March 28, 2024

०७ मई, १८८० को महाराष्ट्र के रत्नागिरि में जन्में भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान ही संस्कृत में नैपुण्य एवं विशेषता के लिए सात स्वर्णपदक प्राप्त किए और संस्कृत में एम.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की कर ली। उसके पश्चात्‌ बंबई विश्वविद्यालय से एल.एल.एम. की उपाधि प्राप्त की। इसी विश्वविद्यालय ने आगे चलकर उनको साहित्य में सम्मानित डाक्टर (डी. लिट्.) की उपाधि प्रदान की। भारत सरकार ने उनको ‘महामहोपाध्याय’ की उपाधि से विभूषित किया। उत्तररामचरित, कादंबरी के दो भाग, हर्षचरित का दो भाग, हिंदुओं के रीतिरिवाज तथा आधुनिक विधि के दो भाग, संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास तथा धर्मशास्त्र का इतिहास दो भाग में, इत्यादि श्री काणे द्वारा लिखित कृतियाँ हैं जो अंग्रेजी में हैं।

डॉ॰ काणे अपने लंबे जीवनकाल में समय-समय पर उच्च न्यायालय, बंबई में अभिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली में वरिष्ठ अधिवक्ता, एलफ़िंस्टन कालेज, बंबई में संस्कृत विभाग के प्राचार्य, बंबई विश्वविद्यालय के उपकुलपति, रायल एशियाटिक सोसाइटी (बंबई शाखा) के फ़ेलो तथा उपाध्यक्ष, लंदन स्कूल ऑव ओरयिंटल ऐंड अफ्ऱीकन स्टडीज़ के फ़ेलो, रार्ष्टीय शोध प्राध्यापक तथा उसके बाद राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। पेरिस, इस्तंबूल तथा कैंब्रिज में आयोजित प्राच्यविज्ञ सम्मेलनों में उन्होने भारत के प्रतिनिधि रहे।भंडारकर ओरयंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना से भी वे काफी समय तक संबद्ध रहे।

साहित्य अकादमी ने वर्ष १९५६ में धर्मशास्त्र का इतिहास पर पाँच हजार रुपए का साहित्य अकादमी पुरस्कार (संस्कृत) प्रदान कर सम्मानित किया तथा वर्ष १९६३ में भारत सरकार ने उनको भारतरत्न की उपाधि से अलंकृत किया।

उदाहरणतः…

आईए हम डॉ काणे द्वारा लिखित एक पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास यानी हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र पर चर्चा करते हैं।भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे द्वारा रचित हिन्दू धर्मशास्त्र से सम्बद्ध यह एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है, जिसके लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पाँच खण्डों में विभाजित है। साहित्य अकादमी पुरस्कार दिये जाने तक अंग्रेजी में इसके ४ भाग ही प्रकाशित हुए थे। यह महाग्रंथ मूलतः ५ खंडों में विभाजित है। अंग्रेजी में ये पांचों खंड ७ वॉल्यूम में समाहित हैं। अंग्रेजी में इसका प्रथम भाग १९३० में प्रकाशित हुआ तथा अन्तिम भाग १९६५ में। इसके अंतिम अध्याय (भावी वृत्तियाँ) में विवेचन-क्रम में ही स्पष्टतः वर्तमान समय के रूप में १९६५ ई० का उल्लेख है, जिससे यह स्वतः प्रमाणित है कि इस महाग्रंथ का लेखन उसी वर्ष में सम्पन्न हुआ है।

हिन्दी अनुवाद में राॅयल आकार के ५ जिल्दों में ये पांचों खंड समाहित हो गये हैं। हिंदी अनुवाद के इस आकार-प्रकार में इसकी कुल पृष्ठ संख्या २७५० है। इसके आरंभ में प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण ग्रंथों तथा लेखकों का काल निर्धारण दिया गया है, जिसमें वैदिक काल (४००० ईसा पूर्व) से लेकर १९वीं सदी के आरंभ तक के ग्रंथों एवं लेखकों को सम्मिलित किया गया है। सभी खंडों के अंत में शब्दानुक्रमणिका भी दी गयी है।

इनके खंड छोटे-बड़े होने से इसकी पहली जिल्द में जहाँ दो खंड समाहित हो गये हैं, वही अंतिम २ जिल्दों में एक ही खंड (पंचम) आ पाये हैं। अतः यहाँ सुविधा के लिए जिल्द-क्रम से ग्रंथ की अंतर्वस्तु का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

प्रथम जिल्द…

इसके प्रथम खंड में धर्म का अर्थ निरूपण के पश्चात् प्रायः सभी प्रमुख धर्म शास्त्रीय ग्रंथों का निर्माण-काल एवं उनकी विषय-वस्तु का विवेचन किया गया है।इसकी प्रथम जिल्द में ही समाहित द्वितीय खंड में धर्मशास्त्र के विविध विषयों जैसे वर्ण, अस्पृश्यता, दासप्रथा, संस्कार, उपनयन, आश्रम, विवाह, सती-प्रथा, वेश्या, पंचमहायज्ञ, दान, वानप्रस्थ, सन्यास, यज्ञ आदि का शोधपूर्ण विवेचन किया गया है।

