एक समय ऐसा भी आया था, जब मैं दूबेजी पर बिफर पड़ा, आखिर उन्होंने अनजाने में अथवा जान बूझ कर हमें परेशान कर दिया था। मगर घर आते आते ही सारा गुस्सा काफुर हो गया।
हुआ यूं कि आज बच्चों का आखिरी पेपर था और स्कूल की छुट्टी भी चार पांच दिन की ही होने वाली थी अतः हम आज ही निकलने के प्लान में थे, तो हमने दूबेजी को फोन पर गांव जाने के बारे में पूर्व में ही बता दिया था। उन्होंने ठीक एक बजे का समय दिया था रोड पर आने के लिए। हम सभी यानी मैं, मेरी पत्नी और मेरे दोनो सुपुत्र पूर्व निर्धारित समय पर सड़क पर आकर दूबेजी का इंतजार करने लगे। पंद्रह मिनट इंतजार करने के बाद हमने उन्हें फोन लगाया, तो दूसरी तरफ से उन्होंने कहा कि हम दस मिनट में पहुंच जाएंगे, क्योंकि अभी हम सुंदरपुर से चल दिए हैं। पंद्रह मिनट भी गुजर गया तो हमने उन्हें फिर से फोन लगाया। इस बार उन्होंने कहा कि हम लंका पर ट्रैफिक में फसें हैं। ‘ठीक है’, हमने धीरे से कहा। यह सुन पत्नी जी ने पूछा, ‘कहां है गाड़ी?’ ‘लंका’ मेरा संक्षिप्त जवाब। ‘इसका मतलब अभी दस मिनट और लगेगा’, पत्नी जी ने हिसाब लगाते हुए कहा। इस बार मैं चुप रहा।
दस मिनट के बदले बीस मिनट गुजर गए, तो हमने दूबेजी को फिर से फोन लगाया। एक बात थी कि बेचारे आने में भले ही देरी कर रहे थे, मगर फोन हर बार उठा रहे थे, तो इस बार भी उठाया। सीधी उंगली से जब घी नहीं निकलता तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है तो हमने थोड़ा संयमित क्रोध में उनसे पूछा, ‘भाई साब आप अभी कहां हैं, एक बजे का समय देकर आपने हमें पचास मिनट से रोड पर खड़ा कर रखा है। अभी आने में आपको और कितना समय लगेगा?’
इस पर बेचारे! थोड़े लज्जित हुए, ‘माफ कीजिए भैया! अब क्या करें, एक जन का इंतजार करने को बाध्य हैं। जब इतनी देर तक इंतजार कर ही लिया है, तो थोड़ी देर और कर लीजिए।’ हमने कुछ बोले बिना ही फोन काट दिया। पांच मिनट के इंतजार के बाद हमने उनकी गाड़ी को आते हुए देखा, तो झल्लाहट कुछ कम हुई। वैसे क्रोध कर के कर भी क्या सकता था। कम कूवत रिस ज्यादा
अब देखिए, दूबेजी से हमने गाड़ी में बीच वाली पूरी जगह मांगी थी यानी पूरे चार लोगों का स्थान, मगर उन्होंने दया करके सिर्फ हमारी पत्नी जी के लिए बीच में एक स्थान दिया और हमें यानी मुझे और मेरे दो अनमोल रतन को पीछे लगेज बनाकर डाल दिया। इस बार भी क्रोध हम पर अपनी सवारी करने को आमदा हो गया, जैसे; क्रोध के परुष बचन बल! मगर तुलसी बाबा तुरंत याद आए, ‘क्रोध पाप कर मूल!’
