November 21, 2024

चैतन्य महाप्रभु के जन्मकाल के कुछ पहले ‘सुबुद्धि राय’ गौड़ के शासक थे। उनके यहाँ हुसैन ख़ाँ नामक एक पठान नौकर काम करता था। राजा सुबुद्धिराय ने राजकार्य को सम्पादित करने के लिए उसे कुछ रुपए दिए थे। हुसैन ख़ाँ ने उस रकम को चुरा लिया। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैन ख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। इस बात से हुसैन ख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र पूर्वक राजा सुबुद्धिराय को पदच्युत कर हटा दिया। इस तरह हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा बन बैठा तथा सुबुद्धि राय उसका कैदी। हुसैन ख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैन ख़ाँ ने ऐसा नहीं किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती मुसलमान के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई हिन्दू सुबुद्धि राय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धि राय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैन ख़ाँ हुसैनशाह बन गया।

इस बाद को देखकर भी किसी हिन्दू राज-रजवाड़े ने कुछ भी ना बोला। धीरे धीरे हुसैनशाह का प्रभाव इतना बढ़ गया कि हिंदू समाज साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने लगे। परंतु अंदर आग जलती रही, जिसकी वजह से निरन्तर यत्र-तत्र विद्रोह हुआ करते थे। इस तरह राजा और प्रजा में सन्देहों भरा नाता पनप गया। वर्ष १४८० की बात है, नदिया का दुर्भाग्य होगा कि हुसैनशाह के कानों में बार-बार यह बात सुनाई जाती थी कि नदिया के ब्राह्मण अपने जन्तर-मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। लगातार एक ही बात सुनते-सुनते एक दिन हुसैनशाह चिढ़ उठा, उसने एक प्रबल मुसलमान सेना नदिया के ब्राह्मण समाज का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज दिया। नदिया और उसके आस-पास के ब्राह्मणों के गाँव-के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय अत्याचार किये। उनके मन्दिर, पुस्तकालय और सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया। परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया। हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड के झुण्ड ब्राह्मण परिवारों को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक़ न रखा। नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान् समय रहते हुए इधर-उधर भाग गये। परिवार बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जैसे तैसे जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था। तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं रहा। पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे। पाठशालाएँ चलती थीं, नदिया के नाम में अब भी कुछ असर बाक़ी था, मगर सब कुछ फीका पड़ चुका था। लोग सहमी खिसियाई हुई ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर संजीवनी सिद्ध हो रही थी। नदिया में इने-गिने लोग ऐसे भी थे जो ईश्वर और उसकी बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट और अपार प्रेम अर्पित कर रहे थे। परंतु वे कुछ ही थे जिन्हें खिसियाने पण्डितों ने शुद्ध वैष्णव को चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के पात्र बना दिये। चारों ओर मनुष्य के लिए हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था।

चैतन्य महाप्रभु का जन्म…

यह संयोग की बात है कि श्री गौरांग का जन्म पूर्ण चन्द्रग्रहण के समय हुआ था। उस समय नदी में स्नान कर व दबी जुबान में हरे राम, हरे कृष्ण का जाप करते नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो चुका है, जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी तो वह घुट-घुट कर जी रहा है, वह अपने धर्म को धर्म और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानी अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाता है। श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-आस्था को मुक्त किया।

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