April 30, 2024

असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

अर्थात्… असत्य से सत्य की ओर। अंधकार से प्रकाश की ओर। मृत्यु से अमरता की ओर। (हमें ले जाओ) ॐ शांति शांति शांति।।

दीपावली शरद ऋतु (उत्तरी गोलार्द्ध) कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला सनातनी (हिन्दू) का एक प्रमुख त्यौहार है, जो ग्रेगोरी कैलेंडर के अनुसार अक्टूबर अथवा नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्यौहार है जो आध्यात्मिक रूप से ‘अन्धकार पर प्रकाश की विजय’ को दर्शाता है।

परिचय/ उत्पत्ति…

दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों ‘दीप’ अर्थात ‘दीया’ व ‘आवली’ अर्थात ‘लाइन’ यानी ‘श्रृंखला’ के मिश्रण से हुई है। कुछ लोग “दीपावली” तो कुछ “दिपावली” वही कुछ लोग “दिवाली” तो कुछ लोग “दीवाली” का प्रयोग करते है । यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि प्रत्येक शुद्ध शब्द का प्रयोग उसके अर्थ पर निर्भर करता है । शुद्ध शब्द “दीपावली” है , जो ‘दीप'(दीपक) और ‘आवली'(पंक्ति) से मिलकर बना है । जिसका अर्थ है ‘दीपों की पंक्ति’ । ‘दीप’ से ‘दीपक’ शब्द की रचना होती है। ‘दिवाली’ शब्द का प्रयोग भी गलत है क्योंकि उपयुक्त शब्द ‘दीवाली’ है। ‘दिवाली’ का तो इससे भिन्न अर्थ है। जिस पट्टे/पट्टी को किसी यंत्र से खींचकर खराद सान आदि चलाये जाते है, उसे दिवाली कहते है। इसका स्थानिक प्रयोग दिवारी है और ‘दिपाली’-‘दीपालि’ भी । दीपावली का बिगड़ा हुआ रूप ‘दीवाली’ है नाकी दिवाली; परंतु विशुद्ध एवं उपयुक्त शब्द दीपावली है। इसके उत्सव में घरों के द्वारों, घरों व मंदिरों पर लाखों प्रकाशकों को प्रज्वलित किया जाता है। दीपावली जिसे दीवाली भी कहते हैं उसे अन्य भाषाओं में अलग-अलग नामों से पुकार जाता है जैसे : उड़िया में दीपावली, बंगाली में दीपाबॉली, असमी, कन्नड़, मलयालम, तमिल और तेलुगू में दीपावली, गुजराती, हिन्दी, दिवाली, मराठी, कोंकणी में दिवाली, पंजाबी में दियारी, सिंधी में दियारी‎, नेपाली में तिहार और मारवाड़ी में दियाळी कहते हैं।

दीपावली पांच पर्वों का अनूठा त्योहार है। जिसमें सर्वप्रथम धनतेरस तत्पश्चात नरक चतुर्दशी और फिर दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। दिपावली के दुसरे दिन गोवर्धन पूजा और अंत में यमद्वितीया मनाया जाता। आइए हम इनके बारे में विस्तार से जाने।

पर्वों का समूह…

दीपावली के दिन भारत में विभिन्न स्थानों पर मेले लगते हैं। जैसा कि हमने पहले ही कहा दीपावली एक दिन का पर्व नहीं अपितु पर्वों का समूह है। दशहरे के पश्चात ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। दीपावली से दो दिन पूर्व धनतेरस का त्योहार आता है। इस दिन बाज़ारों में चारों तरफ़ जनसमूह उमड़ पड़ता है। बरतनों की दुकानों पर विशेष साज-सज्जा व भीड़ दिखाई देती है। धनतेरस के दिन बरतन खरीदना शुभ माना जाता है अतैव प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता अनुसार कुछ न कुछ खरीदारी करता है। इस दिन तुलसी या घर के द्वार पर एक दीपक जलाया जाता है। इससे अगले दिन नरक चतुर्दशी यानी आज की भाषा में छोटी दीपावली कहते हैं, होती है। इस दिन रात के सोने से पूर्व यम पूजा हेतु दीपक जलाए जाते हैं और बिना दीपक को देखे घर का किवाड़ बन्द कर दिया जाता है। ठीक दुसरे दिन दीपावली आती है। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाज़ारों में खील-बताशे, मिठाइयाँ, खांड़ के खिलौने, लक्ष्मी-गणेश आदि की मूर्तियाँ बिकने लगती हैं। स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और पटाखों की दूकानें सजी होती हैं। सुबह से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ व उपहार बाँटने लगते हैं। दीपावली की शाम को मां लक्ष्मी और भगवान गणेश जी की पूजन का विधान है। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ जलाकर रखते हैं। चारों ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाज़ार व गलियाँ जगमगा उठती हैं। बच्चे बड़े सभी तरह-तरह के पटाखों व आतिशबाज़ियों का आनंद लेते हैं। देर रात तक कार्तिक की अँधेरी रात पूर्णिमा से भी से भी अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है।

