गुरु गोविन्द सिंह जी के चार पुत्र थे, साहिबजादा अजित सिंह, साहिबजादा जुझार सिंह, साहिबजादा जोरावर सिंह एवं साहिबजादा फतेह सिंह। साहिबजादा जोरावर सिंह और उनके छोटे भाई साहिबजादा फतेह सिंह की गिनती सिखों के सबसे पूज्य एवं श्रद्धेय शहीदों में की जाती है।
जन्म…
साहिबजादा जोरावर सिंह जी का जन्म १७ नवंबर १६९५ (कई इतिहासकार जन्म की तारीख २८ नवम्बर, १६९५ बताते हैं) को आनंदपुर में पिताश्री गुरु गोविन्द सिंह एवं माता जीतो जी के यहां हुआ था। मात्र नौ वर्ष की अल्पायु में ही वे शहीद हो गए थे।
शहीदी प्रेरक कथा…
वर्ष था १७०५ का और तारीख थी २० दिसम्बर। इसी दिन गुरु गोबिन्द सिंह जी ने परीवार को लेकर सिखों के साथ मुगल सेना के साथ संघर्ष करते हुए श्री आनन्दपुर साहिब जी को छोड़ा था। सरसा नदी पार करने में कई झड़पें हुई, जिसमें तकरीबन सभी वीर मारे गए, मात्र पाँच सौ में से सिर्फ़ चालीस सिख बचे जो गुरू साहिब के साथ रोपड़ के समीप चमकौर की गढ़ी पहुँच सके।
इस बीच सरसा नदी में बाढ़ आ गई और गुरू गोबिन्द जी का परिवार ही काफिले से बिछुड़ गया। गुरु जी की माता गुजर कौर (गुजरी जी) के साथ उनके दो छोटे पोते थे, वे अपने रसोइये गँगाराम के साथ आगे बढ़ती हुए रास्ता भटक गईं। इधर सरहिन्द का नवाब वजीद ख़ान ने हर गाँव में ढिँढोरा पिटवा रखा था कि गुरू साहिब और उनके परिवार को कोई पनाह ना दे। जिसने पनाह दी वह भी दंड का भागी होगा और उन्हें पकड़वाने वालों को इनाम दिया जाएगा। यह मुनादी सुनकर गँगू की नीयत खराब हो गई। उसने मोरिंडा की कोतवाली में कोतवाल को सूचना देकर इनाम के लालच में बच्चों को पकड़वा दिया। नवाब वज़ीर खान ने जब गुरू साहिब के मासूम बच्चों तथा वृद्ध माता को अपने कैदियों के रूप में देखा तो बहुत प्रसन्न हुआ; जैसे कोई बहुत बड़ा काम उसने कर लिया हो, किसी बहुत बड़े योद्धा को पकड़ लिया हो। उसने अगले सुबह ही बच्चों को कचहरी में पेश करने के लिए फरमान जारी कर दिया।
वज़ीर ख़ान के सिपाही दोनों साहिबजादों को कचहरी ले गये। जहां थानेदार ने बच्चों को समझाया कि वे नवाब को उसके दरबार में झुककर सलाम करें। परंतु वे शेर के बच्चे थे, अतः इसके विपरीत उन्होंने उत्तर दिया और कहा कि यह सिर हमने सिर्फ अपने पिता गुरू गोबिन्द जी के हवाले किया हुआ है, इसलिए इस को कहीं और झुकने का प्रश्न ही नहीं उठता।
इसके बाद वज़ीर खान ने कहा, ‘इस्लाम को कबूल कर लो तो तुम्हें रहने को महल, खाने को भाँति भांति के पकवान तथा पहनने को रेशमी वस्त्र मिलेंगे। तुम्हारी सेवा में हर समय सेवक रहेंगे।’ लेकिन वे दोनों वीर थे, उन्होंने कहा, ‘हमें सिक्खी जान से कहीं अधिक प्यारी है। दुनिया का कोई भी लालच अथवा भय हमें सिक्खी से नीचे नहीं गिरा सकता। हम पिता गुरू गोबिन्द जी के शेर बच्चे हैं हम किसी से भी नहीं डरते। हम इस्लाम कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे।’
लेकिन नवाब भी बच्चों को मारने की बजाय इस्लाम में शामिल करने के हक में था। वह चाहता था कि इतिहास के पन्नों पर लिखा जाये कि गुरू गाबिन्द सिंह के बच्चों ने सिक्ख से इस्लाम को अच्छा समझा और मुसलमान बन गए। अतः अपनी इस इच्छा की पूर्ति हेतु उसने गुस्से पर नियंत्रण कर लिया तथा कहने लगा बच्चों जाओ, अपनी दादी के पास। कल आकर मेरी बातों का सही-सही सोचकर जवाब देना। जब वे अपनी दादी के पास आए तो, माता गुजरी जी ने पोतों से कचहरी में हुए वार्तालाप के बारे में पूछा। बच्चें भी दादी को कचहरी में हुए सारी बातों को सिलसिलेवार ढंग से बताते चले गए।
