फाल्गुन का महीना हो और रंगों की बात हो तो इनमें शिव की बात ना हो यह कैसे संभव है। क्यूंकि शिव ने भी खेला है होली और क्या खूब खेला है। शिव अल्हड़ हैं तो भस्म से भी खेल लेते हैं होली, और भस्म भी कैसा? श्मशान का, जले हुए शव का। वे शिव हैं ना तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता की होली कैसे खेलना है, कहां खेलना है, तो वे श्मशान में भी होली खेल लेते हैं। क्या आप श्मशान में होली खेलने का अर्थ समझते हैं?
मनुष्य सबसे अधिक मृत्यु से डरता है। उसके हर डर का अंतिम कारण अपनी या अपनों की मृत्यु ही तो है। तो जान लीजिए श्मशान में होली खेलने का अर्थ है उस भय से मुक्ति पा लेना। जो सही मायनों में मुक्ति का मार्ग है, शिव के सानिध्य का मार्ग है या यूं कहें कि शव से शिव बनने का मार्ग है, तो फिर डर कैसा और किसका? शिव किसी शरीर मात्र का नाम तो नहीं है, शिव वैराग्य की उस चरम अवस्था का नाम है जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा, भय या अवसाद से मुक्त हो जाता है। शिव होने का अर्थ है वैराग्य की उस ऊँचाई पर पहुँच जाना जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे, बल्कि उसे अपनी आजादी का दिन मान कर त्यौहार की तरह खुशी से मनाया जाय। जब शिव शरीर में भस्म लपेट कर नाच उठते हैं, तो समस्त भौतिक गुणों-अवगुणों से मुक्त दिखते हैं। यही शिवत्व है, और इसे ही तो हर प्राणी को पाना है।
हमें भी किसी ना किसी बहाने या किसी ना किसी के महाप्रयाण के अवसर पर कितने ही अलग अलग श्मशानों में जाना हुआ है। चाहे वो महर्षि विश्वामित्र की नगरी बक्सर का श्मशान हो अथवा काली मां की नगरी कलकत्ता का श्मशान हो या फिर कोई अन्य। मगर काशी की मणिकर्णिका घाट की बात ही निराली है। और हो भी क्यों ना। आखिर भगवान शिव ने देवी सती के शव का दाहक्रिया यहीं तो किया था तबसे या श्मशान महाश्मशान है, जहाँ चिता की अग्नि कभी नहीं बुझती। ना! कभी भी नहीं, आप स्वयं आ कर देख लें। हमने देखा है स्वयं अपनी आंखों से, एक बार। एक चिता के बुझने से पूर्व ही दूसरी चिता में आग लगा दी जाती है।
मृत्यु के उपरांत शायद जीवन ज्योति वहां घूमती रहती है और इंतजार करती है, श्मशान की धू धू करती अग्नि में समाहित हो जाने का। कहते हैं कि शिव संहार के देवता हैं, तो इसीलिए लगता है कि मणिकर्णिका की ज्योति शिव की ज्योति है, जिसमें अंततः सभी को समाहित हो ही जाना है। इसी मणिकर्णिका के महाश्मशान में होली के पर्व पर शिव होली खेलते हैं।
एक कथा के अनुसार जब शिव अपने कंधे पर देवी सती का शव लिए मोह में नाच रहे थे, तब वे मोह के चरम अवस्था में थे। सोचने वाली बात यह है कि वे शिव थे, फिर भी शव के मोह में बंध गए थे। इसीलिए तो कहा गया है, मोह विष्णु की जगतमाया का ही रूप है और जो बड़ा ही प्रबल है, किसी को भी नहीं छोड़ता। इसी कारण तो मनुष्य अपनों की मृत्यु के पश्चात शव के मोह में तड़पता है। मगर शिव तो शिव हैं, यह मोह, महामाया उन्हें कब तक रोके रख सकती थी। वे रुके, और रुके ही नहीं वरन् अपनी पत्नी की चिता की भष्म से होली भी खेला, खूब खेला और इतना खेला की खेलते खेलते वैरागी हो गए। मोह के चरम पर ही वैराग्य उभरता है। मगर मनुष्य इस मोह से नहीं निकल पाता, वह एक मोह के फंदे से छूटते ही दूसरे मोह के फंदे को अपने शरीर, आत्मा में लपेट लेता है। और यही मोह मनुष्य को शिवत्व प्राप्त करने में बाधक है।
शास्त्रों, पुराणों आदि ग्रंथों के अनुसार कैलाश के बाद काशी शिव को बेहद प्यारा है और उनके त्रिशूल पर स्थित है। शायद यही कारण है कि काशी अलग प्रकार की वैरागी ठसक में हर वक्त जीता है। काशी के मणिकर्णिकाघाट पर, युगों युगों से मुक्ति की आशा ले कर देश विदेश से आने वाले लोग वस्तुतः शिव को ही खोजने आते हैं और स्वयं को उनकी अखण्ड ज्योति में समाहित कर देना चाहते हैं। मगर एक सच से वो सदा अंजान रहता है कि यह संसार भी तो एक महाश्मशान ही है और हर कोई शिव की भांति होली ही तो खेल रहा है। और तबतक खेलता है जबतक वह भी भस्म हो कर शिव के अंग से लिपट नहीं जाता।
होली आ रही है, शायद आ भी गई हो। फागुन गाता है, उसके साथ यह संसार गाता है, काशी गाता है, काशी का कण कण गाता है। तो मणिकर्णिका घाट क्यों पीछे रहे वह भी यह फ़ाग गाता है, “खेले मशाने में होली दिगम्बर खेले मशाने में होली”।
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