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सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ के ये पद हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं, जहाँ प्रेम और विरह की पराकाष्ठा का चित्रण मिलता है। जब योग का संदेश लेकर मथुरा से उद्धव गोकुल आते हैं, तो वे गोपियों के अटूट प्रेम और विरह-पीड़ा से पूरी तरह अनभिज्ञ होते हैं। प्रस्तुत संवाद में, गोपियाँ अपने वाक्चातुर्य (बोलने की निपुणता) से उद्धव पर व्यंग्य करती हैं, उन्हें ‘बड़भागी’ कहकर उनके अनासक्ति भाव पर चोट करती हैं। यह संवाद मात्र उपदेश और उत्तर का आदान-प्रदान नहीं है, बल्कि यह सगुण प्रेम की शक्ति को निर्गुण योग की शुष्कता पर स्थापित करता है। इन पदों में गोपियाँ न केवल अपने मन की व्यथा व्यक्त करती हैं, बल्कि श्रीकृष्ण के राजधर्म पर भी प्रश्न उठाती हैं। आइए, सूरदास द्वारा रचित इस मार्मिक और भावपूर्ण उद्धव-गोपी संवाद की गहराई को समझें।

 

 

गोपियों का विरह-व्यंग्य: सूरदास के भ्रमरगीत से उद्धव-गोपी संवाद की संपूर्ण व्याख्या

 

पहला पद–

 

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस रहत सनेह तगा तैं, 

नाहिन मन अनुरागी।

पुरइनि पात रहत जल भीतर, 

ता रस देह न दागी।

ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, 

बूँद न ताकौं लागी।

प्रीति – नदी मैं पाउँ न बोरयौ, 

दृष्टि न रूप परागी।

‘सूरदास‘ अबला हम भोरी, 

गुर चाँटी ज्यौं पागी||

 

 

नोट – प्रस्तुत पद सूरदास जी द्वारा रचित सूरसागर के भ्रमरगीत से लिया गया है। प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने गोपियों एवं उद्धव के बीच हुए वार्तालाप का वर्णन किया है। जब श्रीकृष्ण मथुरा से वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा गोकुल यह संदेश भेज देते हैं कि वह वापस नहीं आ पाएंगे, तो गोपियाँ उद्धव को भाग्यशाली बताती हैं क्योंकि श्री कृष्ण के वापिस न आने पर जितना प्रभाव उन पर पड़ा है उद्धव उससे कोसों दूर हैं।

 

व्याख्या – प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव अर्थात श्रीकृष्ण के मित्र से व्यंग करते हुए कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो अभी तक श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम के बंधन से तुम अब तक अछूते हो और न ही तुम्हारे मन में श्रीकृष्ण के प्रति कोई प्रेम – भाव उत्पन्न हुआ है। गोपियाँ उद्धव की तुलना कमल के पत्तों व तेल के मटके के साथ करती हुई कहती हैं कि जिस प्रकार कमल के पत्ते हमेशा जल के अंदर ही रहते हैं, लेकिन उन पर जल के कारण कोई दाग दिखाई नहीं देता अर्थात् वे जल के प्रभाव से अछूती रहती हैं और इसके अतिरिक्त जिस प्रकार तेल से भरी हुई मटकी पानी के मध्य में रहने पर भी उसमें रखा हुआ तेल पानी के प्रभाव से अप्रभावित रहता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण के साथ रहने पर भी तुम्हारे ऊपर उनके प्रेम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनके अनुसार श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उद्धव ने कृष्ण के प्रेम – रूपी दरिया या नदी में कभी पाँव नहीं रखा और न ही कभी उनके रूप – सौंदर्य पर मुग्ध हुए। यही कारण है कि गोपियाँ उद्धव को भाग्यशाली समझती हैं, जबकि वे खुद को अभागिन अबला नारी समझती हैं, जिस प्रकार चींटियाँ गुड़ से चिपक जाती हैं, ठीक उसी प्रकार गोपियाँ भी श्रीकृष्ण के प्रेम में उलझ गई हैं, उनके मोहपाश में लिपट गई हैं।

 

