November 24, 2024

आज हम ऐसे स्वतंत्रता सेनानी के बारे में बात करने जा रहे हैं, जिसे प्रकृति पुत्र कहा जाता था। उस महान क्रांतिकारी ने जंगलों के टीलों से स्वाधीनता की योजना का आरंभ किया था।

परिचय…

प्रकृति पुरुष, महान क्रांतिकारी अल्लूरी सीताराम राजू का जन्म ४ जुलाई, १८९७ को विशाखापट्टणम जिले के पांड्रिक नामक गांव में हुआ था। इनके पिताजी का नाम अल्लूरी वेंकट रामराजू था, उन्होंने सीताराम राजू को बाल अवस्था से ही क्रांतिकारी संस्कार दिए थे। उन्होंने अंग्रेज द्वारा किए गए सभी अत्याचारों का खुलकर विरोध किया था और वे सभी बातें बालक राजू पर गहरा प्रभाव छोड़ रही थीं। लेकिन अफसोस उनकी सीख अधूरी रह गई, पिता का साथ छूट गया। लेकिन बालक के मन में विप्लव पथ के बीज लग चुके थे। राजू का पालन·पोषण उसके चाचा अल्लूरी रामकृष्ण ने किया।

शिक्षा…

राजू ने स्कूली शिक्षा के साथसाथ निजी रुचि के तौर पर वैद्यक और ज्योतिष का भी अध्ययन किया, जिसे उसने व्यवहारिक अभ्यास में भी लगाए रखा। इसके कारण ही जब उसने युवावस्था में आदिवासी समाज को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित करना शुरू किया तो इन विधाओं की जानकारियों ने उसे अभूतपूर्व सहायता प्रदान की। जब वे युवावस्था में पहुंचे तो, आदिवासीयों को अंग्रेजों के शोषण के विरुद्ध संगठित करना शुरू कर दिया। जिसका आरंभ उन्होंने आदिवासीयों के उपचार व भविष्य की जानकारी देने के दौरान करने लगे। उन्होंने सीतामाई नामक पह़ाडी की गुफा में अध्यात्म साधना व योग क्रियाओं से अध्यात्मिक शक्तियों को विकसित किया। साधना के दौरान उन्होंने आदिवासीयों और गिरिजनों की प़ीडा को भी करीब से जाना।

प्रेरणा…

आदिवासी समाज स्वातंत्र्य प्रिय होते हैं, उन्हें किसी भी बंधन में बांधा नहीं जा सकता, इसलिए राजू ने सबसे पहले जंगलों से ही विदेशी आक्रांताओं एवं दमनकारियों के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत करने की प्रेरणा मिली।

बीरैयादौरा…

राजू के क्रांतिकारी साथियों में बीरैयादौरा का नाम विख्यात था। बीरैयादौरा का प्रारंभ में अपना अलग संगठन था। वह भी आदिवासीयों के एक संगठन का देशभक्त योद्धा था। जिसने पहले से ही अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था। यह कथा इतिहास के वर्ष १९१८ की पृष्ठ का हिस्सा है। बीरैयादौरा ने अंग्रेजी शासन को परेशान कर रखा था, परंतु एक दिन मुठभ़ेड में गिरफ्तार कर लिया गया और उसे जेल में बंद कर दिया गया, लेकिन वह जेल की दीवार कूदकर जंगलों में भाग गया और ब्रिटिश सत्ता से संग्राम जारी रखा। परंतु अफसोस की वह दोबारा पकड़ा गया और फिर से जेल भेज दिया गया। इस बार बीरैयादौरा को फांसी देने की तैयारी चल रही थी। परंतु उस समय तक सीताराम राजू का संगठन बहुत प्रबल हो चुका था। पुलिस राजू से थरथर कांपती थी। वह ब्रिटिश सत्ता को खुलेआम चुनौती देता था। बीरैयादौरा के लिए भी उसने अंग्रेज सत्ता को पहले से सूचना भिजवा दी थी, ‘मैं बीरैया को रिहा करवाकर रहूंगा। दम हो तो रोक लेना।’ वही हुआ। एक दिन की बात है, पुलिस बीरैया को हथक़डी·ब़ेडी से कस कर अदालत ले जा रही थी, उसी समय सीताराम राजू ने पुलिस टुक़डी पर धावा बोला दिया। दोनों तरफ से खूब गोलियां चलीं। इसी बीच मौका देखकर वह बीरैयादौरा को छ़ुडा ले गया। अंग्रेजी सत्ता के लिए राजू तथा बीरैया समस्या बन चुके थे, उनके छापे विफल होते रहे। अंग्रेजों ने इस बार एक चाल चली। उन्हें पक़डवाने के लिए अखबारों व इश्तहारों में दस हजार रूपए नगद इनाम का एलान किया। आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि १९२२ में यह धनराशि कितना बड़ा प्रलोभन था।

