December 3, 2024

राम! राम! राम! राम! राम! राम! राम! राम! राम! राम!

भगवान श्रीराम हम सनातनियों के लिये आदर्श हैं, पूजनीय हैं और अगर मानवीय रूप में कहें तो महापुरुष हैं। उनका जीवन शैली, चरित्र निर्माण और विचारों पर हम अलग अलग नजर डालें तो तुलसीकृत मानस में लिखी चौपाईयां भी कम लगाने लगती हैं और मन नाहक ही मानस के उपरांत किसी और राम कथा को ढूंढने लगता है। जबकि महर्षि वाल्मिकी की रामायण और मानस के बाद किसी और रामकथा की कोई आवश्यकता नहीं है। मगर मानव मन को कोई कैसे रोके अथवा उसकी जिज्ञासा को कोई कैसे शांत करे, इसलिए हमने भी अपनी जिज्ञासा के लिए कम्ब रामायण, रंगनाथ रामायण आदि को पढ़ना शुरू किया और यह क्रम धीरे धीरे आगे बढ़ते बढ़ते कोहली जी की रामकथा के बाद पेरियार की सच्ची रामायण तक पहुंच गई। और यहीं हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई, आईए जानते हैं कि हमसे कहां भूल हुई…

श्रीराम के चरित्र को लेकर जितनी बड़ी संख्या में हिन्दी, संस्कृत के अतिरिक्त अन्य भारतीय समेत विदेशी भाषाओं में रामकाव्य अथवा कथा लिखे गए हैं, वे सब उनके अंतर्मन और बाह्यचरित्र पर सक्षम और सूक्ष्म दृष्टि डालते हैं और यही दृष्टि आमजन में राम को अतिमानवीय स्वरूप प्रदर्शित करती है। जबकि उसके उलट राम स्वयं को कहीं भी भगवान कहते हुए नहीं दिखते और ना ही कहीं कोई अतिमानविय कार्य करते हुए दिखते हैं। राम महान हैं क्योंकि वे सारे अनुकरणीय गुणों से सम्पन्न हैं इसलिये उन पर लिखे गये काव्यों–कथाओं को न केवल भक्ति भाव से पढ़ा व सुना जाता है बल्कि उनके चरित्र को जनमानस स्वयं में उतारना भी चाहता है। उनके चरित्र को रंगमंच के द्वारा प्रस्तुत कर आमजन को जगाया भी जाता है।

लेकिन इस समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो राम के आदर्श चरित्र पर उंगली उठाते हैं। उन्हें या तो राम पसंद नहीं हैं अथवा उनका आदर्श उन्हें नहीं भाता। या तो उन्हें सनातनी संस्कृति से कोई बैर है अथवा वो किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर अथवा किसी के बहकावे में आकर इस नीच कर्म को करने पर उतारू हो राम की सर्वश्रेष्ठता को चुनौती देते हैं। उन्हें यह लगता है कि राम को पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित कर के सनातनी संस्कृति हमें अत्यधिक बौना बना रही है, जो कि उनकी कुलसित मानसिकता का प्रतीक जान पड़ता है। साथ ही राम का विरोध करने वालों को राम में ना जाने कितनी बुराइयां नजर आ रही हैं। ऐसे लोग जब पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों के जरिये अपनी बात रखते हैं, तो हमें उनपर तरस आता है। मैं सबकी तरह उन्हें नास्तिक नहीं कहता, क्योंकि नास्तिक कहे जाने का हक उन विचारकों को जाता है जो आजीविक, जैन दर्शन, चार्वाक, तथा बौद्ध दर्शन की चार धाराओं में आते हैं और ये उनमें से एक नहीं हो सकते। मैं उन्हें धर्मद्रोही भी नहीं कह सकता क्योंकि धर्मद्रोही तो वह है जो धर्म और उससे संबंधित सत्ता अथवा तंत्र का विरोधी हो। यहां ये व्यक्ति पूरी तरह धर्म के विरोध में भी नहीं हैं उन्हें सिर्फ श्रीराम में बुराई नजर आती है अथवा उनकी सत्ता से नफरत है। मैं राम भक्तों के उस कुपित समाज की तरह इन्हें बुराई के प्रतीक रावण का वंशज भी नहीं मानता क्योंकि ये वे व्यक्ति हैं जो किसी ना किसी सनातनी संस्कृति से पोषित घर में ही जन्में हैं और पथभ्रष्ट हो कर राम से विमुख हो गए हैं अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि वह व्यक्ति राम से विमुख हो कर पथभ्रष्ट हो गया है।

