December 4, 2024

साझा संग्रह में प्रकाशित…

सनातन संस्कृति के मुख्यतः चार संप्रदाय हैं, वैदिक, वैष्णव, शैव और स्मार्त। शैव संप्रदाय के अंतर्गत ही शाक्त, नाथ और संत संप्रदाय आते हैं। नाथ संप्रदाय बौद्ध, शैव तथा योग की परम्पराओं का समन्वय है। यह हठयोग की साधना पद्धति पर आधारित पंथ है। ‘नाथ’ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। वैष्णवों में जिस तरह स्वामी का उपयोग किया जाता है उसी प्रकार शैवों में ‘नाथ’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे; अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि कई तीर्थस्थल इसी परम्परा के अधीन आते हैं।

परंपरा…

भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया, मगर भगवान शंकर के बाद इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम भगवान दत्तात्रेय का आता है। उन्होंने वैष्णव और शैव परंपरा में समन्वय स्थापित करने का कार्य किया। भगवान दत्तात्रेय को ही महाराष्ट्र में नाथ परंपरा का विकास करने का श्रेय जाता है। भगवान दत्तात्रेय के बाद सिद्ध संत गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने ‘नाथ·परंपरा’ को फिर से संगठित करके पुन: उसकी धारा अबाध गति से प्रवाहित करने का कार्य किया। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के बाद उनके शिष्य गुरु गोरखनाथ ने शैव धर्म की सभी प्रचलित धारणाओं और धाराओं को एकजुट करने नाथ परंपरा को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। अतः इस परंपरा में इन्हें ही नाथ संप्रदाय का संस्थापक माना जाता है। उनके शिष्यों की संख्या लाखों में थी, जिनमें हजारों उनके जैसे ही सिद्ध नाथ संत हुए जैसे; भर्तृहरि नाथ, नागनाथ, चर्पटनाथ, रेवणनाथ, कनीफनाथ, जालंधरनाथ, कृष्णपाद, बालक गहिनीनाथ योगी, गोगादेव, रामदेव, सांईंनाथ आदि।

गुरु गोरखनाथ साहित्य…

डॉ॰ पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल जी ने अत्यधिक परिश्रम के माध्यम से गुरु गोरखनाथ जी की रचनाओं का अनुसंधान और खोज कर संकलन और संपादन किया है, जो ‘गोरख बानी’ के नाम से प्रकाशित हुआ। उनकी खोज में निम्नलिखित ४० पुस्तकों का पता चला था। डॉ॰ पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल जी ने उन ४० पुस्तकों को भी जब बहुत छानबीन किया तो इनमें प्रथम १४ ग्रंथों को असंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चौंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परन्तु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया। जो निम्नवत हैं : सबदी, पद, शिष्यादर्शन, प्राण-सांकली, नरवै बोध, आत्मबोध, अभय मात्रा जोग, पंद्रह तिथि, सप्तवार, मंछिद्र गोरख बोध, रोमावली, ग्यान तिलक, ग्यान चौंतीसा, पंचमात्रा, गोरखगणेश गोष्ठी, गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध),

महादेव गोरखगुष्टि, शिष्ट पुराण, दया बोध, जाति भौंरावली (छंद गोरख), नवग्रह, नवरात्र, अष्टपारछ्या, रह रास, ग्यान-माला, आत्मबोध, व्रत, निरंजन पुराण, गोरख वचन, इंद्री देवता, मूलगर्भावली, खाणीवाणी, गोरखसत, अष्टमुद्रा, चौबीस सिद्ध, षडक्षरी, पंच अग्नि, अष्ट चक्र, अवलि सिलूक, काफिर बोध।

