समय कि इसकी उत्पत्ति कैसे होती है? वे इसका मूल कारण ब्रह्म को मानते हैं। वह ब्रह्म अपनी ‘माया’ शक्ति के सहयोग से इस सृष्टि का निर्माण करता है, ऐसी उनकी धारणा है। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि शक्ति और शक्तिमान एक ही हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार सृष्टि के विवेचन से एक बात और भी स्पष्ट होती है कि परमात्मा को सर्वव्यापक कहना भी भूल है, क्योंकि वह सर्वरूप है। वह अनेकरूप हो गया, ‘यह अनेकता है ही नहीं’, ‘मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँ’ अद्धैत मत का यह कथन संकेत करता है कि शैतान या बुरी आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा कहीं दिखाई भी देता है, तो वह वस्तुतः नहीं है भ्रम है बस। जीवों और ब्रह्मैव नापरः- जीव ही ब्रह्म है अन्य नहीं।
निष्काम उपासना
ऐसे में बंधन और मुक्ति जैसे शब्द भी खेलमात्र हैं। विचारों से ही व्यक्ति बंधता है। उसी के द्वारा मुक्त होता है। भवरोग से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है विचार। उसी के लिए निष्काम कर्म और निष्काम उपासना को आचार्य शंकर ने साधना बताया। निष्काम होने का अर्थ है संसार की वस्तुओं की कामना न करना, क्योंकि शारीरिक माँग तो प्रारब्धता से पूरी होगी और मनोवैज्ञानिक चाह की कोई सीमा नहीं है। इस सत्य को जानकर अपने कर्तव्यों का पालन करना तथा ईश्वरीय सत्ता के प्रति समर्पण का भाव, आलस्य प्रसाद से उठाकर चित्त को निश्चल बना देगें, जिसमें ज्ञान टिकेगा।
आचार्य ने बुद्धि, भाव और कर्म इन तीनों के संतुलन पर ज़ोर दिया है। इस तरह वैदान्तिक साधना ही समग्र साधना है। कभी-कभी लगता है कि आचार्य शंकर परम्परावादी हैं। लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। उनकी छोटी-छोटी, लेकिन महत्त्वपूर्ण रचनाओं से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है। परम्परा का निर्वाह करते हुए भी उनका लक्ष्य ‘सत्य’ प्रतिपादन करना है। प्रश्नोत्तरी में कहे इस श्लोकांश से संकेत मिलता है, पशुओं में भी पशु वह है जो धर्म को जानने के बाद भी उसका आचरण नहीं करता और जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया है, फिर भी उसे आत्मबोध नहीं हुआ है। इसी प्रकार ‘भज गोविन्दम’ में बाहरी रूप-स्वरूप को नकारते हुए वे कहते हैं कि “जो संसार को देखते हुए भी नहीं देखता है, उसने अपना पेट भरने के लिए तरह-तरह के वस्त्र धारण किए हुए हैं।”
व्यवाहरिक सत्य
जीवन के परम सत्य को व्यावहारिक सत्य के साथ जोड़ने के कारण ही अपरोक्षानुभूति के बाद आचार्य शंकर मौन बैठकर उसका आनन्द नहीं लेते, बल्कि समूचे भारतवर्ष में घूम-घूम कर उसके रूप-स्वरूप को निखारने में तत्पर होते हैं। मानो त्याग-वैराग्य और निवृत्ति के मूर्तरूप हों, लेकिन प्रवृत्ति की पराकाष्ठा है, उनमें श्रीराम, श्री कृष्ण की तरह।
जगदगुरु…
चार मठों की स्थापना, दशनाम सन्न्यास को सुव्यवस्थित रूप देना, सगुण-निर्गण का भेद मिटाने का प्रयास, हरिहर निष्ठा की स्थापना ये कार्य ही उन्हें ‘जगदगुरु’ पद पर प्रतिष्ठित करते हैं। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ जैसे युवा सन्न्यासियों ने विदेशों में जाकर जिस वेदांत का घोष किया, वह शंकर वेदांत ही तो था। जगदगुरु कहलाना, केवल उस परम्परा का निर्वाह करना और स्वयं को उस रूप में प्रतिष्ठित करना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। आज भारत को एक ऐसे ही महान् व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जिसमें योगी, कवि, भक्त, कर्मनिष्ठ और शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही जनकल्याण की भावना हो, जो सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करने को उद्यत हो।