हम इसे अधिसंख्य हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की कुचेष्टा भी नहीं कह रहे क्योंकि कुचेष्टा तो वह करता है जो बाहरी हो और जिसे अपने धर्म अथवा कार्य से बड़ा हमारा धर्म अथवा कार्य लगता है। अगर हम इसे कुचेष्टा मान भी लें तब भी ऐसा सोचना उचित नहीं है, क्योंकि प्रतिपक्षियों के लाख कुचेष्टा करने पर भी राम और राम का नाम, राम चरित्र और राम कार्य सबसे महान है, अजर है अमर है। मैं बाकियों की तरह यह भी नहीं कहता कि उस व्यक्ति को प्रतिबन्धित कर दिया जाए क्योंकि जब वह आजाद रहेगा तभी तो ‘मरा मरा’ कहते कहते ‘राम राम’ कहने लगेगा।

अब आते हैं मुख्य बातों पर, राम के आदर्श चरित्र का गुणगान करने वाली सैकड़ो ग्रथों के मध्य कई ऐसी पुस्तकें लिखी गई हैं जो रामायण की अपने अजीबो गरीब ढंग से व्याख्या करती हैं और राम के विशालकाय व्यक्तित्व को एक निरीह या दुष्ट चरित्र की व्यथा कथा कहती हैं। उन सभी मिथ्याकारों को राम के चरित्र में अनगिनत दोष दिखाई पड़ते हैं। मिथ्याकारों को राम उपेक्षित, उत्पीड़ित लोगों पर अन्याय और अत्याचार करते हुए दिखाई पड़ते हैं। उन्हीं कुछ मिथ्याकारों में से अग्रिम पंक्ति में खड़े हैं, ई.वी. रामास्वामी पेरियार। जिनकी रामकथा पर आधारित एक पुस्तक है ‘सच्ची रामायाण’, जिसे १४ सितम्बर, १९९९ को इस वजह से इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रतिबंधित कर दिया  क्योंकि वह समाज को गलत दिशा प्रदान कर रही है।

इन तथाकथित महान मिथ्याकार के ‘सच्ची रामायण’ को जानने से पूर्व हम सर्वप्रथम मिथ्याकार ई.वी. रामास्वामी पेरियार के बारे में जानते हैं, जिनका जन्म वर्ष १८७९ को और मृत्यु वर्ष १९७३ को हुआ था।

पेरियार का परिचय…

इनका जन्म १७ सितम्बर, १८७९ को तमिलनाडु के इरोड नामक स्थान पर एक सम्पन्न, धार्मिक और परम्परावादी हिन्दू परिवार में हुआ था। वर्ष १८८५ में जब पेरियार तकरीबन छः वर्ष के रहे होंगे तब परिजनों ने उनका दाखिला एक स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में करा दिया, मगर मात्र पाँच वर्ष से कम की औपचारिक शिक्षा मिलने के बाद ही उनका मन पढ़ाई में कम और पिता के खानदानी व्यवसाय में ज्यादा लगने लगा और एक दिन वो भी आया जब उन्होंने औपचारिक शिक्षा को पूर्णतः छोड़ दिया। उनका परिवार भी अन्य हिन्दू परिवार की तरह ही धार्मिक परिवार था इसलिए आए दिन उनके घर पर भजन तथा उपदेशों का सिलसिला चलता ही रहता था। जो पेरियार को बचपन से ही उबाऊ लगता जिसके चलते वह उन धार्मिक पुस्तकों ग्रंथों आदि पर प्रामाणिकता के सवाल उठाते रहते थे। हिन्दू महाकाव्यों तथा पुराणों में कही बातों की परस्पर विरोध करते और उन्हें बेतुकी कह माखौल भी वे उड़ाते रहते थे। बड़े होने पर उन्होंने हिन्दू वर्ण व्यवस्था का भी बहिष्कार किया। जब उनकी आयु १९ वर्ष की रही होगी तब उनकी शादी नगम्मल नाम की १३ वर्ष की अल्प आयु वाली लड़की से हुई, जो शरीर और मस्तिष्क दोनों से सुकुमारी थी। पेरियार ने अपनी कम अवस्था वाली पत्नी को भी अपने विचारों से पूर्णतः घायल कर दिया। जिस वजह से वह उनकी पहली अनुवाई बन गई। जो इस समाज पर पहला आघात था।

क्रमशः

सच्ची रामायण का सच भाग –२

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