भारत को स्वतंत्र हुए ७५ वर्ष हो गए, मगर आज भी क्रांतिकारियों, राजनेताओं आदि की भांति अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले साहित्यकारों, कवियों के अहम योगदान को वह स्थान प्राप्त नहीं हो पाया है, जो उन्हें और उनकी नई पौध को प्राप्त होना चाहिए था। वह साहित्यकार ही था, जिसने “वंदे मातरम्” गाकर स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के रक्त में एक तपन पैदा की थी, वह कवि ही था, जिसने “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा” गाकर लड़ाकों में नई जान फूंकी थी। उसी ने तो, “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्ता हमारा” गाकर आजादी की लड़ाई को नए आयाम प्रदान किए थे। देश सुभाष चन्द्र बोस के लापता होने, चंद्रशेखर आजाद के शहिद होने, गणेश शंकर विद्यार्थी की दंगे में हत्या की घटना को तो याद करता है और करना भी चाहिए, क्योंकि यही वो पुरोधा हैं, जिनकी वजह से हम आज स्वतंत्र वायु में सांस ले पा रहे हैं। मगर दूसरी ओर इतिहास का दोहरा चरित्र हमारी समझ से बाहर है, उसके अथवा देश को तब क्या हो जाता है, जब कलमकारों की बात आती है, क्यों साहित्यकारों के योगदान को वह भुला देता है। उसे माखनलाल चतुर्वेदी, राहुल सांकृत्यायन, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सुभद्रा कुमारी चौहान, बेचन शर्मा ‘उग्र’, जगदंबा प्रसाद ‘हितैषी’, रामबृक्ष बेनीपुरी, बनारसी प्रसाद ‘भोजपुरी’, यशपाल, फणीश्वर नाथ ’रेणु’ के जेल जाने की बात और स्वतन्त्रता की लड़ाई में दिए उनके योगदान याद क्यूं नहीं है।
हां! जहां-तहां इन लेखकों के बारे में कुछ सुनने को तो कुछ पढ़ने को मिल जाता है, मगर सही मायनों में इनके योगदान पर कोई विशेष पुस्तक दिखाई नहीं पड़ती। यह तो सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कई लेख लिखे गए, कई कविताएं लिखी गई, कई गीत रचे गए, मगर आज कोई यह जानने की कोशिश भी नहीं करता कि वह रचनाएं कहां हैं और उन्हें किसने लिखा था। जबकि सच्चाई यह है कि उन दिनों अंग्रेजों ने चार सौ से कहीं अधिक पुस्तकों को जब्त कर लिया था और कितने ही आलेखों, कविताओं आदि को आग के हवाले कर दिया था।
क्या यह विडंबना नहीं कि जहां एक तरफ साहित्यकारो के योगदान को हम भुलाए बैठे हैं, वहीं उनके साहित्य पर राजनेताओं द्वारा नाम और व्यापारियों द्वारा खुल कर पैसे बनाए जा रहे हैं, मगर जब्तशुदा साहित्य पर कोई काम, कोई शोध कार्य ना के बराबर है। जैसे; श्यामलाल गुप्त जी का ‘झण्डा गीत’ सबको पता है, मगर उन्हीं के ध्वज गीत के बारे में नई पीढ़ी को कुछ भी पता नहीं है…
राष्ट्र गगन की दिव्य ज्योति,
राष्ट्रीय पताका नमो-नमो।
भारत जननी के गौरव की,
अविचल शाखा नमो-नमो।।