दीपावली से अगले दिन भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बचाया था अतः आज के दिन गोवर्धन पूजा का विधान है। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। गोवर्धन पूजा के अगले दिन भाई दूज का पर्व मनाया जाता है। भाई दूज कहें अथवा भैया द्वीज कहें या यम द्वितीय। इस दिन भाई और बहिन गांठ जोड़ कर यमुना नदी में स्नान करने की परंपरा है। इस दिन बहिन अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगा कर उसके मंगल की कामना करती है और भाई भी प्रत्युत्तर में उसे भेंट देता है।

दीपावली पूजन सामग्री…

महालक्ष्मी पूजन में केसर, रोली, चावल, पान का पत्ता, सुपारी, फल, फूल, दूध, खील, बतासे, सिन्दूर, सूखे मेवे, मिठाई, दही गंगाजल धूप, अगरबत्ती दीपक रुई, कलावा, नारियल और कलश के लिए एक ताम्बे का पात्र।

पूजन की विधि…

१. एक थाल में या भूमि को शुद्ध करके नवग्रह बनाएं या नवग्रह का यंत्र स्थापित करें। इसके साथ ही एक ताम्बे का कलश बनाएं, जिसमें गंगाजल, दूध, दही, शहद, सुपारी, सिक्के और लौंग आदि डालकर उसे लाल कपड़े से ढक कर एक कच्चा नारियल कलावे से बांध कर रख दें।

२. जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया है, वहां पर रुपया, सोना या चांदी का सिक्का, लक्ष्मी जी की मूर्ति या मिटटी के बने हुए लक्ष्मी-गणेश सरस्वती जी या ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवी देवताओं की मूर्तियां या चित्र सजायें।

३. कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रूप मानकर दूध, दही और गंगाजल से स्नान कराकर अक्षत, चंदन का श्रृंगार करके फल-फूल आदि से सजाएं। इसके ही दाहिने ओर एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलायें जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है।

४. दिवाली के दिन की विशेषता लक्ष्मी जी के पूजन से संबन्धित है। इस दिन हर घर, परिवार, कार्यालय में लक्ष्मी जी के पूजन के रूप में उनका स्वागत किया जाता है। दिवाली के दिन जहां गृहस्थ और व्यापारी वर्ग के लोग धन की देवी लक्ष्मी से समृद्धि और धन की कामना करते हैं, वहीं साधु-संत और तांत्रिक कुछ विशेष सिद्धियां अर्जित करने के लिए रात्रिकाल में अपने तांत्रिक कर्म करते हैं।

पूजा का विधान…

१. घर के बड़े-बुजुर्गों को या नित्य पूजा-पाठ करने वालों को महालक्ष्मी पूजन के लिए व्रत रखना चाहिए। घर के सभी सदस्यों को महालक्ष्मी पूजन के समय घर से बाहर नहीं जाना चाहिए। सदस्य स्नान करके पवित्र आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम करके स्वस्ति वाचन करें। फिर गणेशजी का स्मरण कर अपने दाहिने हाथ में गन्ध, अक्षत, पुष्प, दूर्वा, दव्य और जल आदि लेकर दीपावली महोत्सव के निमित्त गणेश, अम्बिका, महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, कुबेर आदि देवी-देवताओं के पूजनार्थ संकल्प करें।

२. कुबेर पूजन करना लाभकारी होता है। कुबेर पूजन करने के लिये सबसे पहले तिजोरी अथवा धन रखने के संदुक पर स्वस्तिक का चिन्ह बनायें, और कुबेर का आह्वान करें।

३. सबसे पहले गणेश और अम्बिका का पूजन करें। फिर कलश स्थापन, षोडशमातृका पूजन और नवग्रह पूजन करके महालक्ष्मी आदि देवी-देवताओं का पूजन करें। पूजन के बाद सभी सदस्य प्रसन्न मुद्रा में घर में सजावट और आतिशबाजी का आयोजन करें।

४. हाथ में अक्षत, पुष्प, जल और धन राशि ले लें। यह सब हाथ में लेकर संकसंकल्प मंत्र को बोलते हुए संकल्प कीजिए, ‘मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान और समय पर अमुक देवी-देवता की पूजा करने जा रहा हूं जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हो’। सबसे पहले गणेश जी और गौरी का पूजन करिए।

