November 22, 2024

बशीर उत्तरी त्रावणकोर के तलयोलपर्ंब में पैदा हुए थे। वह अपने माता-पिता के बडे बेटे थे। उनके पिता जी का इमारती लकड़ियों का व्यवसाय था, मगर उससे उनके पूरे परिवार का गुज़ारा नहीं हो पाता था। एक साधारण मलयालमी माध्यम के स्कूल में अपनी शिक्षा की शुरुआत हुई और उसके बाद कुछ समय अंग्रेजी माध्यम के स्कूल मे पढाई हुई। यह वही समय था जब वो इसी स्कूल में वह महात्मा गांधी के प्रभाव मे आ गये थे और स्वदेशी आदर्शों से प्रेरित होकर उन्होंनें खद्दर पहनना शुरू कर दिया। जब गाँधी वैकम सत्याग्रह् में भाग लेने के लिए आये तों बशीर उन्हें देखने गये। जिस कार मे गाँधी यात्रा कर रहे थे, बशीर उस पर चढ़े गए और उनके हाथ को छुआ। वह हर रोज़ गांधी के सत्याग्रह आश्रम जाते थे जिस वजह से विद्यालय जाने में देर हो जाती और सज़ा भी मिलती थी। रोज की सजा से परेशान उन्होने विद्यालय छोड़ कर, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का निर्णय ले लिया।

त्रावणकोर मे कोई स्वतंत्रता आंदोलन ना होने के कारण, वह मालाबार सत्याग्रह में भाग लेने के लिए गये। सत्याग्रह मे भाग लेने से पहले ही उनका संघ गिरफ्तार हो गया। बशीर को तीन महीने की कैद की सजा सुनाई गयी और कन्नूर के जेल में भेजा गया। वह कन्नूर जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु, जैसे क्रांतिकारियों की वीरता की कहानियों को सुनकर प्रेरित हो गये। गांधी-इर्विन समझौता मार्च १९३१ के बाद उनके साथ साथ लगभग ६०० राजनैतिक कैदियों को रिहा किया गया। जेल से रिहा होने के बाद उन्होने एक अंग्रेज-विरोधी आंदोलन का आयोजन किया और एक क्रांतिकारी जर्नल उज्जीवनम (‘विद्रोह’) संपादित करना शुरू कर दिया जिसकी वजह से उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर दिया गया।

यह थे दक्षिण भारत के स्वतंत्रता संग्राम ध्वजवाहक…

श्री वैकम मुहम्मद बशीर
जन्म – २१ जनवरी, १९१० वे मलयालम के वरिष्ठ साहित्यकार थे उन्होने अनर्थ निमिष, जन्मदिन, मूर्खों का स्वर्ग, मेरे दादा का हाथी आदि उनकी २५ से अधिक पुस्तकें लिखी जो प्रकाशित हो चुकी हैं। बशीर अप्रचलित भाषा श्रेणी के प्रमुख साहित्यकार हैं। वे साहित्यिक भाषा और आम आदमी के भाषा में अंतर नही रखते थे। अगर कोई व्याकरण त्रुटि भी आये तो वो ध्यान नहीं देते थे। पहले-पहले उनकी रचनाओं में इस प्रकार की भाषा को प्रकाशकों ने भी स्वीकार नही किया, इसलिए वे लोग उनकी रचनाओं में बदलाव और संशोधन चाहते थे। जब बशीर ने इन रचनाओं को अपनी असली शैली से दूसरी मलयालम शैली में परिवर्तित करते हुए देखा तो, उन्हें बहुत गुस्सा आया क्योंकि उसमे स्वाभिकता और शीतलता बिलकुल नहीं थी। उन्होनें प्रकाशकों को अपनी असली रचनाओं को प्रकाशित करने के लिये जबरदस्ती बोला। बशीर के एक भाई, जो एक अध्यापक थे, उनका नाम अबदूल खादर था। एक बार वो बशीर की एक कहानी पढ रहे थे, तब उन्होंने बशीर से पूछा “इस मे कहा आक्यास और आक्याथास (यह एक मल्यालम पद है) है?”। तब बशीर ने उनको जवाब दिया कि “मैं जो लिखता हूँ वो असली मलयालम भाषा है, इसलिए आक्यास और आक्याथास् मत ढूँढो”। यह दिखाता है कि बशीर व्याकरण के ऊपर ध्यान नही देते थे बल्कि अपनी देशीय भाषा के ऊपर ध्यान देते थे। वे खुद का मज़ाक उडाते थे कि उनको मलयालम नहीं आती है मगर उन्हें मलयालम भाषा की बहुत अच्छी जानकारी थी। वे साहित्य अकादमी के वरिष्ठ पदों पर भी अपनी सेवा दे चुके थे।

ऐसे साहित्यिक दिगदर्सि के जन्मदिवस पर अश्विनी राय ‘अरुण’ का नमन ! वंदन!

धन्यवाद !

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