April 11, 2025

लैंडॉ-रामानुजन् स्थिरांक,
रामानुजन्-सोल्डनर स्थिरांक,
रामानुजन् थीटा फलन,
रॉजर्स-रामानुजन् तत्समक,
रामानुजन् अभाज्य,
कृत्रिम थीटा फलन,
रामानुजन् योग,

आदि आदि ना जाने क्या क्या??? ये गणित के नियम, सूत्र आदि हैं और ये सब गणितज्ञ समाज की समझ की बाते हैं हम जैसों की नहीं, जो स्कूली पढ़ाई के दौरान जैसे तैसे गणित में पास हो सके हों। मगर साहित्यिक नजर से जब हमने देखा तो लगा कि इस सूत्र के सूत्रधार एवं महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर पर एक आलेख लिखना जरूरी है। हमारे देश को, इसके अगली पीढ़ी को उनके बारे में जानना बेहद जरूरी है। अतः हमने इनके बारे कईयों किताबों, अखबारों, आलेखों आदि से विषय वस्तुओं को इकठ्ठा कर आप सभी सुधि पाठकों के सामने यह आलेख रखा है।

श्रीनिवास आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में से एक हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।

श्रीनिवास बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। इन्होंने स्वयं ही गणित सीखा और अपने संपूर्ण जीवन काल में गणित के ३,८८४ प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले हैं जिनपर आज भी शोध किए जा रहे हैं। जानकार ही समझ सकते हैं क्रिस्टल-विज्ञान को, जिनमें इनके सूत्रों को प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।

परिचय…

रामानुजन का जन्म २२ दिसम्बर,१८८७ को कोयंबटूर के ईरोड नामके गांव के एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता जी का नाम श्रीनिवास अय्यंगर एवं माता जी का नाम कोमलताम्मल था। इनका बचपन उस कुंभकोणम में बीता था जो आज भी प्राचीन मंदिरों के लिए जाना जाता है। महान गणितज्ञ श्रीनिवास का बचपन सामान्य बालकों जैसा नहीं था। ये तीन वर्ष की आयु तक तो बोलना भी नहीं सीख पाए थे। इसके कारण परिवार वालों को बेहद चिंता थी कि कहीं यह गूंगा तो नहीं है। जब वे कुछ बड़े हुए तो उन्हें स्कूल भेजा गया मगर इस पढ़ाई में कभी भी इनका मन नहीं लगा। जबकि रामानुजन ने दस वर्षों की आयु में प्राइमरी परीक्षा में पूरे जिले में सबसे अधिक अंक प्राप्त किया और आगे की शिक्षा के लिए टाउन हाईस्कूल भेज दिए गए। रामानुजन को प्रश्न पूछना बेहद पसंद था। कभी कभी उनके प्रश्न इतने अटपटे हुआ करते थे की साधारणतः कोई भी उसे पागल ही कहेगा जैसे कि-संसार में पहला पुरुष कौन था? पृथ्वी और बादलों के बीच की दूरी कितनी होती है? आदि आदि

वैसे तो का व्यवहार बड़ा ही मधुर था। इनके सहपाठियों के अनुसार इनका व्यवहार इतना सौम्य था कि कोई इनसे नाराज हो ही नहीं सकता था। विद्यालय में इनकी प्रतिभा ने दूसरे विद्यार्थियों और शिक्षकों पर छाप छोड़ना आरंभ कर दिया। इन्होंने स्कूल के समय में ही कालेज के स्तर के गणित को पढ़ लिया था। एक बार इनके विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने यह भी कहा था कि विद्यालय में होने वाली परीक्षाओं के मापदंड रामानुजन के लिए लागू नहीं होते हैं। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्हें गणित और अंग्रेजी मे अच्छे अंक लाने के कारण सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली और आगे कालेज की शिक्षा के लिए प्रवेश भी मिला।

इसे पागलपन ही कहेंगे कि कोई जीव विज्ञान के प्रश्नों में गणित ढूंढ ले, भूगोल की क्लास में गणित, यहां तक तो ठीक उन्होंने तो इतिहास और साहित्य के प्रश्नों में भी गणित ढूंढ कर उन्हें हल करने लगते। उनका गणित के प्रति प्रेम इतना बढ़ गया था कि वे दूसरे विषयों पर ध्यान ही नहीं देते थे। नतीजा यह हुआ कि ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित छोड़ बाकी सभी विषयों में फेल हो गए और परिणामस्वरूप छात्रवृत्ति बंद हो गई। एक तो घर की आर्थिक स्थिति पहले ही खराब थी और ऊपर से छात्रवृत्ति भी नहीं मिल रही थी। रामानुजन के लिए यह बड़ा ही कठिन समय था। घर की स्थिति सुधारने के लिए इन्होने गणित के कुछ ट्यूशन तथा खाते-बही का काम भी किया। कुछ समय बाद वर्ष १९०७ में रामानुजन ने फिर से बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी और फिर से अनुत्तीर्ण हो गए। और इसी के साथ इनके पारंपरिक शिक्षा की यहीं इतिश्री हो गई।

