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काकोरी ट्रैन एक्शन (Kakori train action) अर्थात; काकोरी कांड: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भयंकर युद्ध शुरू करने हेतु हथियारों की जरूरत थी और हथियार खरीदने के लिए पैसे की। अतः पैसे की कमी को पूरा करने के लिए ब्रिटिश सरकार का खजाना लूट लेने की एक ऐतिहासिक घटना थी जो ९ अगस्त १९२५ को घटी। इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल काम में लाये गये थे। इन पिस्तौलों की विशेषता यह थी कि इनमें बट के पीछे लकड़ी का बना एक और कुन्दा लगाकर रायफल की तरह उपयोग किया जा सकता था। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के केवल दस सदस्यों ने इस पूरी घटना को परिणाम दिया था।

 

काकोरी काण्ड से पूर्व का परिदृश्य…

काकोरी ट्रैन एक्शन अर्थात काकोरी कांड ( Kakori train action) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर युद्ध शुरू करने के लिए हथियारों की आवश्यकता थी और हथियार खरीदने के लिए पैसे की जरूरत थी, इसलिए क्रान्तिकारियों ने ब्रिटिश सरकार का ही खजाना लूटने की योजना बनाई। इसी योजना का क्रियान्वयन की ऐतिहासिक घटना थी, ९ अगस्त १९२५ को घटी काकोरी कांड। इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउजर पिस्तौल काम में लाए गए थे। इन पिस्तौलों की विशेषता यह थी कि इनमें बट के पीछे लकड़ी का बना एक और कुंदा लगाकर रायफल की तरह उपयोग किया जा सकता था। इस योजना को मूर्त रूप हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के केवल दस सदस्यों ने दिया था। वैसे संगठन में चालीस सदस्य थे।

 

काकोरी काण्ड से पूर्व का परिदृश्य…

हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ की ओर से प्रकाशित विज्ञापन और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुंचे दल के दोनों प्रमुख नेताओं में से एक शचींद्रनाथ सान्याल बांकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिए गए जब वे यह विज्ञापन अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार दूसरे प्रमुख नेता योगेशचंद्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एचआरए के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिए गए और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया।

दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने के बाद संगठन की सारी जिम्मेदारी श्री राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ जी के कंधे पर आ गई। इतना ही नहीं उनके कंधों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल जी का स्वभाव था कि वे जल्दी किसी काम की जिम्मेदारी लेते नहीं थे और अगर जिम्मेदारी ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो वह आवश्यकता और भी अधिक बढ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने ७ मार्च १९२५ को बिचपुरी तथा २४ मई १९२५ को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियां डालीं परन्तु उनमें उन्हें कुछ विशेष धन की प्राप्ति नहीं हुई, उल्टे इन दोनों डकैतियों में एक-एक क्रांतिकारी मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अत्यधिक कष्ट हुआ। आखिरकार उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल भी नहीं डालेंगे।

 

ऐतिहासिक रेल डकैती…

८ अगस्त को राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के घर आपातकालीन मीटिंग में एक निर्णायक योजना बनी और अगले ही दिन ९ अगस्त १९२५ को शाहजहांपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल १० लोग, जिनमें शाहजहांपुर से बिस्मिल के अतिरिक्त अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल, बंगाल से राजेन्द्र लाहिडी, शचींद्रनाथ बख्शी तथा केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), बनारस से चन्द्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवं औरैया से अकेले मुकुन्दी लाल शामिल थे; ८ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए।

इन क्रान्तिकारियों के पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिनके बट में कुंदा लगा लेने से वह छोटी स्वचालित रायफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों ये माउजर आज की एके-४७ रायफल की तरह चर्चित हुआ करते थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और रक्षक के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने की प्रयास किया गया किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए।

मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश व जल्दबाजी में माउजर का ट्रिगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के यात्री को लग गई। वह मौके पर ही ढेर हो गया। जल्दीबाजी में चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बांधकर वहां से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन समाचार पत्रों के माध्यम से यह समाचार पूरे संसार में फैल गया। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया।

 

अवरुद्धता और प्रकरण…

खुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने पूरी छानबीन और जांच पड़ताल करके ब्रिटिश सरकार को जैसे ही इस बात की पुष्टि की कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षडयंत्र है, पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षडयंत्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को अवरुद्ध करवाने के लिए पुरस्कार की घोषणा के साथ विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिए जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहांपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनवारी लाल की है। बिस्मिल के साझीदार बनवारी लाल से मिलकर पुलिस ने इस डकैती का सारा भेद प्राप्त कर लिया। पुलिस को उससे यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहांपुर से राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गए थे और वे कब-कब वापस आए? जब खुफिया तौर से इस बात की पूरी पुष्टि हो गई कि राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, जो हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ का अध्यक्ष है और उसी के निर्णय पर यह कांड हुआ है, साथ ही यह भी पता चल गया कि इसमें कौन कौन शामिल है छापेमारी शुरू हो गई।