शंकराचार्य का कथन
शंकराचार्य का कथन है कि अद्वैत दर्शन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उपनिषदों की शिक्षा पर अवलम्बित है। अद्वैत दर्शन के तीन पहलू हैं-
तत्व मीमांसा
ज्ञान मीमांसा
आचार दर्शन
इनका अलग-अलग विकास शंकराचार्य के बाद के वैदान्तियों ने किया। तत्व मीमांसा की दृष्टि से अद्वैतवाद का अर्थ है कि सभी प्रकार के द्वैत या भेद का निषेध। अन्तिम तत्व ब्रह्म एक और अद्वय है। उसमें स्वगत, स्वजातीय तथा विजातीय किसी भी प्रकार का द्वैत नहीं है। ब्रह्म निरवयव, अविभाज्य और अनन्त है। उसे सच्चिदानंद या ‘सत्यं, ज्ञानं, अनन्तम् ब्रह्मा’ भी कहा गया है। असत् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह सत्, अचित् का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह चित् और दु:ख का निषेध करने से जो प्राप्त हो, वह आनंद है। यह ब्रह्मा का स्वरूप लक्षण है, परन्तु यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि सत्, चित् और आनंद न तो ब्रह्म के तीन पहलू हैं, न ही ब्रह्म के तीन अंश और न ब्रह्म के तीन विशेषण हैं। जो सत् है वही चित है और वही आनंद भी है। दृष्टि भेद के कारण उसे सच्चिदानंद कहा गया है- असत् की दृष्टि से वह सत् अचित् की दृष्टि से चित् और दु:ख की दृष्टि से आनंद है।
जगत का कारण- ईश्वर
शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ
ज्योतिषपीठ, बद्रीनाथ, उत्तराखण्ड (हिमालय में स्थित)
गोवर्धनपीठ, पुरी, उड़ीसा
शारदापीठ, द्वारिका, गुजरात
श्रृंगेरीपीठ, मैसूर , कर्नाटक
यह निर्गुण, निराकार, अविकारी, चित् ब्रह्म ही जगत् का कारण है। जगत् के कारण के रूप में उसे ईश्वर कहा जाता है। मायोपहित ब्रह्म ही ईश्वर है। अत: ब्रह्म और ईश्वर दो तत्व नहीं हैं- दोनों एक ही हैं। जगत् का कारण होना- यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। तटस्थ लक्षण का अर्थ है, वह लक्षण जो ब्रह्म का अंग न होते हुए भी ब्रह्म की ओर संकेत करे। जगत् ब्रह्म पर आश्रित है, परन्तु ब्रह्म जगत् पर किसी भी प्रकार आश्रित नहीं है, वह स्वतंत्र है। जगत् का कारण प्रकृति, अणु या स्वभाव में से कोई नहीं हो सकता। इसी से उपनिषदों ने स्पष्ट कहा है कि ब्रह्म वह है जो जगत् की सृष्टि, स्थिति और लय का कारण है। जगत् की सृष्टि आदि के लिए ब्रह्म को किसी अन्य तत्व की आवश्यकता नहीं होती। इसी से ब्रह्म को अभिन्न निमित्तोपादान कारण कहा है। जगत् की रचना ब्रह्मश्रित माया से होती है, परन्तु माया कोई स्वतंत्र तत्व नहीं है। यह मिथ्या है, इसलिए ब्रह्म को ही कारण कहा गया है। सृष्टि वास्तविक नहीं है, अत: उसे मायाजनित कहा गया है। माया या अविद्या के कारण ही जहाँ कोई नाम-रूप नहीं है, जहाँ भेद नहीं है, वहाँ नाम-रूप और भेद का आभास होता है। इसी से सृष्टि को ब्रह्म का विवर्त भी कहा गया है। विवर्त का अर्थ है कारण या किसी वस्तु का अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए अन्य रूपों में अवभासित होना, अर्थात् परिवर्तन वास्तविक नहीं बल्कि आभास मात्र है।
विद्या के प्रकार
ब्रह्म की सृष्टि का कारण कहने से यह मालूम पड़ सकता है कि ब्रह्म की सत्ता कार्य-करण अनुमान के आधार पर सिद्ध की गई है। परन्तु यह बात नहीं है। ब्रह्म जगत् का कारण है, यह ज्ञान हमको श्रुति से होता है। अत: ब्रह्म के विषय में श्रुति ही प्रमाण है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि तर्क के लिए कोई स्थान नहीं है। श्रुत्यनुकूल तर्क वेदांत को मान्य है। स्वतंत्र रूप से ब्रह्मज्ञान कराने का सामर्थ्य तर्क में नहीं है, क्योंकि ब्रह्म निर्गुण है। इसी से तर्क और श्रुति में विरोध भी नहीं हो सकता है। दोनों के क्षेत्र पृथक-पृथक् हैं। श्रुति और प्रत्यक्ष का भी क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण उनमें विरोध नहीं हो सकता। श्रुति पर-तत्व विषयक है और प्रत्यक्ष अपरतत्व-विषयक। इसी से विद्या भी परा और अपरा दो प्रकार की मानी गई है।