विद्यालय छूट गया, ऐसे ही पांच वर्ष बीत गए मगर यह पांच वर्ष उनके जीवन का सबसे कठिन एवं हताशा भरा रहा। और उन दिनों उनके पास कोई नौकरी नहीं थी, अगर कुछ था तो सिर्फ ईश्वर पर अटूट विश्वास और गणित के प्रति अगाध श्रद्धा। नामगिरी देवी रामानुजन के परिवार की ईष्ट देवी थीं। उनके प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें कहीं रुकने नहीं दिया और वे इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी गणित के अपने शोध को चलाते रहे। इस समय रामानुजन को ट्यूशन से कुल पांच रूपये मासिक मिलते थे और इसी में गुजारा होता था।

इनके माता पिता को इनके विवाह की चिंता रहती थी अतः उन्होंने वर्ष १९०८ में इनका विवाह जानकी नामक कन्या से कर दिया। शायद इनके परिवार वालों को लगा हो की विवाह के उपरांत यह गणित में समय गावाना छोड़ अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सजग हो जाएगा और हुआ भी यही वे नौकरी की तलाश में मद्रास आए। लेकिन बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण न होने की वजह से इन्हें नौकरी नहीं मिली उलटे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बुरी तरह गिर गया। अब डॉक्टर की सलाह पर इन्हें वापस अपने घर कुंभकोणम लौटना पड़ा। बीमारी से ठीक होने के बाद वे वापस मद्रास आए और फिर से नौकरी की तलाश शुरू कर दी। ये जब भी किसी से मिलते थे तो उसे अपना एक रजिस्टर दिखाते थे। इस रजिस्टर में इनके द्वारा गणित में किए गए सारे कार्य होते थे। कहते हैं ना कि समय कभी एक समान नहीं रहता, नौकरी खोजने के दौरान किसी के कहने पर रामानुजन वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। अय्यर साब गणित के बहुत बड़े विद्वान थे। यहां पर श्री अय्यर ने रामानुजन की प्रतिभा को पहचाना और जिलाधिकारी श्री रामचंद्र राव से कह कर इनके लिए २५ रूपये मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध कर दिया। इस वृत्ति पर रामानुजन ने मद्रास में एक साल रहते हुए अपना प्रथम शोधपत्र प्रकाशित किया। शोध पत्र का शीर्षक था “बरनौली संख्याओं के कुछ गुण” और यह शोध पत्र जर्नल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ था। यहां एक साल पूरा होने पर इन्होने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी की। सौभाग्य से इस नौकरी में काम का बोझ कुछ ज्यादा नहीं था और यहां इन्हें अपने गणित के लिए पर्याप्त समय मिलता था। यहां पर रामानुजन रात भर जाग कर नए-नए गणित के सूत्र लिखा करते और फिर थोड़ी देर तक आराम कर दफ्तर के लिए निकल जाते। रामानुजन गणित के शोधों को स्लेट पर लिखते थे। और बाद में उसे एक रजिस्टर में लिख लेते थे।