विप्लव पथ…

क्रांतिकारी राजू ने संगठन खड़ा करने के साथ ही साथ उत्तराखंड के क्रांतिकारियों से भी सम्पर्क किया। यही नहीं उन्होंने गदर पार्टी के नेता बाबा पृथ्वी सिंह को दक्षिण भारत के राज महेन्द्री जेल से छ़ुडाने की भरपूर कोशिश की मगर असफल हुए। सीताराम राजू का युद्ध गुरिल्ला पद्धति का होता था, वे अपनी योजनाओं को फलीभूत कर नल्लईमल्लई पहा़डयों में गायब हो जाते थे। गोदावरी नदी के पास की यह पहाड़ियां राजू व उनके साथियों के लिए आसरा और प्रशिक्षण केन्द्र दोनों ही थी। यहीं वे युद्ध के गुर सीखते, अभ्यास करते व आक्रमण की रणनीति तय करते। ब्रिटिश राजू से लगातार मात खाते रहे, आंध्र की पुलिस राजू के सामने व्यर्थ साबित हो चुकी थी। अंत में केरल की मलाबार पुलिस के दस्ते राजू पर लगाए गए, क्योंकि उन्हें पर्वतीय इलाकों में छापे मारने का अनुभव था। १२ अक्टूबर, १९२२ को नल्लईमल्लई की पहाड़ियों में ये दस्ते रवाना किए गए। यह दस्ता ऐसा था, जो किसी भी युद्ध में हारा नहीं था। इस बार इनका मुकाबला राजू से था, मलाबार पुलिस फोर्स से राजू की कई लड़ाइयां हुईं। इस बार मलाबार दस्तों को मुंह की खानी पड़ी।

६ मई, १९२४ को राजू के दल का मुकाबला सुसज्जित असम राइफल्स से हुआ, जिसमें उनके कई साथी शहीद हो गए। अब ईस्ट कोस्ट स्पेशल पुलिस उन्हें पहाड़ियों के चप्पेचप्पे में खोज रही थी। ७ मई, १९२४ को जब वे अकेले जंगल में भटक रहे थे, तभी उनकी खोज में वन पर्वतों को छानते फिर रहे फोर्स के किसी अफसर की नजर राजू पर पड़ी। पुलिस ने राजू पर पीछे से गोली चलाई, जिससे राजू जख्मी होकर वहीं गिर पड़े और गिरफ्तार कर लिए गए। गिरफ्तारी के बाद साथियों की जानकारी देने के लिए यातनाएं दी जाने लगीं।जब वे राजू से कुछ भी ना जान सके तो अंततः उस महान क्रांतिकारी को नदी किनारे ही एक वृक्ष से बांधकर गोलियों से भून दिया गया।

अपनी बात…

सीताराम राजू को अंग्रेजी शासन ने गोली से मारकर, यह समझा कि उन्होंने इस युद्ध को जीत लिया है। परंतु उनका यह सोचने गलत साबित हुआ। राजु अब एक व्यक्ति से बहुत आगे जा चुके थे। वे अब एक विचारधारा बन चुके थे। वे पूर्णतः सफल थे, उनके संघर्ष और क्रांति की सफलता का एक कारण यह भी था कि आदिवासी अपने नेता को धोखा देना, उनके साथ विश्वासघात करना नहीं जानते थे। कोई भी सामान्य व्यक्ति मुखबिर या गद्दार नहीं बना। आंध्र के रम्पा क्षेत्र के सभी आदिवासी राजू को भरसक आश्रय, आत्मसमर्थक देते रहते थे। स्वतंत्रता संग्राम की उस बेला में उन भोलेभाले गृहहीन, वस्त्रहीन व सर्वहारा समुदाय का कितना बड़ा योगदान था कि अंग्रेजों के कोड़े खाकर भी राजू को पकड़वाना उन्हें कभी स्वीकार नहीं रहा। यही कारण है कि आज भी गोदावरी पार रम्पा क्षेत्र में कोई भी विश्वास नहीं करता कि राजू कभी पकड़ा गया था और उसे ईस्ट कोस्ट स्पेशल पुलिस के चीफ कुंचू मेनन ने गोली मारी थी। इसीलिए आदिवासियों ने अपनी लड़ाई, आजादी तक जारी रखी।

क्रांतिकारी बीरैया को ब्रिटिश कैद से रिहा करा लेने के बाद राजू और बीरैया एकजुट हो गए। इस बीच दो अन्य क्रांतिकारी गाम मल्लू दौरा और गाम गन्टन दौरा भी राजू के दल से आ मिले। चारों ने संयुक्त छापेमारी के सिलसिले ऐसे चले कि अंग्रेज दमनकारी त्रस्त हो उठे। वे राजू का एक भी आदमी न तो मार सके न गिरफ्तार कर सके और राजू अनेक वर्षों तक अंग्रेज सत्ता को नाकों चने चबवाता रहा। राजू ने आंध्र क्षेत्र के हजारों नौजवानों में क्रांति की अलख जगाई थी। राजू के कहने पर नौजवान साथ खड़े हो जाते थे, जिसके ऐतिहासिक प्रमाण वर्ष १९२८ और १९२९ के आंध्र में तेलुगु में प्रकाशित साप्ताहिक अखबार कांग्रेस में मौजूद हैं। संपादक पदूरि अन्नपूर्णय्या ने लिखा है कि आंध्र के नौजवानों ने अगर किसी व्यक्ति के निर्देशन में अंग्रेजों से लड़ाई जारी रखी तो वह सीताराम राजू ही थे। अंग्रेजी शासन लगातार चिल्लाती रही थी कि राजू अब नहीं है, मगर वे जिंदा थे, जनता के मन में या सकुशल यह कोई कह नहीं सकता।

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1 thought on “अल्लूरी सीताराम राजू

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