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उनकी हिकारत को सहते रहे,
मगर चुप रहते थे।
करते थे उनसे प्यार मगर,
तन्हाई हरदम अकेले सहते थे।

अजीब निगाहों से वो देखते,
उन्हें हमारी वफा पे जो शक था।
अपनी मजबूरियों से बंधा था,
मगर मैं बेवफा न था।

हक़ है, उन्हें शक कि निगाहों का,
किन्तु एकबार हमारी निगाहों में देख।
माना लाख ऐब है हममें परंतु,
बंधु पुरानी वफ़ादारी को भी देख।

हर बार हम हिं क्यूं हुए हैं ढेर,
उनकी निगाहों से कटकर।
फिर भी ज़िंदा खड़े हैं,
तरफ़दारी से डटकर।

उनपर हमने लुटाया था,
अपने जिस्मो-जाँ, चैन और शुकून को।
और बदले में पाया क्या,
लाचार आंखों से देखते ढलती शाम को।

ऐ दोस्त! अपनी निगाह तो बदल,
प्यार के उस पल को तो याद कर।
शक से दिलों की दूरियां बढ़ जाती हैं,
सूखे दिल में अपने प्यार कि फुहार तो भर।

अश्विनी राय ‘अरुण’

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