प्रतिभा का सम्मान और विदेश यात्रा…

उन दिनों आज की तरह अंग्रेज़ों से बात करना आसान नहीं था। अक्सर भारतीय वैज्ञानिक अंग्रेज वैज्ञानिकों के सामने अपनी बातों को रखने में संकोच करते थे। लेकिन बिना किसी अंग्रेज गणितज्ञ की सहायता लिए शोध कार्य को आगे बढ़ाना भी मुश्किल था। लेकिन ईश्वर की कृपा कहें या रामानुजन की प्रतिभा उनके किसी शुभचिंतक ने इनके शोध कार्य को लंदन के प्रसिद्ध गणितज्ञों के पास भेजा। इसका लाभ यह हुआ कि बाहर के लोग भी रामानुजन को थोड़ा बहुत जानने लगे। यही वह समय था जब रामानुजन ने अपने संख्या सिद्धांत के कुछ सूत्र श्री अय्यर को दिखाए तो उनका ध्यान लंदन के प्रोफेसर हार्डी की तरफ गया। प्रोफेसर हार्डी उस समय के विश्व के प्रसिद्ध गणितज्ञों में से एक गिने जाते थे। लेकिन थे सख्त स्वभाव के। इधर रामानुजन ने प्रोफेसर हार्डी के शोधकार्य पर दिलचस्पी दिखाई उन्हें पढ़ा और प्रोफेसर हार्डी के अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोज निकाला। यहां से रामानुजन का प्रोफेसर हार्डी से पत्रव्यवहार आरंभ हुआ। और यहीं से रामानुजन के जीवन में एक नए जीवन की शुरूआत हुई। सख्त स्वभाव के प्रोफेसर हार्डी आजीवन रामानुजन की प्रतिभा के प्रशंसक रहे। रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी की यह मित्रता दोनो ही के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई। एक तरह से देखा जाए तो दोनो ने एक दूसरे के पूरक थे। यहां एक जानने योग्य बात यह भी है कि प्रोफेसर हार्डी ने अपने समय तक के विभिन्न व्याक्तियों को १०० अंक के पैमाने पर आंका था। उन्होंने अधिकांश गणितज्ञों को १०० में ३५ अंक दिए उनके ऊपर कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को ६० अंक दिए। लेकिन रामानुजन ही इकलौते गणितज्ञ थे जिन्हें प्रोफेसर हार्डी ने १०० में पूरे १०० अंक दिए थे। वे गणितज्ञ थे अतः गणित के नियमों से अलग नहीं हो सकते थे,अगर वे कोई कवि होते तो १०० से कहीं अधिक अंक देते क्यूंकि अंक देते वक्त उनकी नजर में वह अंक बेहद कम था।

आरंभ में रामानुजन ने जब अपने किए गए शोधकार्य को प्रोफेसर हार्डी के पास भेजा तो पहले तो उन्हें वह पूरी तरह से समझ नहीं आया। जब उन्होंने अपने मित्र गणितज्ञों से सलाह ली तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में एक दुर्लभ व्यक्तित्व है और इनके द्वारा किए गए कार्य को ठीक से समझने और उसमें आगे शोध के लिए उन्हें इंग्लैंड आना चाहिए। अतः उन्होने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए आमंत्रित किया।

लेकिन व्यक्तिगत कारणों और धन की कमी की वजह से रामानुजन ने प्रोफेसर हार्डी के कैंब्रिज के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। प्रोफेसर हार्डी को इससे बेहद निराशा हुई लेकिन उन्होनें किसी भी तरह से रामानुजन को वहां बुलाने का निश्चय किया। इसी समय रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय में शोध वृत्ति मिल गई थी जिससे उनका जीवन कुछ सरल हो गया था और उनको शोधकार्य के लिए पूरा समय भी मिलने लगा था। इसी बीच एक लंबे पत्र व्यवहार के बाद धीरे-धीरे प्रोफेसर हार्डी ने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए सहमत कर लिया। प्रोफेसर हार्डी के प्रयासों से रामानुजन को कैंब्रिज जाने के लिए आर्थिक सहायता भी मिल गई। रामानुजन ने इंग्लैण्ड जाने के पहले गणित के करीब ३,००० से भी अधिक नये सूत्रों को अपने रजिस्टर में लिखा था।

रामानुजन ने लंदन पहुंच गए, वहां प्रोफेसर हार्डी ने उनके लिए पहले से रहने खाने की व्यवस्था कर रखी थी। इंग्लैण्ड में रामानुजन को बस थोड़ी परेशानी थी और इसका कारण था उनका शर्मीला, शांत स्वभाव और शुद्ध सात्विक जीवनचर्या। अपने पूरे इंग्लैण्ड प्रवास में वे अधिकांशतः अपना भोजन स्वयं बनाते थे। इंग्लैण्ड की इस यात्रा से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के साथ मिल कर उच्चकोटि के शोधपत्र प्रकाशित किए। अपने एक विशेष शोध के कारण इन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए. की उपाधि भी मिली। लेकिन वहां की जलवायु और रहन-सहन की शैली उनके अधिक अनुकूल नहीं थी और उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। डॉक्टरों ने इसे क्षय रोग बताया। उस समय क्षय रोग की कोई दवा नहीं होती थी और रोगी को सेनेटोरियम मे रहना पड़ता था। रामानुजन को भी कुछ दिनों तक वहां रहना पड़ा। वहां इस समय भी यह गणित के सूत्रों में नई नई कल्पनाएं किया करते थे।

