April 27, 2024

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी का जीवन ही एक आदर्श है, जिससे हर कोई अपने लिए प्रेरणा लेकर व्यक्तित्व के उच्चतम शिखर को प्राप्त कर सकता है। श्री राम ऐसे उच्च मानवीय गुणों से सम्पन्न थे कि आदि काल से लेकर आज तक उनका जीवन आदर्श मनुष्य बनने की प्रेरणा देने वाला अक्षय स्रोत बना हुआ है।

वैसे तो श्री रामचन्द्र जी के जीवन की मुख्य घटनाएँ सर्वविदित हैं और उन घटनाओं तथा प्रसंगों से उनके चरित्र की श्रेष्ठता का पता चलता है। अयोध्या के राजा दशरथ के चार पुत्र थे, जिनमें श्री राम सबसे बड़े थे। उनके बाद भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न थे। मगर क्या आपने कभी ये सोचा है कि श्रीराम चार भाई ही क्यों थे? कम या ज्यादा क्यों नहीं? और अगर चार भाई थे तो लक्ष्मण ही राम के साथ वनवास के लिए क्यों गए? और भरत ने ही खड़ाऊ रख के शासन क्यों किया? और शासन भरत ने किया तो शत्रुधन अयोध्या में क्यों थे?

जैसा कि हमने ऊपर ही कहा है, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी का जीवन एक आदर्श है तो महोदय उनके साथ साथ उनका परिवार भी एक आदर्श ही है। जहां भगवान श्रीराम और उनके भाई चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक हैं, वहीं उनकी माताएं मनुष्य के अंदर के तीन गुणों सतो गुण, रजो गुण एवं तमो गुण की प्रतीक हैं और सीता जी और उनकी तीनों बहनें परिस्थितियों यानी अर्जित स्थिति और प्रदत स्थिति की प्रतिक हैं।

 

पुरुषार्थ और उनके प्रतीक…

अब हम इस बात को थोड़ा विस्तार से चर्चा करते हैं। श्रीराम धर्म के प्रतीक हैं, भरत मोक्ष के प्रतीक हैं, लक्ष्मण काम के प्रतीक हैं और शत्रुघ्न अर्थ के प्रतीक हैं। धर्म तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कामना का साथ न हो यानी धर्म करने की इच्छा हमेशा साथ रहनी चाहिए, इसलिए राम के साथ लक्ष्मण हमेशा साथ रहे। भरत मोक्ष के प्रतीक हैं और मोक्ष तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक धर्म के किसी प्रतीक को वह धारण कर तपस्या ना करे। इसलिए भरत ने अयोध्या के सिंहासन पर श्रीराम के खड़ाऊ को स्थापित किया। और शत्रुघ्न अर्थ के प्रतीक हैं। अर्थ अर्थात धन का होना समाज, देश आदि को चलाने के लिए अनिवार्य है, जिसे कभी छोड़ा नहीं जा सकता। इसलिए शत्रुघ्न राजधानी में ही रहे।

जब बात आती है कि कोई व्यक्ति समाज में रहकर साधु प्रवृत्ति कैसे प्राप्त कर सकता है तो इसके लिए ये चार भाई सर्वोत्तम उदाहरण हैं। व्यक्ति की कामना यानी इच्छा को तो धर्म सबसे प्रिय होने चाहिए, धर्म को मोक्ष और अर्थ को समाज के हित में खर्च करना चाहिए।

 

गुण और उनके प्रतीक…

राजा दशरथ के तीन रानियाँ ही क्यों थीं? इसे जानने के लिए हमें प्रकृति को जानना होगा। प्रकृति में तीन गुण पाये जाते है। गुणों के कारण ही सृष्टि का विकास हुआ है–