भिन्न भिन्न सत्ताएं
ऐसा कहा गया है कि जगत् ब्रह्म का विवर्त है, अर्थात् अविद्या के कारण आभास मात्र है। अविद्या को ज्ञान का अभाव मात्र नहीं समझना चाहिए। वह भाव तो नहीं है, परन्तु भाव रूप है-भाव और अभाव दोनों से भिन्न अनिर्वचनीय है। भाव से भिन्न इसलिए है कि उसका बोध होता है, तथा अभाव से भिन्न इसलिए कि इसके कारण मिथ्या वस्तु दिखाई पड़ती है, जैसे रज्जु के स्थान पर सर्पाभास। इसलिए कहा गया है कि अविद्या की दो शक्तियां हैं- आवरण और विक्षेप।
विक्षेप शक्ति मिथ्या सर्प का सृजन करती है और आवरण शक्ति सर्प के द्वारा रज्जु का आवरण करती है। इसी से रज्जु अज्ञान की अवस्था में सर्वपत् दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार ब्रह्म भी अज्ञान के कारण जगतवत् दिखाई पड़ता है। अत: वेदान्त में तीन सत्ताएं स्वीकृत की गई हैं-
प्रातिभासिक (सर्प) – जो हमारे साधारण भ्रम की स्थिति में आभासित होता है और रस्सी के ज्ञान के बाधित होता है।
व्यावहारिक (जगत) – जो मिथ्या तो है परन्तु, जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक सत्य प्रतीत होता है, और ज्ञान हो जाने पर बाधित हो जाता है।
ब्रह्म – जिसे पारमार्थिक कहा जाता है। इसका कभी भी ज्ञान नहीं होता है। यह नित्य है। ब्रह्मज्ञान होने से जगत् का बोध हो जाता है और मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं, शरीर धारण के कारण वह भिन्न प्रतीत होता है। शरीर तीन प्रकार का होता है- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। अनादि प्रवाह के अधीन होकर कर्मफल को भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है। कर्म अविद्या के कारण होते हैं। अत: शरीर धारण अविद्या के ही कारण है। इसे ही बंधन कहते हैं। अविद्या के कारण कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान पैदा होता है, जो आत्मा में स्वभावत: नहीं होता। जब कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान से युक्त होता है, तब आत्मा जीव कहलाता है। मुक्त होने पर जीव ब्रह्म से एककारता प्राप्त करता है या उसका अनुभव करता है।
उपनिषद कथन…
आत्मा और ब्रह्म की एकता अथवा अभिन्नत्व दिखाने के लिए उपनिषदों ने कहा है- ‘तत्वमसी’ (तुम वही हो)। इसी कारण से ज्ञान होने पर ‘सोऽहमस्मि’ (मैं वही हूँ) का अनुभव होता है। जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर और सुषुप्ति में कारण शरीर रहता है। सुषुप्ति में चेतना भी रहती है, परन्तु विषयों का ज्ञान न होने के कारण जान पड़ता है कि सुषुप्ति में चेतना नहीं रहती। यदि सुषुप्ति में चेतना न होती तो जागने पर कैसे हम कहते कि सुखपूर्वक सोया? वहाँ चेतना साक्षीरूप या शुद्ध चैतन्य रूप है। परन्तु सुषुप्ति में अज्ञान रहता है। इसी से शुद्ध चेतना के रहते हुए भी सुषुप्ति मुक्ति से भिन्न है- मुक्ति की अवस्था में अज्ञान का नाश हो जाता है। शुद्ध चैतन्य रूप होने के कारण ही कहा गया है कि आत्मा एक है और ब्रह्मस्वरूप है। चेतना का विभाजन नहीं हो सकता है। जीवात्मा अनेक हैं, परन्तु आत्मा एक है, यह दिखाने के लिए उपमाओं का प्रयोग होता है। जैसे आकाश एक है परन्तु सीमित होने के कारण घट या घटाकाश अनेक दिखाई पड़ता है, अथवा सूर्य एक है, किन्तु उसकी परछाई अनेक स्थलों में दिखाई पड़ने से वह अनेक दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार यद्यपि आत्मा एक है फिर भी माया या अविद्या के कारण अनेक दिखाई पड़ता है।
