जब नवाहपरायन संपन्न हुआ तो मैं बैठा विचार कर रहा था और सोच रहा था की आखिर रामायण में ऐसा क्या है जो यह इतना प्रसिद्ध है ? तब ना जाने कैसे अपने आप मेरे अंतर्मन में रामचरितमानस की वो चौपाई घूमने लगी…
जाकी रही भावना जैसी।
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी॥
मुझे मेरा जवाब मिल गया और एक नहीं अनेकों मगर उनमें दो मुख्य तौर पर मुझे अत्यधिक प्रिय जान पड़े।
१. रामायण में भोग के लिए कोई जगह है ही नहीं इसमें गर कुछ है तो वो सिर्फ और सिर्फ त्याग है।
२. चारों युग और तीनों लोकों में राम राज्य से महान राज्य कहीं भी हमें नहीं दिखता और नाहीं राम से बड़ा कोई राजा दिखता है। मगर रामराज्य की महानता की नींव में एवं रामराज्य की पताका को पकड़े हुए हमें उसमें उसकी स्त्रियाँ खड़ी दिखती हैं। कहीं सीता तो कहीं उर्मिला, कभी श्रुतकीर्ति तो कभी माँडवी। इतने में ही यह कथा कहां खत्म होने वाली है तो आईए हम आपको कुछ उदाहरणों से इसे समझाते हैं कैसे…
भगवान् राम ने तो केवल राम राज्य के कलश को स्थापित किया था परन्तु रामराज्य में या यूँ कहें तो रामकथा में स्त्रियों के प्रेम, त्याग, समर्पण, बलिदान से ही यह संभव हो पाया था। अब देखिए ना कथा कहती है, भरत जी नंदिग्राम में रहते हैं और शत्रुघ्न जी उनके आदेश से राज्य संचालन करते हैं। तो एक रात की बात है, माता कौशिल्या को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट जान पड़ी तो नींद खुल गई पूछा कौन हैं ?
मालूम पड़ा श्रुतिकीर्ति जी हैं, तो उन्हें नीचे बुलाया गया।
श्रुतिकीर्ति जी, जो शत्रुघ्न जी की पत्नी हैं, नीचे माता के पास आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं।
माताजी ने उनसे पूछा, श्रुति! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही थी बेटी, क्या तुम्हें नींद नहीं आ रही ? एवं शत्रुघ्न कहाँ है ?
श्रुतिकीर्ति जी की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए हैं।
उफ! कौशल्या जी का ह्रदय काँप उठा। तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए। आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, माता निकल पड़ी उन्हें खोजने। खोजते खोजते पता चला की शत्रुघ्न जी कहाँ हैं ? अयोध्या जी के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला रखी हुई है, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर वे लेटे मिले
माता सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी ने आँखें खोलीं, माँ आप ? झट उठे, चरणों में गिरे, माँ! आपने क्यों कष्ट किया ? मुझे बुलवा लिया होता।
माँ ने कहा, शत्रुघ्न! यहाँ क्यों ?
शत्रुघ्न जी की रुलाई फूट पड़ी, बोले- माँ ! भैया राम पिताजी की आज्ञा से वन चले गए, भैया लक्ष्मण उनके पीछे चले गए, भैया भरत भी नंदिग्राम में हैं, क्या ये महल, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, विधाता ने मेरे ही लिए बनाए हैं ?
माता निरुत्तर रह गईं, उन्हें यह समझ नहीं आया की वे दोनों पति पत्नी में से किसे किसका हक दिलवाए और किसे त्यागी बनावे।
रामकथा में त्याग की प्रतियोगिता चल रही है और यहाँ सभी प्रथम स्थान पर हैं, कोई पीछे नहीं रहा।
हम सभी को यह पता है चारो भाइयों के प्रेम और त्याग के बारे में, वे सभी का एक दूसरे के प्रति लगाव अद्भुत-अभिनव और अलौकिक है। भगवान राम को १४ वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी माता सीता ने भी वनवास स्वीकार कर लिया। तो इधर बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी भी कहां राम जी से दूर रहने वाले थे। माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की… परन्तु जब अपनी पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माता ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा ? क्या कहूंगा ? ? ? यही सोचते विचारते लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती की थाल लिए खड़ी हैं, लक्ष्मण जी को देख वे बोलीं, “आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु की सेवा में वन को जा रहे हैं तो निश्चिंत भाव से जाएं, मैं आपको कदापि नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।” लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था। परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया।लक्ष्मण जी चले गए, १४ वर्ष तक उर्मिला जी ने भी एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं तो इधर उर्मिला जी ने भी अपने महलों के द्वार कभी बंद नहीं किये और सारी रात जागकर दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया। मेघनाथ से युद्ध करते हुए जब लक्ष्मण जी को शक्ति लग जाती है और हनुमान जी उनके लिये पहाड़ समेत संजीवनी लेकर लौट रहे होते हैं, तो बीच में अयोध्या में भरत जी उन्हें राक्षस समझकर उनपर बाण चला देते हैं और हनुमान जी वहीं गिर जाते हैं। तब हनुमान जी सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीताजी को रावण ले गया, लक्ष्मण जी मूर्छित अवस्था में हैं। यह सुनते ही कौशल्या जी कहती हैं कि राम को कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी मत रखना। राम वन में ही रहे। माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं। अभी शत्रुघ्न है, मैं उसे भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं। माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। परन्तु जब उन्होंने उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं ? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं ?? तब आश्चर्यचकित हनुमान जी पूछते हैं, देवी! आपकी प्रसन्नता का कारण क्या है? आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदित होते ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिला जी का उत्तर सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा। वो कहती हैं, “मेरा दीपक संकट में नहीं है, वो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदित हो ही नहीं सकता। आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर बैठे हैं, तो जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता। यह तो उन दोनों भाईयो की लीला है। मेरे पति जब से वन गये हैं, तबसे सोये नहीं हैं। उन्होंने न सोने का प्रण लिया था। इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं और जब भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया। वे उठ जायेंगे आप सब चिंता ना करें शक्ति मेरे पति को लगी ही नहीं शक्ति तो राम जी को लगी है। मेरे पति की हर श्वास में राम हैं, हर धड़कन में राम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की हर बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में राम ही राम हैं तो शक्ति राम जी को ही लगी ना, दर्द राम जी को हो रहा है। अतः हे हनुमान जी आप निश्चिन्त होकर जाइये सूर्य उदित नहीं होगा।”
अब बात को आगे बढ़ाते हैं, गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में सिर्फ सीता जी के त्याग और लक्ष्मण के भ्रातृ प्रेम का ही प्रमुखता से वर्णन किया है, फिर मैथलीशरण गुप्त जी ने साकेत में उर्मिला जी की विरह वेदना का ही उल्लेख किया है। लेकिन मांडवी जी लेखकों के नजरों से सदा छुपी रहीं। उन्हें भी श्रुतकीर्ति की भांति अयोध्या में रह कर भी पति के सामीप्य का सुख नहीं मिला। भरत जी चौदह वर्ष तक परिवार से दूर पर्ण-कुटी बना कर अकेले रहते रहे, भाई के प्रति प्रेम और वैराग्य की मूर्ति बने रहे, जनता का पालन पोषण करते रहे मगर माँडवी ? ? रामायण में ऐसी ही अनेकों ऐसी स्त्रियाँ हैं जिनके त्याग के बारे में लिखने को, एक दिन फिर कोई तुलसीदास आएंगे फिर कोई मैथली शरण जन्मेंगे जो स्त्रियों के दुःख-दर्द, त्याग और प्रेम के नए आयाम को नए अर्थों में फिरसे लिखेंगे।