November 21, 2024

 

हर बार क्यूं वो आजादी की बात करते हैं,
बस पाए हुए का क्यूं वो हिसाब करते हैं।
जिसने देखा था कुछ और ही सपना,
उस हसरत को क्यूं यूंही बर्बाद करते हैं।।

हर साल आज के दिन टीस सी उठती है,
कभी तो चीख, कभी आह भी निकलती है।
बहाए थे खून उसने जिसके लिए,
अधूरे सपने को क्यूं हम सरताज कहते हैं।

खेला गया था एक दिन
आजादी का निर्मोही खेल,
भरा गया था, काटकर उस दिन
आजादी के परवानों से रेल।।

खेली गई थी, जब अस्मिता से होली,
काटे गए थे गले, मारी गई थी गोली।
खुशियां उस कलंक की तुम आज मनाते हो,
टुकड़े किए देश की आजादी क्यूं मनाते हो।।

किसी ने चाहा भी नहीं था, कभी
किसी ने मांगा भी नहीं था, कभी
बिखर गए थे, जिनके चहचाते घोंसले
आज वो भारत और पाकिस्तान में रहते हैं।

अभी तो सिर्फ आधी आजादी पाई है,
अभी तो उन टुकड़ों को भी मिलाना है।
परवानों ने, जो देखा था सपना,
हम उस आजादी की बात करते हैं।।

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

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