नाथ साहित्य…

भगवान शिव के उपासक नाथों के द्वारा एवम अन्य साहित्य मनीषियों द्वारा जो साहित्य रचा गया, वह नाथ साहित्य कहलाया।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने नाथ सम्प्रदाय को ‘सिद्ध मत’, ‘सिद्ध मार्ग’, ‘योग मार्ग’, ‘योग संप्रदाय’, ‘अवधूत मत’ एवं ‘अवधूत संप्रदाय’ के नाम से पुकारा है और वहीं राहुल संकृत्यायन ने नाथपंथ को सिद्धों की परंपरा का विकसित रूप माना है। अगर हम नाथ साहित्य के खोज को वर्गीकृत करें तो इसे हम दो भागों में विभक्त कर “नाथ परंपरा का भारतीय साहित्य पर प्रभाव” के साथ ही अपनी खोज को भी एक नई दिशा प्रदान कर सकते हैं…

(१) विभिन्न नाथ ग्रंथों के आधार पर

(२) समसामयिक दंतकथाओं के आधार पर

१. नाथ ग्रंथों के आधार पर…

नाथ परंपरा का उल्लेख विभिन्न क्षेत्र के ग्रंथों में जैसे – (क) योग (हठयोग), (ख) तंत्र (अवधूत मत या सिद्ध मत), (ग) आयुर्वेद (रसायन चिकित्सा), (घ) बौद्ध अध्ययन (सहजयान तिब्बती परम्परा ८४ सिद्धों में), (ड.) हिन्दी (आदिकाल के कवियों के रूप) में चर्चा मिलती हैं।

(क) यौगिक ग्रंथ : हठप्रदीपिका के लेखक स्वात्माराम और इस ग्रंथ के प्रथम टीकाकार ब्रह्मानंद ने हठ प्रदीपिका ज्योत्स्ना के प्रथम उपदेश में ५ से ९ वे श्लोक में ३३ सिद्ध नाथ योगियों की चर्चा की है। ये नाथसिद्ध कालजयी होकर ब्रह्माण्ड में विचरण करते हैं। इन नाथ योगियों में प्रथम नाथ आदिनाथ को माना गया है जो स्वयं शिव हैं जिन्होंने हठयोग की विद्या प्रदान की जो राजयोग की प्राप्ति में सीढ़ी के समान है।

(ख) तंत्र ग्रंथ : शाबर तंत्र में कपालिको के १२ आचार्यों की चर्चा है – आदिनाथ, अनादि, काल, वीरनाथ, महाकाल आदि जो नाथ मार्ग के प्रधान आचार्य माने जाते है। नाथों ने ही तंत्र ग्रंथो की रचना की है। मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, जालंधरनाथ नागार्जुन आदि ने ही तंत्रों का प्रचार किया है।

(ग) आयुर्वेद ग्रंथ : रसायन चिकित्सा के उत्पत्तिकर्ता के रूप प्राप्त होता है जिन्होंने इस शरीर रूपी साधन को जो मोक्ष में माध्यम है इस शरीर को रसायन चिकित्सा पारद और अभ्रक आदि रसायानों की उपयोगिता सिद्ध किया। पारदादि धातु घटित चिकित्सा का विशेष प्रवर्तन किया था तथा विभिन्न रसायन ग्रंथों की रचना की उपरोक्त कथन सुप्रसिद्ध विद्वान और चिकित्सक महामहोपाध्याय गणनाथ सेन ने लिखा है।

(घ) बौद्ध अध्ययन : राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में बौद्ध तिब्बती परम्परा के ८४ सहजयानी सिद्धों की चर्चा की है जिसमें से अधिकांश सिद्ध नाथसिद्ध योगी हैं जिनमें लुइपाद मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षपा गोरक्षनाथ, चैरंगीपा चैरंगीनाथ, शबरपा शबर आदि की चर्चा है जिन्हें सहजयानीसिद्धों के नाम से जाना जाता है।

(ड.) हिन्दी में नाथसिद्ध : हिन्दी साहित्य में आदिकाल के कवियों में नाथ सिद्धों की चर्चा मिलती है। अपभ्रंश, अवहट्ट भाषाओं की रचनाएं मिलती हैं जो हिन्दी की प्रारंभिक काल की हैं। इनकी रचनाओं में पाखंड़ों आडंबरो आदि का विरोध है तथा चित्त, मन, आत्मा, योग, धैर्य, मोक्ष आदि का समावेश मिलता है जो साहित्य के जागृति काल की महत्वपूर्ण रचनाएं मानी जाती हैं। जो जनमानस को योग की शिक्षा, जनकल्याण तथा जागरूकता प्रदान करने के लिए था।

