नायक अथवा खलनायक…
दिनाँक : 02/10/19
१५० सालों में कई सरकार दिल्ली में बनीं और बिगड़ी। शुरू के कुछ साल यूं ही निकल गए बापू बनने में, और जब बापू बने तो किसी भी संगठन ने उंगली नहीं उठाया। बड़े बड़े विद्वानों ने उन्हें जायज भी ठहराया। पूरे विश्व ने जिन्हें महात्मा कह के पुकारा इस पर भी विद्वानो में कहीं कोई विवाद नहीं रहा। अस्सी के दशक तक गाँधी सर्व सम्मति और जनसमर्थन की आस्था से राष्ट्रपिता बने रहे। वैसे अभी भी वे राष्ट्रपिता हैं, मगर उस गद्दी का अब एक नया वारिस प्रगट हो चुका है और उसकी भी अपनी एक अलग फैन फालोविंग जमा होने लगी है।
छोड़िए उस बात को, हर सौवीं वर्ष में दुनिया अपने लिए नए देवता को अपने स्वार्थ के अनुरूप पैदा करती ही है। हम मुद्दे पर आते हैं…
अस्सी से नब्बे के दौर में और छुपी छुपाई जबान में उस महात्मा पर कीचड़ उछालने को लेकर कादा इकठ्ठा किए जाने लगे, और फिर नब्बे के दशक में उछाले जाने लगे और बुराईयों की कहानियां बनाई जाने लगी।
अब आया साल दो हजार का जहाँ जन समर्थन दो भागों में बट गया और गाँधी एक पक्ष के लिए नायक तो दूसरे का खलनायक बन गए।
उसका अगला दशक सत्ता परिवर्तन का था…
दो हजार दस के बाद तो गाँधी को मानने वाले सीधे सीधे देश द्रोही कहे जाने लगे और उसकी पूरी पीढ़ी (पुरानी और नई) देश द्रोह के कुम्भीपाक पाप से लिप्त मान लिए गए।
और अंत में…
सत्ता परिवर्तन के पश्चात, सत्ताधारी ने पूरी जनमानस के विश्वास को पाने के लिए, इस बार स्वंय ही गाँधी को पटेल की भांति बेचने का बाजार लगा दिया। और लगे उसके सेल्समैन अब उस गाँधी को बेचने जिसको वो सदा जनता के सम्मुख कालकुट जहर बताते आ रहे थे।
गाँधी ले लो गाँधी !
अश्वनी राय ‘अरूण’
बक्सर (बिहार)
धन्यवाद !