“घर, द्वार, मंदिर और सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था! और मैंने एक अनंत तीर विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर दूर तक जहाँ भी देखा बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक, मेरी तरफ आ रही थी।”
इतना सुनना काफी था लोगों के लिए, अफवाह फ़ैल गयी…
आध्यात्मिक साधना के कारण गदाधर का मानसिक संतुलन खराब हो गया है। पता लगते ही गदाधर की माता और बड़े भाई रामेश्वर ने गदाधर का विवाह करवाने का निर्णय लिया। उनका यह मानना था कि शादी होने पर गदाधर का मानसिक संतुलन ठीक हो जायेगा, शादी के बाद आये ज़िम्मेदारियों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जाएगा।
बात १८५९ की है, ५ वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय से २३ वर्ष के गंगाधर का विवाह संपन्न कराया गया। मगर विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी यानी अपने गाँव में रहती थी। जब १८ वर्ष की हुईं तो, वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी।
जी हाँ ! रामकृष्ण के पास, कालांतर में गंगाधर को रामकृष्ण कहा जाने लगा। अतः हम भी आगे रामकृष्ण ही कहेंगे।
रामकृष्ण का जन्म बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम के पिता खुदीराम एवं माता चन्द्रादेवी के यहाँ १८ फरवरी, १८३६ को हुआ था। रामकृष्ण को बचपन में गदाधर कहा जाता था। इसके पीछे भी एक रहस्य है…
उनके भक्तों के अनुसार रामकृष्ण के माता पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का कई बार अनुभव हुआ था। गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें उन्होंने देखा की भगवान गदाधर (विष्णु के अवतार) ने उन्हें कहा की वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ था, उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में रोशनी प्रवेश करते हुए देखा था। अतः उन्हें गदाधर कहा जाने लगा।
कालान्तर में उनके बड़े भाई चल बसे। इस घटना से वे व्यथित हो गए। संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यानमग्न रहने लगे। ईश्वर दर्शन के लिए वे इतने व्याकुल रहने लगे की लोग उन्हे पागल समझने लगे।
यही वह समय था जब भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें तंत्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए उन्हें श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त हुआ। तत्पश्चात उन्होंने तोतापुरी महाराज जी से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान प्राप्त किया और जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के पश्चात ही उनका नया नाम हुआ…
श्रीरामकृष्ण परमहंस
इसके बाद उन्होंने ईस्लाम और क्रिश्चियन धर्म की भी कठोर साधना की। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना कर भक्त का जीवन अपनाया। स्वामी रामकृष्ण जी मानवता के पुजारी थे। साधना के बाद उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वे ईश्वर तक पहुँचने के अलग अलग माध्यम मात्र हैं।
वक्त जैसे जैसे गुजरता रहा, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से चारों दिशाओं में फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का सुन्दर मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय स्थल हो गया। तत्कालीन विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करने आते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग भी था जिनमे रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय), दुर्गाचरण नाग जैसे नाम थे।
अरे! एक नाम तो लेना मैं भूल ही गया, जहाँ तक मेरा मानना है उनके बिना शायद श्रीरामकृष्ण जी की जीवनी पूर्ण हो ही नहीं सकती। जी हाँ ! सही समझे स्वामी विवेकानन्द जी, उनके परम शिष्य।
श्रीरामकृष्ण जी के अनुसार, “कामिनी-कंचन ईश्वर प्राप्ति के सबसे बड़े बाधक हैं।” वे तपस्या, सत्संग और स्वाध्याय आदि आध्यात्मिक साधनों पर विशेष बल देते थे। वे कहा करते थे, “यदि आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो, तो पहले अहम्भाव को दूर करो। क्योंकि जब तक अहंकार दूर न होगा, अज्ञान का परदा कदापि न हटेगा। तपस्या, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि साधनों से अहङ्कार दूर कर आत्म-ज्ञान प्राप्त करो, ब्रह्म को पहचानो।”
नमो नमः !