५. हाथ में थोड़ा-सा जल ले लें और भगवान का ध्यान करते हुए पूजा सामग्री चढ़ाएं। हाथ में अक्षत और पुष्प ले लें। अंत में महालक्ष्मी जी की आरती के साथ पूजा का समापन करें। घर पूरा धन-धान्य और सुख-समृद्धि हो जाएगा।

६. दीपावली का विधिवत-पूजन करने के बाद घी का दीपक जलाकर महालक्ष्मी जी की आरती की जाती है। आरती के लिए एक थाली में रोली से स्वास्तिक बनाएं। उस में कुछ अक्षत और पुष्प डालें, गाय के घी का चार मुखी दीपक चलायें. और मां लक्ष्मी की शंख, घंटी, डमरू आदि से आरती उतारें।

७. आरती करते समय परिवार के सभी सदस्य एक साथ होने चाहिए। परिवार के प्रत्येक सदस्य को माता लक्ष्मी के सामने सात बार आरती घूमानी चाहिए। सात बात होने के बाद आरती की थाली को लाइन में खड़े परिवार के अगले सदस्य को दे देना चाहिए। यहीं क्रिया सभी सदस्यों को करनी चाहिए।

८. दीपावली पर सरस्वती पूजन करने का भी विधान है। इसके लिए लक्ष्मी पूजन करने के पश्चात मां सरस्वती का भी पूजन करना चाहिए।

९. दीपावली एवं धनत्रयोदशी पर महालक्ष्मी के पूजन के साथ-साथ धनाध्यक्ष कुबेर का पूजन भी किया जाता है।

कुबेर पूजन करने से घर में स्थायी सम्पत्ति में वृद्धि होती है और धन का अभाव दूर होता है। पूजन इस प्रकार करें…

१. बही खातों का पूजन करने के लिए पूजा मुहुर्त समय अवधि में नवीन खाता पुस्तकों पर केसर युक्त चंदन से या फिर लाल कुमकुम से स्वास्तिक का चिह्न बनाना चाहिए। इसके बाद इनके ऊपर ‘श्री गणेशाय नम:’ लिखना चाहिए। इसके साथ ही एक नई थैली लेकर उसमें हल्दी की पांच गांठे, कमलगट्ठा, अक्षत, दुर्गा, धनिया व दक्षिणा रखकर, थैली में भी स्वास्तिक का चिन्ह लगाकर सरस्वती मां का स्मरण करना चाहिए।

2. मां सरस्वती का ध्यान करें। ध्यान करें कि जो मां अपने कर कमलों में घटा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, चन्द्र के समान जिनकी मनोहर कांति है। जो शुंभ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है। ‘वाणी’ जिनका स्वरूप है, जो सच्चिदानन्दमय से संपन्न हैं, उन भगवती महासरस्वती का मैं ध्यान करता हूं। ध्यान करने के बाद बही खातों का गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करना चाहिए।

३. जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया गया है, वहां पर रुपया, सोना या चांदी का सिक्का, लक्ष्मी जी की मूर्ति या मिट्टी के बने हुए लक्ष्मी-गणेश-सरस्वती जी की मूर्तियां सजायें। कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रूप मानकर दूध, दही ओर गंगाजल से स्नान कराकर अक्षत, चंदन का श्रृंगार करके फूल आदि से सजाएं। इसके ही दाहिने और एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलायें, जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है।

इतिहास…

भारत में प्राचीन काल से दीवाली को हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह के बाद काटी जाने वाली फसल के रूप में दर्शाया गया है। पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में दीपावली का उल्लेख मिलता है।दीये को स्कन्द पुराण में सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है, सूर्य जो जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का लौकिक दाता है और जो हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक माह में अपनी स्तिथि बदलता है। कुछ क्षेत्रों में हिन्दू दीपावली को यम और नचिकेता की कथा के साथ भी जोड़ा जाता है। नचिकेता की कथा जो सही बनाम गलत, ज्ञान बनाम अज्ञान, सच्चा धन बनाम क्षणिक धन आदि के बारे में बताती है।

दीपावली का इतिहास रामायण से भी जुड़ा हुआ है, श्री रामचन्द्र जी ने माता सीता को रावण की कैद से छुड़वाकर जब १४ वर्ष का वनवास व्यतीत कर अयोध्या वापस लोटे थे। उसके उपलक्ष्य में अयोध्या वासियों ने दीप जलाए थे, तभी से दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है। लेकिन आपको यह जानकर बहुत हैरानी होगी की अयोध्या में सिर्फ़ दो वर्ष ही दीवाली मनायी गई थी।

७वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इसे दीपप्रतिपादुत्सवः कहा है जिसमें दीये जलाये जाते थे और नव वर-बधू को उपहार दिए जाते थे। 9वीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इसे दीपमालिका कहा है जिसमें घरों की पुताई की जाती थी और तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों सजाया जाता था। फारसी यात्री और इतिहासकार अल बेरुनी ने भारत पर अपने ११वीं सदी के संस्मरण में, दीवाली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार कहा है।

दीपावली की प्रचलित कथाएं…

पहली कथाः

किसी समय में एक राजा लकड़हारे पर प्रसन्न होकर उसे चंदन की लकड़ी का जंगल उपहार स्वरुप दे दिया, लेकिन वह लकड़हारा बेहद भोला था उस चंदन की लकड़ी और अन्य लकड़ियों का अंतर नहीं मालूम था। अतः वह चंदन की लकड़ियां लाकर उन्हें जलाकर, भोजन बनाने के लिये प्रयोग करता था। जब यह बात गुप्तचरों के द्वारा राजा को पता चला तो उन्होंने माथा पकड़ लिया और यह बात उनकी समझ में आ गया कि, धन का उपयोग बुद्धिमान व्यक्ति ही कर सकता है। यही कारण है कि मां लक्ष्मी जी और श्री गणेश जी की एक साथ पूजा की जाती है। ताकि व्यक्ति को धन के साथ साथ उसे प्रयोग करने कि योग्यता की प्राप्ति भी हो।

दूसरी कथा:

रामायण के अनुसार चौदह वर्ष वनवास काट कर राजा राम वापस अयोध्या आये थे, उन्ही के आने की खुशी में अयोध्या वासियों ने अयोध्या को दीयों से सजाया था। अपने भगवान के आने की खुशी में अयोध्या नगरी दीयों की रोशनी में जगमगा उठी थी।

तीसरी कथाः

भगवान श्री कृष्ण ने दीपावली से एक दिन पहले नरकासुर का वध किया था। इसी कारण बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रुप में भी दीपावली पर्व मनाया जाता है।

चौथी कथा…

एक गांव में एक साहूकार रहता था, उसकी एक बेटी थी जो प्रतिदिन पीपल पर जल चढ़ाने जाती थी। जिस पीपल के पेड़ पर वह जल चढ़ाती थी, उस पेड़ पर मा लक्ष्मी जी का वास था। एक दिन लक्ष्मी जी ने साहूकार की बेटी से कहा ‘मैं तुम्हारी मित्र बनना चाहती हूँ’। लड़की ने कहा की ‘मैं अपने पिता से पूछ कर आऊंगी’। यह बात उसने अपने पिता को बताई, तो पिता ने ‘हां’ कर दी। दूसरे दिन से साहूकार की बेटी ने सहेली बनना स्वीकार कर लिया।

अब तो दोनों अच्छी सहेली बन गईं थीं, दोनों दिन भर बातें किया करतीं लेकिन लड़की अपनी गरीबी के बारे में कभी उनसे कुछ भी ना कहती। एक दिन लक्ष्मी जी साहूकार की बेटी को अपने घर ले गईं। घर में लक्ष्मी जी ने उसका दिल खोल कर स्वागत किया, उसकी खूब खातिर की। उसे अनेक प्रकार के भोजन आदि परोसे। मेहमान नवाजी के बाद साहूकार की बेटी जब लौटने लगी तो, लक्ष्मी जी ने प्रश्न किया कि अब तुम मुझे कब अपने घर बुलाओगी। साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी को अपने घर बुला तो लिया, परन्तु अपने घर की आर्थिक स्थिति देख कर वह उदास हो गई। उसे डर लग रहा था कि क्या वह, लक्ष्मी जी का अच्छे से स्वागत कर पायेगी।

साहूकार ने जब अपनी बेटी को उदास देखा तो वह समझ गया, उसने अपनी बेटी को समझाया, कि तू फौरन मिट्टी से चौका लगा कर साफ-सफाई कर। चार बत्ती के मुख वाला दिया जला और लक्ष्मी जी का नाम लेकर बैठ जा। उसी समय एक चील किसी रानी का नौलखा हार लेकर उसके पास डाल गया। साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर भोजन की तैयारी की। थोड़ी देर में भगवान श्री गणेश जी के साथ लक्ष्मी जी उसके घर आईं। साहूकार की बेटी ने दोनों की खूब सेवा की, उसकी खातिर से लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हुईं। इसके बाद लड़की और उसके पिता के जन्म जन्मांतर के दुख मिट गए।

इसी तरह के अनेक कथाएं प्रचलित हैं, जोकि पुराणों आदि ग्रन्थों में आपको पढ़ने पर मिल जाएंगी।

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