आज कितने लोगों को मालूम है कि माधवराव सप्रे के बारे में, उनकी स्वतंत्रता संग्राम मे निभाई गई अग्रणी भूमिका के बारे में। वे जितने बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे, उतने ही प्रखर संपादक भी थे। इतना ही नहीं, वे लोक प्रहरी सुधी साहित्यकार थे, जिसकी वजह से उन पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ था। वे पहले व्यक्ति थे, जिनपर अंग्रेज़ी सरकार ने राजद्रोह का मुकदमा दायर किया था। आपने माखनलाल चतुर्वेदी का नाम तो सुना ही होगा, मगर क्या आप यह जानते हैं कि वे जेल भी गए थे और वो भी एक बार नहीं बारह बार। क्या आप यह जानते हैं कि उन्हत्तर बार उनके घर की तलाशी भी ली गई थी। जहां तक संभव है कि आप यह भी नहीं जानते होंगे कि यशपाल की शादी बरेली जेल में हुई थी और जेल में रह कर ही उन्होंने विश्व साहित्य का अध्ययन किया था। सुभद्रा कुमारी चौहान के साहित्य पर तो हजारों शोध हुए हैं, मगर उनकी जीवनी के बारे में कितनो को पता है, क्या नई पीढ़ी यह जानती है कि सत्रह वर्ष की अल्प आयु में ही वे गिरफ्तार हो गईं थीं, मगर उनकी आदत फिर भी ना बदली। पुनः विवाह के बाद अपने नाटककार पति लक्ष्मण सिंह के साथ जेल यात्रा पर चली गईं। कितनो के बारे में लिखूं, ऐसे सैकड़ों साहित्यकार और कवि हैं जिनके हजारों रोचक और दुर्लभ प्रसंग हैं, जिन्हें आज की पीढ़ी को जानना चाहिए।
साहित्य की दुनिया में ऐसे भी अनेकों नाम हैं जिन्होंने जेल यात्रा तो नहीं की थी लेकिन उन्होंने अपने लेखनी के माध्यम से जनमानस के अंतर्मन में आजादी की भावना पैदा की। जैसे; महावीर प्रसाद द्विवेदी, मुंशी प्रेमचंद, निराला, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि। अगर हम जयशंकर प्रसाद जी की बात करें तो राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र की चिंता उनके कलम में हमेशा रही है। उनके लिखे नाटकों को ही लें तो ‘कामना’ और ‘घूंट’ को छोड़कर उनके सभी नाटकों में, जैसे; ध्रुवस्वामिनी, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त आदि के केंद्र में देशप्रेम ही तो था। अगर आपको यह ऐतिहासिक नाटक लगता हो तो, आप उनकी लिखी कविता “अरुण यह मधुमय देश हमारा” भारतीय आत्मा को आंदोलित करने के लिए काफी था। मुंशी प्रेमचंद जी का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन नाम से आया था, जिसका शाब्दिक अर्थ देश का दर्द है। इसे और इसके लेखक दोनो को अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी। मैथिलीशरण गुप्त ने “भारत-भारती“ में देशप्रेम की भावना को ही सर्वोपरि माना है…
जिसको न निज गौरव तथा
निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है
और मृतक समान है।।
सोहन लाल द्विवेदी तो उनसे भी आगे जा कर कहते हैं, “हो जहाँ बलि शीश अगणित, एक सिर मेरा मिला लो।“ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने पराधीन राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत् करने के लिए अनेकों नाटकों और कविताओं की रचना की। ‘भारत दुर्दशा’ देशप्रेम पर आधारित उनकी एक नाट्य-कृति है…
रोअहुँ अब मिलि के आवहु भाई।
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥
माखनलाल चतुर्वेदी जी की कविताओं ने आज़ादी के दीवानों में अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फैंकने के लिए ऐसा असाधारण जोश भरा कि देश की युवा पीढ़ी अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए अभूतपूर्व रूप से तैयार हो गए…
मुझे तोड़ लेना बनमाली!
उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जायें वीर अनेक।।
दिनकर जी की ओजस्वी कविताओं में एक कविता है, ‘हिमालय के प्रति’ जिसकी हुंकार ने नौजवानों में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया था…
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव, विराट,
पौरुष के पुञ्जीभूत ज्वाल,
मेरी जननी के हिम किरीट,
मेरे भारत के दिव्य भाल।
आंदोलन के दौरान देशभक्ति की भावना को पैदा करने, उसे सम्हालने, लोगों को जोड़ने तथा स्वतंत्रता पूर्व लोगों के अंदर देशभक्ति की भावना को बनाए रखने के लिए भी अनेकों रचनाएं लिखीं हैं, जैसे; पंत जी ने “ज्योति भूमि, जय भारत देश।” कह कर भारत की आराधना की है। वहीं निराला भारत माँ की स्तुति करते हुए कहते हैं, “भारति जय विजय करे, कनक शस्य कमल धरे।” तो बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ विप्लव गान में कहते हैं…
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,
जिससे उथल-पुथल मच जाये
एक हिलोर इधर से आये,
एक हिलोर उधर को जाये
नाश ! नाश! हाँ महानाश! ! ! की
प्रलयंकारी आंख खुल जाये।
पं. श्याम नारायण पाण्डेय ने महाराणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ को आधार बनाकर देशसेवा, राष्ट्रभक्ति की अनुपम कृति “हल्दी घाटी” कविता की रचना की…
रणबीच चौकड़ी भर-भरकर,
चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से,
पड़ गया हवा का पाला था,
गिरता न कभी चेतक तन पर,
राणा प्रताप का कोड़ा था,
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर,
या आसमान पर घोड़ा था।।
यहां तक बात हुई व्यक्तिगत रचनाओं की, आजादी के यज्ञ वेदी पर संपादकों ने भी अपना सर्वस्व न्यौछावर किया था, उन्होंने अपने वर्षो की मेहनत से स्थापित अपनी पत्र पत्रिकाओं की आहुति उस यज्ञ कुंड में दी थी। द्विवेदी जी ने बीस वर्ष तक ‘सरस्वती’ निकाल कर जहां मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, गणेशशंकर विद्यार्थी, पंत, प्रसाद को स्थापित किया, वहीं ‘विशाल भारत’ ने अज्ञेय, जैनेन्द्र, हजारीप्रसाद द्विवेदी, दिनकर जैसे राष्ट्रवादी लेखकों से जनता की पहचान कराई। ‘मतवाला’ ने निराला, उग्र और शिवपूजन सहाय को संवारा तो ‘प्रताप’ ने माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन और विद्यार्थी जी जैसे नाम दिए। इसी श्रृंखला में सियाराम शरण गुप्त, अज्ञेय, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, रामनरेश त्रिपाठी, बद्रीनारायण चौधरी, श्रीधर पाठक, माधव प्रसाद शुक्ल, नाथूराम शर्मा, राधाचरण गोस्वामी, राधाकृष्ण दास, गया प्रसाद शुक्ल जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने अपनी कलम को राष्ट्र के नाम कर दिया। इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन में लेखकों और उनकी रचनाओं ने, संपादकों और उनके पत्र पत्रिकाओं ने आजादी की ऐसी चेतना फैलाई कि राष्ट्र स्वयं ही खड़ा हो गया, अपनी स्वतंत्रता पाने को। परंतु स्वार्थ पूर्ति के उपरांत अर्थात स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बामपंथिओं द्वारा साहित्य रत्नों को साहित्य पटल से धीरे धीरे गधे के सींग की तरह गायब करने की साजिश रची जाने लगी और वो कुछ हद तक सफल भी हुए और इसमें उनका साथ दिया इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए इमरजेंसी ने और उसके बाद तो मानो राष्ट्रवादी लेखकों का गला दबाने की रीत सी बन गई। देश को राजनैतिक आजादी भले मिल गई हो और देश को भले लगता हो कि उनका स्वप्न पूरा हो गया है, परंतु साहित्यकारों ने जो सपना देखा था अखंड भारत के आजादी का, वह कार्य अभी आधा अधूरा है।
विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’
महामंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, बक्सर