सत्त्वं लघु प्रकाषकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रजः।

गुरुवरणकमेव हि तमः प्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः।।

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण क्रमषः प्रीति, अप्रीति और विषादात्मक हैं। धर्म सतों गुण से ही आ सकता है। तो कौशल्या जी सतों गुण का प्रतीक हैं, जिनसे धर्म की उत्पत्ति होती है, इसलिए वे राम की माँ हैं। अर्थ और काम रजों गुण से उत्पन्न होते हैं तो सुमित्रा जी रजों गुण की प्रतीक हैं। रजों गुण से काम और अर्थ का जन्म होता है, इसलिए उनसे काम के प्रतिक लक्ष्मण और अर्थ के प्रतिक शत्रुघ्न उत्पन्न हुए। कैकई तमो गुण का प्रतीक हैं, जिसके पार जाकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए भरत अपनी मां कैकई से दूर होकर नंदीग्राम में धर्म के प्रतिक यानी राम के खड़ाऊ के समक्ष तपस्यार्थ हो गए। इससे यह सिद्ध होता है कि महाराज दशरथ यानी एक व्यक्ति की तीन ही रानियाँ यानी हैं।

जानकारी के लिए बताते चलें कि तमो गुण के व्यक्ति अत्यधिक आकर्षक होते हैं और मनुष्य की प्रकृति होती है कि वह आकर्षण के मोह जाल में फंस कर धर्म का त्याग कर देता है और अपना और अपने परिजनों का अनर्थ कर बैठता है। अगर आप थोड़ा सा गौर करें तो आप पाएंगे कि कैकई जो तमो गुण की प्रतिक हैं, उनके आकर्षण के कुचक्र में फंसकर राजा दशरथ अपने धर्म के प्रतिक पुत्र श्रीराम को अपने से दूर कर देते हैं। इसके बाद क्या हुआ यह जगजाहिर है।

 

परिस्थितियां और उनके प्रतीक…

मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम जी की धर्मपत्नी माता सीता जी की उनके अलावा और तीन बहनें थीं, जिनका विवाह श्रीराम के अन्य तीन भाइयों से हुआ था। मांडवी का विवाह भरत से, उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से और श्रुतकीर्ति भगवान राम के अनुज शत्रुघ्न से ब्याही गई थीं।

चारों युगों और तीनों लोकों में राम राज्य से महान राज्य कहीं भी हमें नहीं दिखता और ना ही राम से बड़ा कोई राजा दिखता है। मगर रामराज्य की महानता की नींव में एवं रामराज्य की पताका को पकड़े हुए हमें उसमें उसकी स्त्रियाँ खड़ी दिखती हैं। कहीं सीता तो कहीं उर्मिला, कभी श्रुतकीर्ति तो कभी माँडवी। इतने में ही यह कथा कहां खत्म होने वाली है तो आईए हम आपको कुछ उदाहरणों से इसे समझाते हैं कैसे…

भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य के कलश को स्थापित किया था परन्तु रामराज्य में या यूँ कहें तो रामकथा में स्त्रियों के प्रेम, त्याग, समर्पण, बलिदान से ही यह संभव हो पाया था। सीताजी के बारे में हम सभी जानते हैं कि वो अपने पति के साथ वन में चली गईं। उर्मिला जी के बारे में महाकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने साकेत में लिखा है कि लक्ष्मण तो अपने भाई और भाभी के साथ वन को जा चुके हैं लेकिन उर्मिला पीछे भवन में ही रह गयी हैं। उन्हीं की मन:स्थिति का भावपूर्ण वर्णन कवि ने यहां किया है।

मानस-मन्दिर में सती, पति की प्रतिमा थाप,

जलती-सी उस विरह में, बनी आरती आप।

(उर्मिला के ह्रदय में अपने पति की ही प्रतिमा है लेकिन वह विरह से व्याकुल हैं और उसमें किसी आरती की लौ के समान स्वयं जल रही हैं)।

