I
आम नजर में, दो नहीं, एक ही नाम;
शिव ही शंकर, शंकर ही भोले भगवान।
अध्यात्म के गहन शिखर पर, सत्य है केवल एक,
बाकी सब हैं नाम, मात्र भ्रम के अनेक।
शिव हैं सत्यम्, शिव ही परमात्मा का सार,
वो नहीं कोई चरित्र, न कोई सीमा-द्वार।
वे स्वयं ही केंद्र हैं, स्वयं ही अनंत परिधि,
शंकर हैं मन की ऊंचाई, शिव हैं निर्विचार की निधि।
II
शंकर का है कुटुंब, पार्वती संग संसार,
मित्र, सखा, गण, लीला, सब हैं साकार।
किसी पुराण के वे हो सकते हैं केंद्र-पात्र,
मगर शिव तो हैं निराकार, ज्योति अनादि-मात्र।
शंकर विचार का उच्चतम शिखर, उड़ान महान,
शिव वह खुला आकाश जहां विलीन हो प्राण।
जैसे कबीर के राम, दशरथ-सुत से हैं भिन्न,
वैसे ही शंकर सगुण हैं, शिव निर्गुण में सन्न।
III
शक्ति नहीं अर्धांगिनी, जो आधी जुड़ी रहे,
शक्ति तो है अस्तित्व, जो चारों ओर बहे।
और शक्ति के हृदय में जो वास करते हैं, वो शिव,
श्री वही है जो शिव से उपजे, शुभ और चिरंजीव।
शिव को पूंजे कैसे, वो तो हैं अचिन्त्य,
पूजा तो साकार की, जो हो दृश्य और चिन्त्य।
शिव को जानना हो तो, शिव ही तो होना है,
वरना पूजा के लिए शंकर को मन में बोना है।