रॉयल सोसाइटी में प्रवेश…

समय के साथ रामानुजन की प्रसिद्धी इतनी बढ़ गई कि उन्हें रॉयल सोसाइटी का फेलो नामित कर दिया गया। यह उस समय की बात है जिस समय भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था और उसका एक पुत्र रॉयल सोसाइटी की सदस्यता प्राप्त कर रहा था, जो एक बहुत बड़ी बात थी। साथ ही दूसरी बात यह कि आज तक के रॉयल सोसाइटी के पूरे इतिहास में इनसे कम आयु का कोई सदस्य नहीं हुआ है। रॉयल सोसाइटी की सदस्यता के बाद वे ट्रिनीटी कॉलेज की फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय भी बने। जहां एक तरफ सब कुछ अच्छा हो रहा था तो दूसरी ओर रामानुजन का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और अंत में डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें वापस भारत लौटना पड़ा। भारत आने पर इन्हें मद्रास विश्वविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई।

और अंत में…

भारत तो लौट आए मगर स्वास्थ्य नहीं लौटा वह तो गंभीर और गंभीर होता गया। मगर उन्होंने इस बीमारी की दशा में भी मॉक थीटा फंक्शन पर एक उच्च स्तरीय शोधपत्र लिखा। उनके द्वारा इस प्रतिपादित फलन का उपयोग गणित ही नहीं वरन चिकित्साविज्ञान में कैंसर को समझने के लिए भी किया जाता है। मगर स्वयं को समझने के लिए वे कोई सूत्र नहीं बना पाए अतः २६ अप्रैल, १९२० के प्रातः काल में वे अचेत हो गए और दोपहर होते होते मात्र ३३ वर्ष की अल्प आयु में ही जीवन सूत्र हांथ से निकल गया। इनका असमय निधन गणित जगत के लिए अपूरणीय क्षति था। पूरे देश विदेश में जिसने भी रामानुजन की मृत्यु का समाचार सुना वहीं स्तब्ध हो गया।

इसके पीछे भी एक कारण स्पष्ट है कि इनके द्वारा किए गए अधिकांश कार्य अभी भी वैज्ञानिकों के लिए अबूझ पहेली बने हुए हैं। एक बहुत ही सामान्य परिवार में जन्म ले कर पूरे विश्व को आश्चर्यचकित करने की अपनी इस यात्रा में इन्होने भारत को अपूर्व गौरव प्रदान किया। उनका वह पुराना रजिस्टर जिस पर वे अपने प्रमेय और सूत्रों को लिखा करते थे वर्ष १९७६ में अचानक ट्रिनीटी कॉलेज के पुस्तकालय में मिला। करीब एक सौ पन्नों का यह रजिस्टर आज भी वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली बना हुआ है। इस रजिस्टर को बाद में रामानुजन की नोट बुक के नाम से जाना गया। मुंबई के टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान द्वारा इसका प्रकाशन भी किया गया है। रामानुजन के शोधों की तरह उनके गणित में काम करने की शैली भी विचित्र थी। वे कभी कभी आधी रात को सोते से जाग कर स्लेट पर गणित से सूत्र लिखने लगते थे और फिर सो जाते थे। इस तरह ऐसा लगता था कि वे सपने में भी गणित के प्रश्न हल कर रहे हों। रामानुजन के नाम के साथ ही उनकी कुलदेवी का भी नाम लिया जाता है। इन्होने शून्य और अनन्त को हमेशा ध्यान में रखा और इसके अंतर्सम्बन्धों को समझाने के लिए गणित के सूत्रों का सहारा लिया। रामानुजन के कार्य करने की एक विशेषता थी। वे गणित का कोई नया सूत्र या प्रमेंय पहले लिख देते थे लेकिन उसकी उत्पत्ति पर उतना ध्यान नहीं देते थे। इसके बारे में पूछे जाने पर वे कहते थे कि यह सूत्र उन्हें नामगिरी देवी की कृपा से प्राप्त हुए हैं। रामानुजन का आध्यात्म के प्रति विश्वास इतना गहरा था कि वे अपने गणित के क्षेत्र में किये गए किसी भी कार्य को आध्यात्म का ही एक अंग मानते थे। वे धर्म और आध्यात्म में केवल विश्वास ही नहीं रखते थे बल्कि उसे तार्किक रूप से प्रस्तुत भी करते थे।

वे सदा कहा करते थे कि “मेरे लिए गणित के उस सूत्र का कोई मतलब नहीं है जिससे मुझे आध्यात्मिक विचार न मिलते हों।”

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