मांडवी; हां! भरत जी की धर्मपत्नी। श्री राम जी के वनवासी हो जाने के पश्चात भरत जी भी वनवासी का वेश धारण कर नंदीग्राम में कुटिया बनाकर रहने लगे। मगर मांडवी तो एक अलग ही मझधार में फंसी हुई थी। वो यह समझ ही नहीं पा रही थी कि वह एक राजा की पत्नी है या सन्यासी की। वह यह भी समझ नहीं पा रही थी कि वह राजधानी में रहकर बड़ी बहू का फर्ज निभाए या नंदीग्राम में रहकर पत्नी धर्म। उसके पति ने तो उसे प्यार से समझा कर त्याग ही दिया था मगर वह अपने पति को कैसे त्यागे? पूरे चौदह वर्ष तक वह मझधार में फंसी रही।

अब बात करते हैं श्रुतिकीर्ति जी के बारे में। कथा कहती है, भरत जी नंदिग्राम में रहते हैं और शत्रुघ्न जी उनके आदेश से राज्य संचालन करते हैं। तो एक रात की बात है, माता कौशिल्या को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट जान पड़ी तो नींद खुल गई पूछा कौन हैं ?

मालूम पड़ा श्रुतिकीर्ति जी हैं, तो उन्हें नीचे बुलाया गया।

श्रुतिकीर्ति जी, जो शत्रुघ्न जी की पत्नी हैं, नीचे माता के पास आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं।

माताजी ने उनसे पूछा, श्रुति! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही थी बेटी, क्या तुम्हें नींद नहीं आ रही ? एवं शत्रुघ्न कहाँ है ?

श्रुतिकीर्ति जी की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए हैं।

उफ! क्या यह सुनकर आपका हृदय नहीं कांपा? कौशल्या जी का तो ह्रदय काँप उठा था। तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए। आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, माता निकल पड़ी उन्हें खोजने। खोजते खोजते पता चला की शत्रुघ्न जी कहाँ हैं ? अयोध्या जी के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला रखी हुई है, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर वे लेटे मिले।

माता सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी ने आँखें खोलीं, माँ आप ? झट उठे, चरणों में गिरे, माँ! आपने क्यों कष्ट किया ? मुझे बुलवा लिया होता।

माँ ने कहा, शत्रुघ्न! यहाँ क्यों ?

शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम पिताजी की आज्ञा से वन चले गए, भैया लक्ष्मण उनके पीछे चले गए, भैया भरत भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?

माता निरुत्तर रह गईं, उन्हें यह समझ नहीं आया की वे दोनों पति पत्नी में से किसे किसका हक दिलवाए और किसे त्यागी बनावे।

रामकथा में त्याग की प्रतियोगिता चल रही है और यहाँ सभी प्रथम स्थान पर हैं, कोई पीछे नहीं रहा। ये त्याग महानता की उच्चतम सीमा है, मगर क्या ये त्याग अनिवार्य था या परिस्थितियां ऐसी बन गई थी कि हर किसी को अपनी अपनी जिम्मेदारियों को उठाना ही था, तो माता सीता और उनकी तीनों बहनें परिस्थितियों की प्रतिक हैं।

एक निश्चित समय में, किसी विशेष स्थान में, किसी विशेष व्यवस्था के अन्दर जो व्यक्ति को एक स्थान मिला होता है वही उसकी स्थिति या परिस्थिति या पद है। उदाहरण के लिए पति यदि निठल्ला, मुर्ख और व्यभिचारी है तो भी परम्परात्मक भारतीय परिवारों मे उसकी स्थिति पत्नी से अच्छी ही रहती है। इसी प्रकार किसी जिला प्रशासनिक अधिकारी मे निर्णय लेने की क्षमता और दृढ़ता का अभाव, जन कल्याण कार्यों के प्रति अरूचि तथा कार्य के प्रति लगन और निष्ठा के अभाव के बावजूद भी एक विशेष स्थिति पर आरूढ़ होने की वजह से उसे समाज मे एक अंश तक सम्मान प्रतिष्ठा मिलती है और वह दूसरों पर प्रभाव रखता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि परिस्थिति या स्थिति किसी व्यक्ति के समाज मे स्थान, जिसके सन्दर्भ मे वह अन्य व्यक्तियों से संबंधित होता है, की सामाजिक पहचान है जिससे उसे समाज मे सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। और यहां तो त्याग की प्रतियोगिता चल रही है। परिस्थिति या स्थिति दो प्रकार की होती हैं–

