April 11, 2025

स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस जी की अर्धांगिनी, आध्यात्मिक सहधर्मिणी ‘श्रीमाँ’ यानी शारदा देवी के नाम से कौन परिचित नहीं है?

परिचय…

शारदा देवी अथवा सारदा देवी यानी सारदामणि मुखोपाध्धाय का जन्म २२ दिसंबर, १८५३ को बंगाल प्रान्त स्थित जयरामबाटी नामक गांव के एक गरीब ब्राह्मण परिवार के रामचन्द्र मुखोपाध्याय और माता श्यामासुन्दरी देवी के यहां हुआ था। जो कठोर परिश्रमी, सत्यनिष्ठ एवं भगवद्परायण दंपति थे।

श्रीमां जब मात्र ५ वर्ष की थीं तो इनका विवाह श्री रामकृष्ण से कर दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि जब रामकृष्ण के साथ विवाह हेतु कोई योग्य कन्या नहीं मिल रही थी तब ठाकुर ने सामने से जयरामबाटी में पता लगाने के लिये कहा था और कहा था कि इस कन्या का जन्म मेरे लिये ही हुआ है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सामान्यतः विवाह संतानोत्पत्ति के लिये किया जाता है परन्तु शारदा देवी और रामकृष्ण का विवाह संबंध अलौकिक था। रामकृष्ण हमेशा शारदा देवी को माँ के स्वरूप में ही देखते थे। एक दिन रामकृष्ण की मन:स्थिति जानने हेतु शारदा मां ने उनसे पूछा, ‘बताईये तो मैं आपकी कौन हूँ?’ रामकृष्ण ने बिना विलंब उत्तर दिया कि, ‘जो माँ काली मूर्ति में विराजमान हैं वहीं माँ आपके रूप में मेरी सेवा कर रही हैं।’ उनके विवाह संबंध में विषय वासना को कोई स्थान नहीं था। भक्तों के अनुसार शारदा मां और रामकृष्ण परमहंस कई जन्मों से एक दूसरे के सहचारी रहे हैं।

विवाह उपरांत जब वे अठारह वर्ष की हुईं तो वे अपने पति रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर पहुँची। रामकृष्ण उस समय बारह वर्षों से ज्यादा समय के कठिन आध्यात्मिक साधना में व्यतीत थे और आत्मसाक्षात्कार के सर्बोच्च स्तर को प्राप्त कर चुके थे। उन्होंने बड़े प्यार से सारदा देवी का स्वागत किया और गृहस्थी के साथ साथ आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने की शिक्षा भी दी। सारदा देवी पवित्र जीवन व्यतीत करते हुए एवं रामकृष्ण की शिष्या की तरह आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने दैनिक दायित्व का निर्वाह करने लगीं। रामकृष्ण सारदा को जगन्माता के रूप में देखते थे। वर्ष १८७२ के फलाहारिणी काली पूजा की रात को उन्होंने सारदा की जगन्माता के रूप में पूजा की। दक्षिणेश्वर में आनेवाले शिष्य भक्तों को सारदा देवी अपने बच्चों के रूप में देखती थीं और उनकी बच्चों के समान देखभाल भी करतीं।

सारदा देवी का दिन प्रातः ३:०० बजे शुरू होता था। गंगास्नान के बाद वे जप और ध्यान करती थीं। रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें दिव्य मंत्र दिए थे और लोगों को दीक्षा देने और उन्हें आध्यात्मिक जीवन में मार्गदर्शन देने हेतु ज़रूरी सूचनाएँ भी दी थी। सारदा देवी को श्री रामकृष्ण की प्रथम शिष्या के रूप में देखा जाता है। अपने ध्यान में दिए समय के अलावा वे बाकी समय रामकृष्ण और भक्तों (जिनकी संख्या बढ़ती जा रही थी ) के लिए भोजन बनाने में व्यतीत करती थीं।

संघ माता…

वर्ष १८८६ में जब रामकृष्ण परमहंस जी का देहान्त हो गया तब सारदा देवी तीर्थ करने चली गयीं। वहाँ से लौट कर वे कामारपुकुर में रहने लगीं, लेकिन वहाँ पर उनकी उचित व्यवस्था नहीं हो पा रही थी अतः भक्तों के अत्यन्त आग्रह पर वे कामारपुकुर छोड़कर कलकत्ता आ गयीं। कलकत्ता आने के बाद सभी भक्तों के बीच संघ माता के रूप में प्रतिष्ठित होकर उन्होंने सभी को माँ रूप में संरक्षण एवं अभय प्रदान किया। अनेक भक्तों को दीक्षा देकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग में प्रशस्त किया। प्रारंभिक वर्षों में स्वामी योगानन्द ने उनकी सेवा का दायित्व लिया। स्वामी सारदानन्द ने उनके रहने के लिए कलकत्ता में उद्वोधन भवन का निर्माण करवाया।

श्रीमां के उपदेश और वाणी…

श्रीमां ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा परंतु उनके बोल स्वामी निखिलानंद और स्वामी तपस्यानंद ने कलमबंद किये थे। सारदा देवी का आध्यात्मिक ज्ञान बहुत उच्च कोटि का था। उनके कुछ उपदेश आपके लिए…

क. ध्यान करो इससे तुम्हारा मन शांत और स्थिर होगा और बाद में तुम ध्यान किए बिना रह नहीं पाओगे।

ख. चित्त ही सबकुछ है। मन को ही पवित्रता और अपवित्रता का आभास होता है। एक मनुष्य को पहले अपने मन को दोषी बनाना पड़ता है ताकि वह दूसरे मनुष्य के दोष देख सके।

ग. मैं तुम्हें एक बात बताती हूँ, अगर तुम्हें मन की शांति चाहिए तो दूसरों के दोष मत देखो। अपने दोष देखो। सबको अपना समझो। मेरे बच्चे कोई पराया नहीं है, पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है।

घ. इंसान को अपने गुरु के प्रति भक्ति होनी चाहिए। गुरु का चाहे जो भी स्वभाव हो शिष्य को मुक्ति अपने गुरु पर अटूट विश्वास से ही मिलती हैं।

और अंत में…

कठिन परिश्रम एवं बारबार मलेरिया के संक्रमण के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। २० जुलाई, १९२० को श्रीमाँ सारदा देवी ने नश्वर शरीर का त्याग किया। बेलूर मठ में उनके समाधि स्थल पर एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है।

रामकृष्ण परमहंस

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