पद भावार्थ – प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव अर्थात श्रीकृष्ण के मित्र से व्यंग कर रही हैं वे उद्धव को भाग्यशाली कहती हैं क्योंकि वे श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम के बंधन से अछूते रहे हैं जबकि गोपियाँ श्री कृष्ण के मोहजाल में ऐसी फस गई हैं जैसे चींटियाँ गुड़ से चिपक जाती हैं।

 

दूसरा पद–

 

मन की मन ही माँझ रही।

कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, 

नाहीं परत कही।

अवधि अधार आस आवन की, 

तन मन बिथा सही।

अब इन जोग सँदेसनि सुनि – सुनि, 

बिरहिनि बिरह दही।

चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, 

उत तैं धार बही।

‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, 

मरजादा न लही।

 

नोट – जब श्रीकृष्ण मथुरा से वापस नहीं आते और उद्धव के द्वारा गोकुल यह संदेश भेजा देते हैं कि वह वापस नहीं आ पाएंगे, तो इस संदेश को सुनकर गोपियाँ टूट – सी गईं और उनकी विरह की व्यथा और बढ़ गई।

 

व्याख्या – जब श्रीकृष्ण के मथुरा से वापस नहीं आने का संदेश गोपियाँ सुनती हैं तो गोपियाँ उद्धव से अपनी पीड़ा बताते हुए कह रही हैं कि हमारे मन की इच्छाएँ हमारे मन में ही रह गईं, क्योंकि हम श्रीकृष्ण से यह कह नहीं पाईं कि हम उनसे प्रेम करती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण के गोकुल छोड़ कर चले जाने के उपरांत, उनके मन में स्थित श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम – भावना मन में ही रह गई है। वे उद्धव से शिकायत करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव ! अब तुम ही बताओ कि हम अपनी यह व्यथा / यह पीड़ा किसे जाकर कहें ? उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है। अब तक श्रीकृष्ण के आने की आशा ही हमारे जीने का आधार थी। अर्थात वे अब तक इसी कारण जी रहीं थी कि श्रीकृष्ण जल्द ही वापिस आ जाएंगे और वे सिर्फ़ इसी आशा से अपने तन – मन की पीड़ा को सह रही थीं कि जब श्रीकृष्ण वापस लौटेंगे, तो वे अपने प्रेम को कृष्ण के समक्ष व्यक्त करेंगी। परन्तु जब उन्हें श्रीकृष्ण का जोग अर्थात् योग – संदेश मिला, जिसमें उन्हें पता चला कि वे अब लौटकर नहीं आएंगे, तो इस संदेश को सुनकर गोपियाँ टूट – सी गईं, जिस कारण उनकी विरह की व्यथा और बढ़ गई। अब तो उनके विरह सहने का सहारा भी उनसे छिन गया अर्थात अब श्रीकृष्ण वापस लौटकर नहीं आने वाले हैं और इसी कारण अब उनकी प्रेम – भावना कभी संतुष्ट होने वाली नहीं है। वे जहाँ से भी श्रीकृष्ण के विरह की ज्वाला से अपनी रक्षा करने के लिए सहारा चाह रही थीं, उधर से ही योग की धारा बहती चली आ रही है। उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब वह हमेशा के लिए श्रीकृष्ण से बिछड़ चुकी हैं और किसी कारणवश गोपियों के अंदर जो धैर्य बसा हुआ था, अब वह टूट चुका है। इसी वजह से गोपियाँ वियोग में कह रही हैं कि श्रीकृष्ण ने सारी लोक – मर्यादा का उल्लंघन किया है, उन्होंने हमें धोखा दिया है। तो भला हम धैर्य धारण कैसे कर सकती हैं ?