१. प्रदत्त स्थिति या जन्मजात परिस्थिति और

२. अर्जित या स्वार्जित स्थिति

जहां सीता जी अर्जित परिस्थिति की प्रतिक हैं वहीं उनकी बहने प्रदत्त परिस्थिति की प्रतिक हैं क्योंकि प्रदत्त स्थिति व्यक्ति को समाज द्वारा प्राप्त होती हैं, जैसे; सीताजी की बहनों को उनके परिजनों अथवा अपने अपने पतियों द्वारा इस विरह परिस्थिति में डाला गया है, जिसके लिये उन्हें कोई प्रयत्न नहीं करने पड़े थे वहीं स्वार्जित स्थिति व्यक्ति के स्वयं के प्रयासों द्वारा प्राप्त होता है, जैसे; सीताजी ने स्वयं ही वन गमन को स्वीकार किया था। प्रदत्त स्थिति को व्यक्ति समाज में लिंग-भेद, आयु भेद, नातेदारी, वर्ण भेद तथा कुछ अन्य आधारों पर प्राप्त करता है। स्वार्जित स्थिति में इन आधारों का कोई महत्व नहीं होता। प्रदत्त स्थिति अपेक्षाकृत स्थिर होती है, जैसे; चौदह वर्ष तक उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति की अवस्था प्रथम दिवस के समान बनी रही। वहीं स्वार्जित स्थिति परिवर्तनशील होती है, जैसे माता सीता की स्थिति पूरे चौदह वर्ष तक बदलती रही।

भारतीय संस्कृति के चरित्र का प्रतीक…

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भारत की आत्मा हैं। राम भारतीय संस्कृति के भव्य-दिव्य मंदिर के न केवल चमकते शिखर हैं, अपितु वे वास्तव में उसके आधार भी हैं। इसलिए राम का जीवन, राम का चरित्र, राम का जन्म, राम के परिजन या यूं कहें कि सम्पूर्ण रामकथा ही उनके समय से लेकर आज तक प्रासंगिक है। उनका जीवन प्रकाश स्तम्भ की तरह है, जो अंधेरे में हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। संसार में ऐसा कोई प्रश्न नहीं है, जिसका व्यवहारिक आदर्श उत्तर राम ने अपने आचरण से नहीं दिया हो। उनके जीवन कृत में सारा जग समाया हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं–

सिय राम मय सब जग जानी।

करहु प्रणाम जोरी जुग पानी।।

राष्ट्र एवं समाज जीवन की दिशा क्या होनी चाहिए, यह रामकथा में राम के जीवन से अनुभूत की जा सकती है। वह ऐसे नरश्रेष्ठ या अवतार हैं, जिन्होंने वाणी से नहीं अपितु आचरण से जीवनदर्शन को प्रस्तुत किया। इसलिए वह सीधे लोक से जुड़ते हैं। असाधारण होकर भी अपने साधारण जीवन से समूचे लोक का नेतृत्व करते हैं। राम भारतीय संस्कृति के ऐसे नायक हैं, जिन्होंने समाज के सुख-दु:ख और उसकी रचना को नजदीक से देखा-समझा। अयोध्या के राजकुमार-राजा से कहीं अधिक बड़ी भूमिका में राम हमें एक ऐसे जननायक के रूप में दिखाई पड़ते हैं, जिन्होंने उत्तर से दक्षिण तक दुष्ट राजाओं के आतंक से भयाक्रांत भारतीय समाज के साहस को जगाया और उन्हें एकजुट किया। अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार और पराक्रम का बल दिया। राष्ट्र के सोये हुए भाग्य को जगाने का काम लोकनायक करते हैं, वहीं प्रभु श्रीराम ने किया।

