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मूल से मूल निकालोगे,

तो क्या मूल्य तुम पाओगे।

सत्य से सत्य को छिपाओगे,

तो क्षत-विक्षत तुम हो जाओगे।

 

यूं ही नहीं जिंदगी सलामत रहेगी,

जो तुम इन पेड़ों को कटवाओगे।।

 

हरी धरती क्या नहीं भाती या

नीला आसमां फीका लगता है।

क्या भीनी धूप तुम्हें जलाती है 

या हवा का झोंका तड़पता है।

 

सच में तुम एक दिन तड़पोगे,

जो इन पेड़ों को हटवाओगे।।

 

सोचो तो बात बड़ी सीधी है,

मानो तो बड़ी दुखियारी है।

खाने को मीठे फल मिलेंगे या

फिर हृदय में धंसी कटारी है।

 

प्रकृति का विरोध किया तो,

मानवता के द्रोही कहलाओगे।।

 

वो कैसे माफ करेगी,

नदियों के नाला हो जाने पर।

वो कैसे बर्दाश्त करेगी,

हवा में धुआँ भर जाने पर।

 

अगर खाना ज़हर हुआ तो,

बोलो तुम स्वयं ही क्या खाओगे।।

 

तुम्हें बचाना होगा,

जंगल को मरुस्थल हो जाने से, 

तुम्हें बचाना होगा,

मनुष्य को जंगल बन जाने से।

 

सोचो सब कुछ खत्म हो गया तो,

तुम क्या खोओगे क्या पाओगे।।

 

स्वरचित और मौलिक 

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

बक्सर (बिहार)

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