इस ऐतिहासिक मामले में ४० व्यक्तियों को भारत भर से अवरुद्ध किया गया। अवरुद्धता के स्थान के साथ उनके नाम इस प्रकार हैं:

आगरा : चंद्रधर जौहरी, चंद्रभाल जौहरी

इलाहाबाद : शीतला सहाय, ज्योति शंकर दीक्षित, भूपेंद्र नाथ सान्याल

उरई : वीरभद्र तिवारी

बनारस : मन्मथनाथ गुप्त (काकोरी कांड प्रमुख), दामोदर स्वरूप सेठ, रामनाथ पाण्डे, देवदत्त भट्टाचार्य, इन्द्र विक्रम सिंह, मुकुन्दी लाल

बंगाल : शचींद्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, शरतचन्द्र गुहा, कालिदास बोस

एटा : बाबूराम वर्मा

हरदोई : भैरों सिंह

जबलपुर : प्रणवेश कुमार चटर्जी

कानपुर : रामदुलारे त्रिवेदी, गोपी मोहन, राजकुमार सिन्हा, सुरेशचंद्र भट्टाचार्य

लाहौर : मोहनलाल गौतम

लखीमपुर : हरनाम सुंदरलाल

लखनऊ : गोविंदचरण कार, शचीन्द्रनाथ विश्वास

मेरठ : विष्णुशरण दुब्लिश

पूना : रामकृष्ण खत्री

रायबरेली : बनवारी लाल

शाहजहांपुर : रामप्रसाद बिस्मिल, बनारसी लाल, लाला हरगोबिंद, प्रेमकृष्ण खन्ना, इंद्रभूषण मित्रा, ठाकुर रोशन सिंह, रामदत्त शुक्ला, मदनलाल, रामरतन शुक्ला

फरार क्रान्तिकारियों में से दो को पुलिस ने बाद में गिरफ़्तार किया था। उनके नाम व स्थान निम्न हैं:

दिल्ली : अशफाक उल्ला खाँ

भागलपुर : शचींद्रनाथ बख्शी

उपरोक्त ४० व्यक्तियों में से तीन लोग शचींद्रनाथ सान्याल बांकुड़ा में, योगेशचंद्र चटर्जी हावड़ा में तथा राजेंद्र लाहिड़ी दक्षिणेश्वर बम विस्फोट मामले में कलकत्ता से पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे और दो लोग अशफाक उल्ला खाँ और शचींद्रनाथ बख्शी को तब अवरुद्ध किया गया जब मुख्य काकोरी षडयंत्र केस का फैसला हो चुका था। इन दोनों पर अलग से पूरक प्रकरण दर्ज किया गया।

 

दस में से पांच फरार…

काकोरी-काण्ड में केवल १० लोग ही वास्तविक रूप से शामिल हुए थे, पुलिस की ओर से उन सभी को भी इस प्रकरण में नामजद किया गया। इन १० लोगों में से पांच – चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचींद्रनाथ बख्शी को छोड़कर, जो उस समय तक पुलिस के हाथ नहीं आए, शेष सभी व्यक्तियों पर सरकार बनाम राम प्रसाद बिस्मिल व अन्य के नाम से ऐतिहासिक प्रकरण चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फांसी तक की सजा हुई। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एचआरए का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १४ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। विशेष न्यायधीश ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी और प्रकरण को सेशन न्यायालय में भेजने से पहले ही इस बात के पक्के सबूत व गवाह एकत्र कर लिए थे ताकि बाद में यदि अभियुक्तों की तरफ से कोई याचिका भी की जाए तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाए।

 

मेरा रँग दे बसन्ती चोला..

लखनऊ जेल में काकोरी षड्यन्त्र के सभी अभियुक्त कैद थे। केस चल रहा था इसी दौरान बसन्त पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन हम सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे। उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ से कहा- “पण्डित जी! कल के लिये कोई फड़कती हुई कविता लिखिए, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।” अगले दिन कविता तैयार थी;

मेरा रँग दे बसन्ती चोला….
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला….

इसी रंग में रँग के शिवा ने
माँ का बन्धन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में
था प्रताप ने घोला;
नव बसन्त में भारत के
हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला
यह बासन्ती चोला।

मेरा रँग दे बसन्ती चोला….
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला….

कालांतर में अमर शहीद भगत सिंह जिन दिनों लाहौर जेल में बन्द थे तो उन्होंने इस गीत में ये पंक्तियाँ और जोड़ी थीं:

इसी रंग में बिस्मिल जी ने
“वन्दे-मातरम्” बोला,
यही रंग अशफाक को भाया
उनका दिल भी डोला;
इसी रंग को हम मस्तों ने,
हम मस्तों ने;
दूर फिरंगी को करने को,
को करने को;
लहू में अपने घोला।

मेरा रँग दे बसन्ती चोला….
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला….