नवधा भक्ति और उसके प्रतिक…

श्रीराम माता सीता का हरण के पश्चात उन्हें खोजते हुए जब एक शबरी नाम की आदिवासी महिला भक्त के पास पहुँचते हैं, तब शबरी भगवान के पूजन अर्चन में संकोच करती है और कहती है, मैं एक तो नीच, अधम जाति की हूँ और दूसरी तरफ स्त्री भी तो किस तरह आपकी स्तुति करूँ तब भगवान यह कहते हैं कि मैं तो सिर्फ भक्त और उसके भक्ति से संबंध रखता हूं, मुझे नीच–ऊंच, गरीब–अमीर, स्त्री–पुरुष से क्या मतलब। तब वे शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं ।

रामकथा सुंदर करतारी । संशय विहग उडावन हारी ।।

नवधा भक्ति का पहला प्रकार :

प्रथम भगति संतन कर संगा ।– श्रीराम माँ शबरी को बताते हैं कि पहली भक्ति संतों का साथ है।

संतो का साथ का मतलब यही है कि संत का साथ, उनके आदर्शों का साथ, उनके वचनों का साथ। आजकल एक बात अक्सर सुनने को मिलती है कि अच्छे संत और अच्छे गुरु कहाँ मिलते हैं, तो श्रीमान! अच्छे संत और अच्छे गुरु को ढूंढने से अच्छा है स्वयं को अच्छा शिष्य बनने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। याद रखिए जिस दिन आप सच्चे मन से स्वयं को सच्चा शिष्य मान लेंगे आप के जीवन में सच्चे संत का प्रवेश निश्चित हो जाएगा।

नवधा भक्ति का दूसरा प्रकार :

दूसरि रति मम कथा प्रसंगा– श्रीराम शबरी से कहते हैं कि दूसरी भक्ति मेरी कथा में मेरी कथा के प्रसंगों से प्रेम, यह नवधा भक्ति की दूसरी भक्ति है। आप जब यह लेख पढ़ रहे हैं जहां भगवान राम की कथा का एक प्रसंग चल रहा है तो यह भी नवधा भक्ति में से एक भक्ति ही है।

नवधा भक्ति का तीसरा प्रकार :

गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान– श्रीराम अपने सद्गुरु की सेवा को तीसरी भक्ति बताते हैं। यह भक्ति उनके पूरे जीवन काल में दिखती है चाहे गुरु विश्वामित्र की सेवा के लिए वन में ताड़का वध हो या फिर अहिल्या का उद्धार हो सभी में गुरु की ही आज्ञा का पालन किया है, यह गुरु के प्रति भक्ति ही है। जनकपुर में प्रवास के दौरान भी बिना गुरु की आज्ञा के भगवान श्रीराम ने कुछ नहीँ किया।

नवधा भक्ति का चौथा प्रकार :

चौथि भगति मम गुन गन करई कपट तजि गान– श्रीराम चौथी भक्ति अपने गुणों का कपट छोड़ कर गान करने को बताते हैं।

नवधा भक्ति का पाँचवाँ प्रकार :

मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा । पंचम भजन सो वेद प्रकाशा ॥– पाँचवी भक्ति के बारे में श्रीराम शबरी से कहते हैं कि मेरे मंत्रों का जाप पूर्ण विश्वास के साथ करना यह पाँचवी प्रकार की भक्ति है।

छठवें प्रकार की नवधा भक्ति :

छठ दम शील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥– छठी भक्ति है इंद्रियों को वश में रखना, अच्छा स्वभाव और चरित्र, साथ ही साथ बहुत सारे कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के समान आचरण और व्यवहार और धर्म के मार्ग पर चलना यह छठी प्रकार की नवधा भक्ति है ।

नवधा भक्ति का सातवाँ प्रकार :

सांतव सम मोहि मय जग देखा । मोते संत अधिक कर लेखा॥– श्रीराम कहते हैं कि सारे संसार को एक समान से देखना और सभी को राममय मानना और संतों को उससे भी बड़ा मानना यह सातवीं भक्ति है ।

आठवीं नवधा भक्ति :

