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विषय : खामियाँ
दिनाँक : ०८/०१/२०२०

जब मैं कभी अपनी
खामियों को ढूंढता हूँ
तो सोचता हूँ…

कितना अच्छा होता न
अगर मैं अपने बचपन को
ढूंढ़ पाता
कभी खेलता यहां
तो कभी वहां
दोस्तों के साथ
कभी आम तोड़ता तो
कभी अमरूद चुराता
जिस गलती पर
माँ से दुलार पाता
उसी पर फिर से
बापू के लात खाता
और बीत जाता
बचपन में ही सारा जीवन

शायद मैंने कोई गलती
अनजाने में की होगी
जो आज बड़ा हो गया

अगर जब मैं बड़ा हो गया तो
कितना अच्छा होता न
की सुबहो शाम
माशूक की आँखों में गुजरते
उसके दर पर
मैं बेसुध पड़ा रहता
और बीत जाता यह सारा जीवन

किन्तु, शायद, परन्तु
मैंने कोई गलती
इस बार भी की होगी
जो यह भी ना कर सका

फिर सोचता हूँ
कितना अच्छा होता ना
अगर मैं जन्मा ही ना होता
ना बचपन आता और
ना जवानी आती
ना अल्हड़ सजता
ना आँखों में रावानि छाती
ना कोई कुछ सिखाता
ना कुछ सीखना पड़ता
और ना कोई गलतियां होतीं

शायद कोई गलती मैंने
इस बार भी की होगी
जब मैं कभी अपनी
खामियों को ढूंढता हूँ
तो सोचता हूँ…

जो जन्मा तो
अनाड़ी ही रह जाता
ना समझ जवानी की होती
ना समझ में कभी आता बचपन
और बीत जाता यह सारा जीवन

अश्विनी राय ‘अरूण’

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