चलिए एक बार फिर से चलते हैं,
बचपन के किस्से में।
‘अंधेरा कायम रहे’ कहते,
किल्विस के अंधेरे किस्से में।
जब कभी किल्विस का अंधेरा छाता,
पत्रकार का बचपना हमें ना भाता।
उन दिनों जब टीवी पर शक्तिमान आता॥
उन दिनों रिमोट लेने की ना कोई लड़ाई थी,
और नाही चैनल बदलने की होती हाथापाई थी।
हम बच्चों में जो सबसे बड़ा था,
पलंग पर शान से पड़ा था।
जिसका घर और जिसकी टीवी होती थी,
वो तो कुर्सी लिए ही अड़ा था।
इतने में क्या बस होना था,
अजी हम भी शक्तिमान के दिवाने थे,
इसीलिए बाकी के बचे बंधुओं के साथ,
खिड़की पकड़े खड़ा था।
हाय जब मैं छोटा था।
किल्विस था बड़ा ही खतरनाक,
अंधेरा फैलाने चेले भेजता बार बार।
शक्तिमान से हार कर लौट जाता
वो हर बार॥
उनदिनों बिजली वालों की
कभी भी हम बच्चों से ना बनी
ठानने की औकात ना थी
फिरभी हमसे उनकी हर बार ठनी॥
जब भी देखने कभी बैठे टीवी,
किल्विस का प्रकोप वहां भी छाता।
येन केन प्राकेन सस्पेंस वाले मौके पर,
बिजली कटती और वो अंधेरा कर जाता॥
उस अंधेरे से निकालने को,
शक्तिमान कभी भी ना आता।
तब लगता की वो बड़ा खोटा था,
अजी जब मैं छोटा था॥
हाय जब मैं छोटा था॥
अश्विनी राय ‘अरुण’