जीव और ईश्वर में भेद…
जीव और ईश्वर में व्यावहारिक दृष्टि से भेद है। जीवन बद्ध है, ईश्वर नित्यमुक्त है। मुक्त होने पर भी जीव को नित्यमुक्त नहीं कहा जा सकता। नित्यमुक्त होने के कारण ही ईश्वर श्रुति का जनक या आदिगुरु कहा जाता है। ईश्वर को मायोपहित कहा गया है, क्योंकि माया विक्षेप प्रधान होने के कारण और ईश्वर के अधीन होने के कारण ईश्वर के ज्ञान का आवरण नहीं करती। परन्तु जीव को अज्ञानोपहित कहा गया है, क्योंकि अज्ञान द्वारा जीव का स्वरूप ढक जाता है। इसी से कभी-कभी माया और अविद्या में भेद किया जाता है। माया ईश्वर की उपाधि है- सत्व प्रधान है, विक्षेप प्रधान है और अविद्या जीव की उपाधि है, तमस्-प्रधान है और उसमें आवरण विक्षेप होता है।
अज्ञानता तथा मुक्ति
अज्ञान के कारण जीव अपने स्वरूप को भूल कर अपने को कर्ता-भोक्ता समझता है। इसी से उसको शरीर धारण करना पड़ता है और बार-बार संसार में आना पड़ता है। यही बंधन है। इस बंधन से छुटकारा तभी मिलता है, जब अज्ञान का नाश होता है और जीव अपने को शुद्ध चैतन्य ब्रह्म के रूप में जान जाता है। शरीर रहते हुए भी ज्ञान के हो जाने पर जीव मुक्त हो सकता है, क्योंकि शरीर तभी तक बंधन है, जब तक जीव अपने को आत्मा रूप में न जानकर अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन आदि के रूप में समझता है। इसी से वेदान्त में जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति नाम की दो प्रकार की मुक्ति मानी गयी हैं। ज्ञान हो जाने के बाद भी प्रारब्ध भोग के लिए शरीर कुम्हार के चक्र के समान पूर्वप्रेरित गति के कारण चलता रहता है। शरीर छूटने पर ज्ञानी विदेह मुक्ति प्राप्त करता है।
ज्ञान प्राप्ति के गुण
ज्ञान प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम ज्ञान का अधिकारी होना आवश्यक है। अधिकारी वही होता है, जिसमें निम्नलिखित चार गुण हों-
नित्यानित्य-वस्तु-विवेक
इहामुत्र-फलभोग-विराग
शमदमादि
मुमुक्षत्व
इन गुणों से युक्त होकर जब जिज्ञासु गुरु का उपदेश सुनता है, तब उसे ज्ञान हो जाता है। कभी-कभी श्रवण मात्र से भी ज्ञान हो जाता है, परन्तु वह असाधारण जीवों को ही होता है। साधारण जीव श्रवण के उपरान्त मनन करते हैं। मनन से ब्रह्म के विषय में या आत्मा के विषय में या ब्रह्मात्मैक्य के विषय में जो बौद्धिक शंकाएं होती हैं, उनको दूर किया जाता है और जब बुद्धि शंकामुक्त होकर स्थिर हो जाती है तभी ध्यान या निदिव्यसन सम्भव होता है। कर्म से अविद्या का नाश नहीं होता, क्योंकि कर्म स्वयं अविद्याजन्य है। कर्म और उपासना से बुद्धि शुद्ध होकर ज्ञान के योग्य होती है। इसी से इन दोनों की उपयोगिता तो मानी गई है, परन्तु मुक्ति ज्ञान या अविद्या नाश से ही होती है। मुक्ति के उपरान्त कर्म और उपासना की आवश्यकता नहीं रहती। फिर भी मुक्त पुरुष जन-कल्याण के लिए या ईश्वरादेश की पूर्ति के लिए कर्म कर सकता है। जैसे आचार्य शंकर ने किया।
एकदण्डी
शंकराचार्य द्वारा स्थापित दसनामी सन्न्यासियों में से प्रथम तीन (तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती) विशेष सम्मान्य माने जाते हैं।
इनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित हो सकते हैं। शेष सात वर्गों में अन्य वर्णों के लोग भी आ सकते हैं, किन्तु दंड धारण करने के अधिकारी ब्राह्मण ही हैं।
मणिमान
शंकराचार्य एवं मध्वाचार्य के शिष्यों में परस्पर घोर प्रतिस्पर्धा रहती थी। मध्व अपने को वायु देव का अवतार कहते थे तथा शंकर को महाभारत में उदधृत एक अस्पष्ट व्यक्ति, मणिमान का अवतार मानते थे।
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