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॥ यूं ही जिंदगी हाथों से ॥
॥ फिसलती जा रही है, ॥
॥ और सपने आंखों में ही ॥
॥ बिखरते जा रहे हैं॥

(गीत स्वरुप)
अगर कुछ बचा है तो
सिर्फ आसाएं ही बची हैं।
बाकी तो जैसे उम्र
खर्च होने के लिए ही आई थी।

(अलंकार)
रिश्ते कुछ पुराने
जो अड़ियल हैं
वो अब भी बचे हैं
नहीं तो बचपने के यार
कब के आगे निकल चुके हैं।

(अनुप्रास)
हां! बचपन में अमृत के घूंट
कुछ कम ही लगाए होंगे हमने,
जो साथ निभाने को
बीमारियों ने हाथ फैलाए हैं।

(दोहरा छंद)
अब तो बस जिंदगी का
जाना ही बाकी रह गया है,
वर्ना किराए के इस शरीर ने तो
कब का साथ देना छोड़ दिया है।

(समापन)
॥ यूं ही जिंदगी हाथों से ॥
॥ फिसलती जा रही है, ॥
॥ और सपने आंखों में ही ॥
॥ बिखरते जा रहे हैं॥

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