माय! रँग दे बसन्ती चोला….
हो माय! रँग दे बसन्ती चोला….
मेरा रँग दे बसन्ती चोला….

 

पूरक प्रकरण और अपील…

पाँच फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ को दिल्ली और शचीन्द्रनाथ बख्शी को भागलपुर से पुलिस ने उस समय अवरुद्ध किया जब काकोरी कांड के मुख्य प्रकरण का फैसला सुनाया जा चुका था। विशेष न्यायाधीश जेआरडब्लू बैनेट की न्यायालय में काकोरी कांड का पूरक प्रकरण दर्ज हुआ और १३ जुलाई १९२७ को इन दोनों पर भी सरकार के विरुद्ध साजिश रचने का संगीन आरोप लगाते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी।

सेशन जज के फैसले के खिलाफ १८ जुलाई १९२७ को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण ‘मुल्ला’ को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से केसी दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया।

बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा – “Mr. Ramprasad ! from which university you have taken the degree of law ?” (श्रीमान राम प्रसाद ! आपने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली ?) इस पर बिस्मिल जी ने हँस कर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था – “Excuse me sir ! a king maker doesn’t require any degree” (क्षमा करें महोदय ! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।)

 

सरकारी वकील मुल्ला की किरकिरी…

काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए “मुल्जिमान” की जगह “मुलाजिम” शब्द बोल दिया। फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी, “मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।” उनके कहने का मतलब स्पष्ठ था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरें अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। ऐसे हाजिरजबाब थे बिस्मिल!

बिस्मिल जी द्वारा की गई सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गई। मुल्ला जी ने सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने में आनाकानी की। अतएव अदालत ने बिस्मिल की १८ जुलाई १९२७ को दी गई स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद उन्होंने ७६ पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिसे देखकर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवाई है। अन्ततोगत्वा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गई जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। यह भी अदालत और सरकारी वकील जगत नारायण मुल्ला की मिली भगत से किया गया। क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लड़ने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती।

 

निर्णय…

२२ अगस्त १९२७ को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आईपीसी की दफा १२१(ए) व १२०(बी) के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा ३०२ व ३९६ के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में ५+५ कुल १० वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का आदेश हुआ। शचीन्द्रनाथ सान्याल, जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किए पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे जिसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। उनके छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना अपराध स्वीकार करते हुए न्यायालय की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने माँँग नहीं की और दोनों को ५-५ वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ न्यायालय में याचिका करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजायें १०-१० वर्ष से बढ़ाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी ७ वर्ष से बढ़ाकर १० वर्ष कर दी गयी। रामकृष्ण खत्री को भी १० वर्ष के कठोर कारावास की सजा बरकरार रही। खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर याचिका देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को ५ वर्ष से घटाकर ४ वर्ष कर दिया गया। इस काण्ड में सबसे कम सजा (३ वर्ष) रामनाथ पाण्डेय को हुई। मन्मथनाथ गुप्त, जिनकी गोली से यात्री मारा गया, की सजा बढ़ाकर १४ वर्ष कर दी गयी। एक अन्य अभियुक्त राम दुलारे त्रिवेदी को इस प्रकरण में पाँच वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गयी।

 

क्षमादान के प्रयास…

अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर दावानल की तरह समूचे हिन्दुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के चारो मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर हुआ करते थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया कि इन चारो की सजाये-मौत माफ कर दी जाये परन्तु उसने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। सेण्ट्रल कौन्सिल के ७८ सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला जाकर हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल दिया जिस पर प्रमुख रूप से पं मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एन सी केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने अपने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।

इसके बाद मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर वायसराय से दोबारा मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दे दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः उच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया।

अन्ततः बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी काउंसिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस एल पोलक के पास भिजवाए किन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर यही दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में बरतानिया सरकार को हिन्दुस्तान में हुकूमत करना असम्भव हो जायेगा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि प्रिवी काउंसिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ बिस्मिल अज़ीमाबादी की यह गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चढ़ाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी। जितनी रचना यहाँ दी जा रही है वे लोग उतनी ही गाते थे।

सरफ़रोशी की तमन्ना
अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना
बाज़ु-ए-क़ातिल में है !

 

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे
ऐ आसमाँ !
हम अभी से क्या बताएँ
क्या हमारे दिल में है !

 

खीँच कर लाई है हमको
क़त्ल होने की उम्म्मीद,
आशिक़ों का आज जमघट
कूच-ए-क़ातिल में है !

 

ऐ शहीदे-मुल्क-ओ-मिल्लत
हम तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा
ग़ैर की महफ़िल में है !

 

अब न अगले वल्वले हैं
और न अरमानों की भीड़,
सिर्फ़ मिट जाने की हसरत
अब दिल-ए-‘बिस्मिल’ में है !

 

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