आठन्व जथा लाभ संतोषा । सपनेहु नहिं देखई परदोषा ॥– श्रीराम माँ शबरी से आगे कहते हैं कि आपको जो कुछ भी इस जीवन में मिले उसमें संतोष करना और सपने में भी किसी दूसरे के दोष ना देखना यह आठवीं भक्ति है।

नवधा भक्ति की नवीं भक्ति : 

नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हिय हर्ष न दीना ॥ – श्रीराम नवीं और अंतिम भक्ति बताते हुए शबरी से कहते हैं कि हमेशा सरल स्वभाव से रहना और दूसरों के साथ छल कपट के बिना बर्ताव करना तथा किसी भी अवस्था में हर्ष और दुखी ना होना और हमेशा मुझ पर यानि भगवान पर भरोसा रखना, यह नवीं भक्ति है ।

ये नौ प्रकार बताने के बाद भगवान श्रीराम शबरी से कहते हैं–

नव में एकहु जिन्ह के होई ।

नारि पुरुष सचराचर कोई ।

सोई अतिसय प्रिय भामिन मोरे ।

सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ॥

इन नौ भक्ति में से एक भी भक्ति जिसके पास होती है वह नारि, पुरुष या जड़ चेतन कोई भी हो वह मुझे परम प्रिय है। इस तरह से मां शबरी नवधा भक्ति की प्रतिक हैं।

 

लोकनायक के प्रतीक…

सीता हरण राम के लिए भी बेहद कठिन समय था, मगर श्रीराम ने ऐसे कठिन समय में भी अयोध्या, मिथिला या फिर अन्य किसी मित्र राज्य से सहायता नहीं ली। वह समाज को संदेश देना चाहते थे कि समाज की एकजुटता से बिना साधन के भी रावण जैसे अत्यधिक शक्तिशाली आताताई को भी परास्त किया जा सकता है। संगठन में ही वास्तविक शक्ति है। अत्याचारी और अन्यायी ताकतों का सामना करने के लिए राज्य की सशस्त्र सेना ही आवश्यक नहीं है। उन्होंने यह प्रस्तुत कर दिया कि कितना भी बलशाली दुष्ट शासन हो, संगठित समाजशक्ति द्वारा उसका प्रतिकार किया जा सकता है।

प्रभु राम की ईश्वरीय अवधारणा से इतर, रामकथा ऐसे जननायक की कहानी है, जिसने संपूर्ण भारत को एकसूत्र में पिरोया, समाज के विभेद को समाप्त किया, समाज में मूल्य एवं आदर्श स्थापित किए। आज भी भारत राम के नाम पर एक है। राम ऐसे लोकनायक हैं, जो सिर्फ भक्त शिरोमणि वीर हनुमान के सीने में ही नहीं बसते, वरन भारत के बच्चे-बच्चे में राम की छवि दिखती है। राम ऐसे जननायक हैं, जो आज भी प्रत्येक संकट में हमें सहारा देते हैं। उनका जीवन हमें कठिन से कठिन संकटों का सामना करने की प्रेरणा देता है। लोकनायक होने के लिए किस तरह का संकल्प चाहिए, यह राम के संपूर्ण जीवन से स्पष्ट हो जाना चाहिए। यद्धपि महाकवि भवभूति ने अपने नाटक ‘उत्तररामचरित’ में स्वयं प्रभु राम से वक्तव्य दिलाया है-

“स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि,

आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति मे व्यथा।”

राम कहते हैं कि लोक की आराधना के लिए मुझे अपने स्नेह, दया, सौख्य और यहाँ तक कि जानकी का भी परित्याग करने में भी कोई व्यथा नहीं होगी। हमको ज्ञात है कि राम ने लोक की सेवा के लिए फूलों की सेज छोड़ कर कंटकाकीर्ण मार्ग चुना। अपना सर्वस्व त्यागा। राम सुखपूर्वक अपना जीवन बिता सकते थे लेकिन उन्होंने कठिन और कष्टप्रद जीवन को चुना।

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

महामंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, बक्सर

 

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