 

भावार्थ – इस पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनके मन की अभिलाषाएँ उनके मन में ही रह गईं, क्योंकि वे श्री कृष्ण से यह कह नहीं पाईं कि वे उनसे प्रेम करती हैं। अब वे अपनी यह व्यथा किसे जाकर कहें? क्योंकि श्री कृष्ण के आने की आशा के आधार पर उन्होंने अपने तन – मन के दुःखों को सहन किया था। अब उनके द्वारा भेजे गए जोग अर्थात् योग के संदेश को सुनकर वे विरह की ज्वाला में जल रही हैं। और कहती हैं कि अब जब श्रीकृष्ण ने ही सभी मर्यादाओं का त्याग कर दिया, तो भला वे धैर्य धारण कैसे कर सकती हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि गोपियाँ श्री कृष्ण के मोह में इतनी बांध चुकी हैं कि अब वे श्रीकृष्ण से दूर रह कर जीवन जीना असंभव मानती हैं।

 

तीसरा पद–

 

हमारैं हरि हारिल की लकरी।

मन क्रम बचन नंद – नंदन उर, 

यह दृढ़ करि पकरी।

जागत सोवत स्वप्न दिवस – निसि, 

कान्ह – कान्ह जक री।

सुनत जोग लागत है ऐसौ, 

ज्यौं करुई ककरी।

सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, 

देखी सुनी न करी।

यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, 

जिनके मन चकरी।।

 

 

नोट – सूरदास जी के इस पद में गोपियाँ उद्धव से यह कह रही हैं कि उनके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम है, जो कि किसी योग – संदेश द्वारा कम होने वाला नहीं है। बल्कि इससे उनका प्रेम और भी दृढ़ हो जाएगा।

 

व्याख्या – इस पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हमारे श्रीकृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जिस तरह हारिल पक्षी अपने पंजों में लकड़ी को बड़ी ही ढृढ़ता से पकड़े रहता है, उसे कहीं भी गिरने नहीं देता, उसी प्रकार हमने भी मन, वचन और कर्म से नंद पुत्र श्रीकृष्ण को अपने ह्रदय के प्रेम – रूपी पंजों से बड़ी ही ढृढ़ता से पकड़ा हुआ है अर्थात दृढ़तापूर्वक अपने हृदय में बसाया हुआ है। हम तो जागते सोते, सपने में और दिन – रात कान्हा – कान्हा रटती रहती हैं। इसी के कारण हमें तो जोग का नाम सुनते ही ऐसा लगता है, जैसे मुँह में कड़वी ककड़ी चली गई हो। योग रूपी जिस बीमारी को तुम हमारे लिए लाए हो, उसे हमने न तो पहले कभी देखा है, न उसके बारे में सुना है और न ही इसका कभी व्यवहार करके देखा है। सूरदास गोपियों के माध्यम से कहते हैं कि इस जोग को तो तुम उन्हीं को जाकर सौंप दो, जिनका मन चकरी के समान चंचल है। अर्थात हमारा मन तो स्थिर है, वह तो सदैव श्रीकृष्ण के प्रेम में ही रमा रहता है। हमारे ऊपर तुम्हारे इस संदेश का कोई असर नहीं पड़ने वाला है।

 

भावार्थ – सूरदास जी के इन पदों में गोपियां उद्धव से यह कह रही हैं कि उनके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम है, जो कि किसी योग – संदेश द्वारा कम होने वाला नहीं है। उनके ऊपर उद्धव के द्वारा लाए गए संदेश का कुछ असर होने वाला नहीं है। इसलिए उन्हें इस योग – संदेश की कोई आवश्यकता नहीं है। यह संदेश उन्हें सुनाओ, जिनका मन पूरी तरह से कृष्ण की भक्ति में डूबा नहीं और शायद वे यह संदेश सुनकर विचलित हो जाएँ। पर उनके ऊपर उद्धव के इस संदेश का कोई असर नहीं पड़ने वाला है। क्योंकि उनका श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम अटूट है।

 

चौथा पद –

 

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

समुझी बात कहत मधुकर के, 

समाचार सब पाए।

इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, 

अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।

बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, 

जोग – सँदेस पठाए।

ऊधौ भले लोग आगे के, 

पर हित डोलत धाए।

अब अपनै मन फेर पाइहैं, 

चलत जु हुते चुराए।

ते क्यौं अनीति करैं आपुन,

जे और अनीति छुड़ाए।

राज धरम तौ यहै ‘सूर’, 

जो प्रजा न जाहिं सताए।।

 

 

नोट – इस पद में गोपियाँ उद्धव को ताना मारती हैं कि श्रीकृष्ण ने अब राजनीति पढ़ ली है। जिसके कारण वे और अधिक बुद्धिमान हो गए हैं और अंत में गोपियों द्वारा उद्धव को राजधर्म ( प्रजा का हित ) याद दिलाया जाना सूरदास की लोकधर्मिता को दर्शाता है।