२. समसामयिक दंतकथाओं के आधार पर…

(क) मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में भारत में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें लिखी हैं तथा इनके समसामयिक सिद्ध जालन्धरनाथ और कृष्णपाद के सम्बन्ध में भी अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं। जिन्हें गुरु गोरखनाथ और गुरु मत्स्येंद्रनाथ से संबंधित कहानियों को अनुसरण करने पर हमें कई बातें जानी जा सकती हैं।

प्रथम यह कि गुरु मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थे और दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे एवं तीसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे। चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

(१) सबसे पहले हम मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ पर बात करते हैं, वर्ष १९३४ में डॉ॰ प्रबोधचंद्र वागची ने कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ को संपादित किया था। यह संपादित ग्रंथ लिपिकाल को निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती थे।

(२) पहले हम सुप्रसिद्ध दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित। संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री कश्मीरी आचार्य श्री अभिनव गुप्त जी के बारे में जानते हैं। अभिनव गुप्त का जन्म वर्ष ९५० से ९७५ के मध्य हुआ था, उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति वर्ष १०१५ में लिखी थी और क्रम स्रोत की रचना वर्ष ९९१ में की थी। उन्होंने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ निश्चित तौर पर मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, साथ ही यह भी निश्चचित है कि मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।

(३) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में ८४ वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं, राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल ८०९-४९ ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर ८६।१। कार्डियर, पृ० २४७)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।

(४) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय १०६३ ई० – १११२ ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।

(५) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (८०९-८४९ ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।

(६) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चौलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् ९९३ की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में ९९८ संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।

(ख) गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज़’ कलकत्ता, १९३८ (ब्रिग्स) को आधार मानकर अगर हम चलें तो दंतकथाओं से संबंधित ऐतिहासिक व्यक्तियों का समय तकरीबन जाना हुआ ही रहता है। इनमें कितने ही ऐतिहासिक व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें हम गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य के रूप में मानते हैं। अतः उनके समय की सहायता से भी हम गोरखनाथ के समय का अनुमान लगा सकते हैं। ब्रिग्स ने इन दंतकथाओं पर आधारित काल को चार विभागों में बाँट लिया है…

(१) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चौदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य का माना जा सकता है।

(२) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल १२०० ई० के आगे ही जाएगा। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ १२०० ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पूर्व तो यह काल होना ही चाहिए।

(३) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल ८वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।

(४) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ ११०० ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते।

इस तरह हम देख सकते हैं कि नाथ परंपरा के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है। जिसमें भाषाओं और बोलियों की भी मुख्य भूमिका रही है, उनमें आपसी समझ और सहयोग का अभाव नजर आता है और कुछेक भाषाओं के छोड़कर नाथ साहित्य संपूर्ण भारतीय वांग्मय में प्राप्त होता है। वैसे दक्षिण भारत में नाथ साहित्य की रचना कम हुई है क्योंकि वहाँ शैव लोगों में शिव भक्त ही अधिक थे योगी नहीं।

विशेषताएँ…

१. इसमें ज्ञान निष्ठा को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया है।

२. इसमें मनोविकारों की निंदा की गई है।

३. नाथ साहित्य में सिद्ध साहित्य के भोग-विलास की भर्त्सना की गई है।

४. इस साहित्य में गुरु को विशेष महत्व प्रदान किया गया है।

५. इस साहित्य में हठयोग का उपदेश प्राप्त होता है।

कमजोरी की बात की जाए तो इसका रूखापन और गृहस्थ के प्रति अनादर का भाव इस साहित्य की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जा सकती है।

अश्विनी राय ‘अरूण’

महामंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, बक्सर

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