गाड़ी थोड़ी आगे बढ़ी तो एक बुजुर्ग महिला और उनका पुत्र आकर हमारे सामने बैठ गए। गाड़ी चली और फिर तुरंत रुक गई। इस बार एक लड़का हमारे पास आ कर बैठ गया और एक स्थुलकाय महिला सामने आकर बैठ गई। इस बार फिर से गाड़ी चली और रुक गई, तो गाड़ी में ड्राइवर के पास यानी दूबेजी के पास एक बुजुर्ग दंपति और उनका पोता आकर बैठ गए। हमारे गोदाम में शायद एक स्थान अभी बाकी था, तो एक फूल पैक्ड सज्जन आकार हमारे सामने वाली सीट पर आकर बैठ गए। यानी गाड़ी अब जाकर पूरी तरह से भर गई थी।
फूल पैक्ड सज्जन के आ जाने के बाद, पूरी गाड़ी देशी ठर्रे के गंध से भर गया। एगो त करईली अपने तीत, अउर चढ़ले नीम प, मतलब अब तक जो कुछ भी हमने सहा था, उससे कहीं ज्यादा आने वाले तीन घंटों में होने वाला था।
आनंदायक, सुमधुर और सुगंधित वातावरण भरे माहौल में अब तक के ढाई घंटे के सफर के बाद, कोचस में जाकर फूल पैक्ड सज्जन का सफर समाप्त हुआ। दुबेजी ने माहौल को सुगंधित बनाए रखने वाले फूल पैक्ड सज्जन से जब किराए की बात की तो सज्जन ने अपना प्रलयंकारी रूप दिखाया और कहा, ‘तुम मुझे पहचानते नहीं क्या कि मैं कौन हूं? अगर नहीं पहचानते तो जान लो, मैं भगवान श्रीकृष्ण के वंश में जन्मा और आज के सत्ताधिकारी पार्टी के सांसद महोदय का खास गुर्गा हूं। क्या तुम्हें मुझसे पैसे मांगते डर नहीं लगता?’ बेचारे दुबेजी दुबक गए और सोचा, ‘भई यह सज्जन सच ही तो कह रहा है, जेकर सइयां थानेदार ऊ काहे ना चढ़िएं कुतुबमीनार’ यह सोच चुपचाप दूबेजी अपनी गाड़ी लेकर चल दिए। मुझे पहली बार दुबेजी पर तरस और फूल पैक्ड सज्जन पर अपना क्रोध ट्रांसफर होता महसूस हुआ, मगर हालात को देख चुप ही रहा।
गाड़ी हमारे गांव जाने वाले रास्ते पर मुड़ने के बजाय जब आगे निकलने लगी तो हमने दूबेजी से पूछा, ‘दुबेजी! क्या वापसी के समय हमें उतारिएगा?’ ‘जी’, दूबेजी का संक्षिप्त सा जवाब सुन मैं चुप हो गया। जलहरा गाड़ी रुकी तो बीच वाली सीट पर अब सिर्फ हमारी पत्नीजी ही रह गईं। गाड़ी चल दी। तियरा पास हो गया, जमौली गांव में मेरे सामने बैठे मां·बेटे दोनों उतर गए। गाड़ी गांव से बाहर निकली और जमौली पुल से ठीक पहले रुक गई, तो इस बार स्थुलाकाय महिला उतरी। जिसका सामान दूबेजी ने अपने हाथों से उतारा और घर तक छोड़ा।
इस बार हमारी सवारी जमौली पुल से दाहिने ओर नहर पर बने रास्ते से होते हुए, मनोहरपुर नामक गांव की ओर चल पड़ी, जहां बुजुर्ग दंपति को उनके नाती सहित उतारना था। यह देख हमारी पत्नीजी थोड़ी भड़क उठी, ‘कहां पांच मिनट का रास्ता था, उसे छोड़ आप हमें घंटे भर से बेवजह घुमाए जा रहे हैं।’ हमें भी काफी बुरा लग रहा था, पर दांत पर दांत कसे हुए था, मगर जब पत्नीजी की बात सुनी तो कड़े शब्दों में उन्हें ही चुप रहने को कह दिया। यह तो यूं बात हुई कि जब धोबी से बस न चला तो गदहे के ही कान उमेठ दिये!
अब गाड़ी में बस हम चारों के अलावा दुबेजी ही बचे थे, उन्होंने हमें आगे आकर बैठ जाने का ऑफर दिया, जिसे मैंने कड़े शब्दों में इंकार कर दिया। उन्होंने तीन चार बार हमें आगे बैठाने की असफल चेष्टा की तो, अबतक जिस ज्वालमुखी को मैं दबाए बैठा था, वो एकाएक फट पड़ा। मैंने यह समझ लिया था कि…
अति सीधे मति होइए, कछुक व्यंग मन माहिं।
सीधी लकड़ी काटि लें, टेढ़ी काटैं नाहिं।।
मगर दुबेजी शांत चित्त वाले व्यक्ति थे, वे मुस्कुरा दिए और धिरे से कहा, ‘भैया! आप अपने हैं। मैं आपको थोड़ा परेशान कर सकता हूं, अगर आपको छोड़ने के लिए मै गाड़ी घूमता तो, वो स्थूलकाय महिला मेरी जान ले लेती, इतनी गाली देती की आप स्वयं मुझे कहने लगते, ‘पहले इन्हें क्यों नहीं उतरा, आपने!’ इसीलिए मैंने आपको आपके परिजनों के साथ थोड़ी परेशानी में डाला, और फिर आपको उतार कर सीधे अपने घर मैं भी जाना चाहता था, जो कि आपके गांव मांगोडेहरी के निकट वाला गांव कोनौली ही तो है। इसके लिए मुझे माफ कीजिएगा।’ बातों ही बातों में गांव आ गया। सारे गिले सिकवे गांव देख, खुशी में बदल गए। हम चारों गाड़ी से उतर कर अपने घर की ओर चल दिए और दूबेजी अपने घर की ओर। अंत भला तो सब भला!
विशेष : टेढ़े मेढे रास्तों पर जिंदगी आसान नहीं होती, मगर यह भी जान लीजिए कि अगर वह टेढ़ी मेढ़ी ना होती तो जिंदगी, जिंदगी भी ना होती।