आज हम बात करने वाले हैं, भारत के सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी सरदार अजीत सिंह के बारे में। इतना ही नहीं ये शहीद·ए·आजम सरदार भगत सिंह जी के चाचा थे, घरवालों से जिनकी देश सेवा की बातों को वे बचपन से ही सुनकर बड़े हुए थे। आपको यह जानकर बेहद आश्चर्य होगा कि सरदार अजीत सिंह ने ४० भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया था। उन्होंने कुछ पत्रिकाएं निकाली तथा भारतीय स्वाधीनता के अग्रिम कारणों पर अनेक पुस्तकें भी लिखीं। अब विस्तार पूर्वक…
परिचय…
सरदार अजीत सिंह जी का जन्म २३ फरवरी, १८८१ को पंजाब के जालंधर ज़िला अंतर्गत एक गांव में हुआ था। उनकी शिक्षा जालंधर और लाहौर से हुई थी। सरदार अजीत सिंह का विवाह हरनाम कौर से हुआ था, परंतु उन्होंने पति के इंतजार में ४० वर्ष तक एकाकी और तपस्वी जीवन बिताया। वे बड़े ही जीवट वाली महिला थीं, जिन्हें देखकर बालक भगत सदा ही अंग्रेजों को भगाने के लिए उत्साहित रहते थे।
जेल यात्रा एवं लेखन कार्य…
सरदार अजीत सिंह को अंग्रेजी सरकार द्वारा राजनीतिक ‘विद्रोही’ घोषित कर दिया गया था। उनका अधिकांश जीवन जेल में ही बीता। वर्ष १९०६ में लाला लाजपत राय जी के साथ ही साथ उन्हें भी देश निकाले का दण्ड दिया गया था। सरदार अजीत सिंह ने वर्ष १९०७ के भू-संबंधी आन्दोलन में हिस्सा लिया तथा इन्हें गिरफ्तार कर बर्मा की माण्डले जेल में भेज दिया गया। इन्होंने कुछ पत्रिकाएं निकाली तथा भारतीय स्वाधीनता के अग्रिम कारणों पर अनेक पुस्तकें लिखी। उन्होंने ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को हिटलर और मुसोलिनी से मिलाया था। मुसोलिनी तो उनके व्यक्तित्व के मुरीद थे। आजादी की चाह में पुरी दुनिया के चक्कर लगाते हुए ही सरदार अजीत सिंह ने ४० भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया था।
क्रांतिकारी..
सरदार अजीत सिंह के बारे में कभी श्री बाल गंगाधर तिलक ने कहा था, ‘ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं।’ जब तिलक ने ये बात कही थी, उस समय सरदार अजीत सिंह की उम्र मात्र २५ वर्ष की थी। वर्ष १९०९ में सरदार अपना घर बार छोड़ कर देश सेवा के लिए विदेश यात्रा पर निकल चुके थे, उस समय उनकी उम्र २७ वर्ष की थी। ईरान के रास्ते तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया और आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। अजीत सिंह ने भारत और विदेशों में होने वाली क्रांतिकारी गतिविधियों में पूर्ण रूप से सहयोग दिया। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना की और खुलकर विरोध भी किया। रोम रेडियो को तो अजीत सिंह ने नया नाम दे दिया था, ‘आजाद हिन्द रेडियो’ तथा इसके मध्यम से क्रांति का प्रचार प्रसार किया। अजीत सिंह परसिया, रोम तथा दक्षिणी अफ्रीका में रहे तथा वर्ष १९४७ को भारत वापिस लौट आए। भारत लौटने पर पत्नी ने पहचान के लिए कई सवाल पूछे, जिनका सही जवाब मिलने के बाद भी उनकी पत्नी को विश्वास नहीं हुआ। अजीत सिंह इतनी भाषाओं के ज्ञानी हो चुके थे कि उन्हें पहचानना बहुत ही मुश्किल था।
और अंत में…
वैसे तो जितनी खुशी भारत की आजादी का है, उससे कहीं ज्यादा दुःख बंटवारे का है। इस बात का पुख्ता सबूत सरदार अजीत सिंह जी हैं, क्योंकि जिस दिन भारत आजाद हुआ उस दिन सरदार अजीत सिंह की आत्मा भी शरीर से मुक्त हो गई। भारत के विभाजन से वे इतने व्यथित थे कि १५ अगस्त, १९४७ के सुबह ४ बजे उन्होंने अपने पूरे परिवार को जगाया और जय हिन्द कह कर दुनिया से विदा ले ली।