 

व्याख्या – इस पद में गोपियाँ व्यंग्यपूर्वक उद्धव से कहती हैं कि श्रीकृष्ण ने राजनीति का पाठ पढ़ लिया है। जो कि मधुकर अर्थात उद्धव के द्वारा सब समाचार प्राप्त कर लेते हैं और उन्हीं को माध्यम बनाकर संदेश भी भेज देते हैं। श्रीकृष्ण पहले से ही बहुत चतुर चालाक थे, अब मथुरा पहुँचकर शायद उन्होंने राजनीति शास्त्र भी पढ़ लिया है, जिस के कारण वे और अधिक बुद्धिमान हो गए हैं, जो उन्होंने तुम्हारे द्वारा जोग (योग) का संदेश भेजा है। हे उद्धव ! पहले के लोग बहुत भले थे, जो दूसरों की भलाई करने के लिए दौड़े चले आते थे। यहाँ गोपियाँ श्रीकृष्ण की ओर संकेत कर रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अब श्रीकृष्ण बदल गए हैं। गोपियाँ कहती हैं कि मथुरा जाते समय हमारा मन श्री कृष्ण अपने साथ ले गए थे, जो अब हमें वापस चाहिए। वे तो दूसरों को अन्याय से बचाते हैं, फिर हमारे लिए योग का संदेश भेजकर हम पर अन्याय क्यों कर रहे हैं? सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! राजधर्म तो यही कहता है कि प्रजा के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए अथवा न ही सताना चाहिए। इसलिए श्रीकृष्ण को योग का संदेश वापस लेकर स्वयं दर्शन के लिए आना चाहिए।

 

भावार्थ :- प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार गोपियाँ श्रीकृष्ण के वियोग में खुद को दिलासा दे रही हैं। सूरदास गोपियों के माध्यम से कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण ने राजनीति का पाठ पढ़ लिया है। जो कि मधुकर (उद्धव) के द्वारा सब समाचार प्राप्त कर लेते हैं और उन्हीं को माध्यम बनाकर संदेश भी भेज देते हैं। राजधर्म तो यही कहता है कि राजा को प्रजा के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए और न ही सताना चाहिए। इसलिए गोपियाँ चाहती हैं कि श्रीकृष्ण को योग का संदेश वापस लेकर स्वयं दर्शन के लिए आना चाहिए।

 

 

🌟 सूरदास के पदों का काव्य-सौंदर्य और प्रमुख अलंकार

 

 

पहला पद: अपरस रहत सनेह तगा तैं – रूपक अलंकार

‘स्नेह’ (प्रेम) को ‘तगा’ (धागा या बंधन) का रूप दिया गया है।

 

पहला पद: पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।– उपमा अलंकार

उद्धव की निर्लिप्तता की तुलना कमल के पत्ते से की गई है।

 

पहला पद: ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।– उपमा अलंकार

उद्धव की तुलना तेल की गागरि (मटकी) से की गई है।

 

पहला पद: गुर चाँटी ज्यौं पागी।– उपमा अलंकार

गोपियों के प्रेम की तुलना गुड़ और चींटी के संबंध से की गई है।

 

दूसरा पद: बिरहिनि बिरह दही।– अनुप्रास अलंकार

‘ब’ वर्ण की आवृत्ति।

 

तीसरा पद: हमारैं हरि हारिल की लकरी।– रूपक अलंकार

श्रीकृष्ण को हारिल पक्षी की लकड़ी का रूप दिया गया है।

 

तीसरा पद: कान्ह – कान्ह जक री। पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार–

‘कान्ह’ शब्द की पुनरावृत्ति प्रेम की तल्लीनता को दर्शाती है।

 

तीसरा पद: ज्यौं करुई ककरी।– उपमा अलंकार

योग-संदेश की तुलना कड़वी ककड़ी से की गई है।

 

चौथा पद: बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी– व्यंग्योक्ति अलंकार

श्रीकृष्ण के योग-संदेश भेजने को उनकी बढ़ी हुई बुद्धि बताना।

 

 

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