द्वितीय जिल्द…

द्वितीय जिल्द (तृतीय खंड) में राजधर्म के अंतर्गत राज्य के सात अंगों, राजा के कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व, मंत्रिगण, राष्ट्र, दुर्ग, कोश, बल, मित्र तथा राजधर्म के अध्ययन का उद्देश्य एवं राज्य के ध्येय पर शोधपूर्ण विवेचन उपस्थापित किया गया है। इसके बाद व्यवहार न्याय पद्धति के अंतर्गत भुक्ति, साक्षीगण, दिव्य, सिद्धि, समय (संविदा), दत्तानपाकर्म, सीमा-विवाद, चोरी, व्यभिचार आदि का धर्मशास्त्रीय निरूपण उपस्थापित किया गया है। इसके बाद सदाचार के अंतर्गत परंपराएँ एवं आधुनिक परंपरागत व्यवहार, परंपराएँ एवं धर्मशास्त्रीय ग्रंथ, ‘कलियुग में वर्जित कृत्य’ तथा ‘आधुनिक भारतीय व्यवहार शास्त्र में आधार’ आदि का विवेचन किया गया है।

तृतीय जिल्द…

तृतीय जिल्द (चतुर्थ खंड) में विभिन्न पातकों (पापों), प्रायश्चित, कर्मविपाक, अनय कर्म (अन्त्येष्टि), अशौच, शुद्धि, श्राद्ध आदि के विवेचन के पश्चात् तीर्थ-प्रकरण के अंतर्गत तीर्थ-यात्रा का विवेचन किया गया है। इसमें गंगा, नर्मदा, गोदावरी आदि नदियों तथा प्रयाग, काशी, गया, कुरुक्षेत्र, मथुरा, जगन्नाथ, कांची, पंढरपुर आदि प्रमुख तीर्थों के विस्तृत विवेचन के बाद अक्षरानुक्रम से १०६ पृष्ठों में संदर्भ की एक लंबी तीर्थ-सूची दी गयी है। इसके बाद परिशिष्ट रूप में १३४ पृष्ठों में अक्षर क्रम से धर्मशास्त्र के ग्रंथों की एक विस्तृत सूची दी गयी है।

चतुर्थ जिल्द…

चतुर्थ जिल्द (पंचम खंड, पूर्वार्ध, अध्याय १ से २५) में व्रत, उत्सव, काल, पंचांग, शांति, पुराण-अनुशीलन आदि का विस्तृत ऐतिहासिक विवेचन किया गया है। व्रतखंड के अंतर्गत चैत्र प्रतिपदा, रामनवमी, अक्षय तृतीया, परशुराम जयंती, दशहरा, सावित्री व्रत, एकादशी, चातुर्मास्य, नाग पंचमी, मनसा पूजा, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, हरितालिका, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, अनंत चतुर्दशी, नवरात्र, विजयादशमी, दीपावली, मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, होलिका एवं ग्रहण आदि के विस्तृत शोधपूर्ण विवेचन के पश्चाता १४१ पृष्ठों में अक्षरानुक्रम से विभिन्न हिंदू व्रतों की लंबी सूची दी गई है। इस सूची में विवरण संक्षिप्त होने के बावजूद यह सूची स्वयं लेखक के कथनानुसार तब तक प्रकाशित सभी सूचियों से बड़ी है। इसके पश्चात काल की प्राचीन धारणा, नक्षत्रों के प्राचीन उल्लेख, भारतीय ज्योतिर्गणित की मौलिकता, मुहूर्त, विवाह आदि के विवेचन के अतिरिक्त भारतीय, बेबीलोनी एवं यवन ज्योतिष का विकास और मिश्रण आदि का शोधपूर्ण विवेचन भी उपस्थापित किया गया है। इसके पश्चात् शांति, शकुन आदि के वर्णन के अतिरिक्त पुराणों एवं उप पुराणों के काल आदि का शोधपूर्ण अनुशीलन इस ग्रंथ की एक महती विशेषता है।

पंचम जिल्द…

पंचम जिल्द (पंचम खंड, उत्तरार्ध, अध्याय २६ से ३७ तक) में ‘तांत्रिक सिद्धांत एवं धर्मशास्त्र’, न्यास, मुद्राएँ, यंत्र, चक्र, मंडल आदि; ‘मीमांसा एवं धर्मशास्त्र’, ‘धर्मशास्त्र एवं साहित्य’, ‘योग एवं धर्मशास्त्र’, विश्व-विद्या, ‘कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धांत’, ‘हिंदू संस्कृति एवं सभ्यता की मौलिक एवं मुख्य विशेषताएँ’ आदि विषयों का विवेचन उपस्थापित हुआ है।

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