पहले दिन की भांति अगले दिन भी कचहरी में सब कुछ वैसा ही हुआ, नवाब का ख्याल था कि बच्चे लालच में आ जाएँगे। मगर वे तो गुरू गोबिन्द जी के बच्चे थे, उन्होंने किसी शर्त अथवा लालच में आए बिना इस्लाम को सिरे से नकार दिया।
अब तो नवाब गुस्से से लाल पीला हो गया, उसने कहा, ‘यदि तुम लोगों ने इस्लाम कबूल न किया तो मौत के घाट उतार दिए जाओगे। दोनों को फाँसी दे दूँगा, जिन्दा दीवार में चिनवा दूँगा। बोलो, क्या तुम्हें मन्जूर है? चुन लो मौत या इस्लाम? उन्होंने मंद मंद मुस्काते हुए कहा, ‘हम गुरू गोविन्द जी के पुत्र हैं। हमारे खानदान की रीति है, ‘सिर जावे ताँ जावे, मेरा सिक्खी सिदक न जावे।’ हम धर्म परिवर्तन की बात ठुकराकर फाँसी के तख्ते को चूमेंगे।’
तीसरे दिन फिरसे साहिबज़ादों को कचहरी में लाया गया, धमकाया गया। उनसे कहा गया कि यदि वे इस्लाम अपना लेंगे तो उनका कसूर माफ कर दिया जाएगा और उन्हें शहजादों जैसी सुख-सुविधाएँ प्रदान की जाएंगी।किन्तु साहिबज़ादे कहां डिगने वाले थे। उनकी दृढ़ता देखकर उन्हें किले की दीवार की नींव में चिनवाने की तैयारी आरम्भ कर दी गई किन्तु बच्चों को शहीद करने के लिए कोई जल्लाद तैयार न हुआ।
अकस्मात ही दिल्ली के दोनों शाही जल्लाद साशल बेग व बाशल बेग अपने एक मुकद्दमें के खातिर सरहिन्द आए हुए थे। उन्होंने अपने मुकद्दमें में माफी का वायदा लेकर साहिबज़ादों को शहीद करना मान लिया। बच्चों को उन दोनों के हवाले कर दिया गया। उन्होंने जोरावर सिंह व फतेह सिंह को किले की नींव में खड़ा करके उनके आसपास दीवार चिनवानी प्रारम्भ कर दी। दीवार बनते-बनते जब फतेह सिंह के सिर के निकट आ गई तो जोरावर सिंह दुःखी दिखने लगे। काज़ियों को लगा कि वे घबरा गए हैं और अब धर्म परिवर्तन के लिए तैयार हो जायेंगे। उनसे जब दुःखी होने का कारण पूछा गया तो जोरावर बोले मृत्यु भय तो मुझे लेश मात्र नहीं है। मैं तो यह सोचकर उदास हूँ कि बड़ा मैं हूं और फतेह सिंह छोटा है। दुनियाँ में पहले मैं आया था, अतः यहाँ से जाने का पहला अधिकार भी मेरा है। लेकिन देखो फतेह सिंह को जिसे धर्म पर बलिदान होने का सुअवसर मुझसे पहले मिल रहा है।
दीवार जब फतेह सिंह के गले तक पहुँच गई काज़ी के सँकेत पर एक जल्लाद ने फतेह सिंह तथा उनके बड़े भाई जोरावर सिंह का शीश तलवार के एक वार से कलम कर दिया। इस प्रकार श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी के सुपुत्रों ने अल्प आयु मे ही शहादत प्राप्त कर ली। माता गुजरी जी बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा में गुम्बद की मीनार पर खड़ी होकर राह निहार रही थीं। माता गूजरी जी को जब छोटे साहिबजादों की शहीदी का समाचार सुना, वहीं ठंडे बूर्ज में ही शरीर त्याग गईं।
स्थानीय निवासी जौहरी टोडरमल को जब गुरू साहिब के बच्चों को यातनाएँ देकर कत्ल करने के हुक्म के विषय में ज्ञात हुआ तो वह अपना समस्त धन लेकर बच्चों को छुड़वाने के विचार से कचहरी पहुँचा, किन्तु उस समय तक बच्चों को शहीद किया जा चुका था। उसने नवाब से अँत्येष्टि क्रिया के लिए बच्चों के शव माँगे। वज़ीर ख़ान ने कहा, ‘यदि तुम इस कार्य के लिए भूमि, स्वर्ण मुद्राएँ खड़ी करके खरीद सकते हो तो तुम्हें शव दिये जा सकते हैं। टोडरमल ने अपना समस्त धन भूमि पर बिछाकर एक चारपाई जितनी भूमि खरीद ली और तीनों शवों की एक साथ अँत्येष्टि कर दी।
२६ दिसम्बर, १७०५ ईस्वी को जब यह किस्सा सिक्खों ने गुरू गोबिन्द सिंह को नूरी माही द्वारा सुनाया गया यह बयान कहा तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने उस समय अपने हाथ में पकड़े हुए तीर की नोंक के साथ एक छोटे से पौधे को जड़ से उखाड़ते हुए कहा, ‘जैसे मैंने यह पौधे को जड़ से उखाड़ा है, ऐसे ही तुरकों की जड़ें भी उखाड़ी जाएँगी।’