April 29, 2024

आज हम बात करने वाले हैं, भक्तिकाल के एक प्रमुख संत के बारे में, जिन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी तथा भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में हिन्दू-मुस्लिम एकता की सद्भावना के साथ जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृन्दावन को फिर से बसाया और अपने जीवन के अंतिम भाग को वहीं व्यतीत किया। जी हां हम कर रहे हैं, विश्वम्भर मिश्र, श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र, निमाई, गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर यानी चैतन्य महाप्रभु के बारे में…

परिचय…

चैतन्य महाप्रभु का जन्म १८ फरवरी, १४८६ की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब ‘मायापुर’ कहा जाता है। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें ‘निमाई’ कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें ‘गौरांग’, ‘गौर हरि’, ‘गौर सुंदर’ आदि भी कहते थे। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व माँ का नाम शचि देवी था।

परिवार…

चैतन्य के पिता सिलहट के रहने वाले थे। वे नवद्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये और वहीं पर शची देवी से उनका विवाह हुआ। एक के बाद एक उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं। किंतु ये सभी कन्याएँ मृत्यु को प्राप्त हो गईं। बाद में जगन्नाथ मिश्र को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्वरूप जब दस वर्ष का हुआ, तब उसके एक भाई और हुआ। माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं कि यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरुष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु के नाम से विख्यात हुआ। बालक का नाम विश्वंभर रखा गया था। माता-पिता उसे प्यार से ‘निमाई’ कहकर पुकारते थे। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम आयु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। उन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। १५·१६ वर्ष की अवस्था में उनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ, परंतु सर्पदंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने के लिए इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब निमाई किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।

श्रीकृष्ण भक्ति…

वर्ष १५०१ में जब चैतन्य अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां उनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से ‘कृष्ण-कृष्ण’ रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। इन्होंने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरिनाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।

चैतन्य महाप्रभु…

हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण,

कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे।

हरे-राम, हरे-राम,

राम-राम, हरे-हरे॥

यह अठारह शब्दीय यानी ३२ अक्षरीय कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है। इसे ‘तारकब्रह्ममहामंत्र’ कहा गया, व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था। जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। वर्ष १५१० में संत प्रवर श्रीपाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। मात्र २४ वर्ष की आयु में ही इन्होंने गृहस्थ आश्रम का त्याग कर सन्यास ग्रहण किया। बाद में ये चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रख्यात हुए।

महाप्रभु का प्रभाव…

उन्होंने ‘अचिन्त्य भेदाभेदवाद’ का प्रवर्तन किया, किन्तु प्रामाणिक रूप से इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। इनके कुछ शिष्यों के मतानुसार ‘दशमूल श्लोक’ इनके रचे हुए हैं। अन्य सम्प्रदायों के प्रवर्तकों ने अपने मत की पुष्टि के लिए भाष्य और अन्य ग्रन्थ लिखे हैं, जबकि चैतन्य ने ब्रह्मसूत्र, गीता आदि पर कोई भी भाष्य नहीं लिखा है। यह आश्चर्यजनक की बात है कि भाष्य आदि की रचना न करने पर भी महाप्रभु चैतन्य को एक बड़े भारी सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना गया। यह सम्भवत: इस कारण सम्भव हुआ कि इनका मत अत्यधिक भावात्मक रहा, अत: उसको आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो गया। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि चैतन्य महाप्रभु का आचार्यात्व शास्त्र विश्लेषण पर उतना आधारित नहीं, जितना कि उनके व्यावहारिक प्रभाव पर आधारित रहा। इनके उत्तरवर्ती शिष्यों ने उस शास्त्रीय आधार के अभाव की भी पूर्ति कर दी, जो भाष्य की रचना न करने के कारण इस सम्प्रदाय में चल रहा था। भक्ति को आधार बनाकर चैतन्य ने यथापि कोई नई परम्परा नहीं चलाई, फिर भी भावविह्लता का जितना पुट चैतन्य ने भक्ति में मिलाया, उतना किसी अन्य ने नहीं।

वल्लभाचार्य आदि ने धर्म के और भक्ति के विधानात्मक पक्ष को महत्त्व दिया था, जबकि चैतन्य ने भावात्मक पक्ष को प्रश्रय दिया। चैतन्य की विचारधारा पर पांचरात्र साहित्य, भागवत, पुराण तथा गीत गोविन्द का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। विभिन्न रूपों में प्रचलित और लिपिबद्ध कृष्ण की कथा ने उनके व्यक्तित्व को भीतरी भाग तक अवश्य ही छुआ होगा। यों तो सारा भारत ही चैतन्य से प्रभावित हुआ, किन्तु पश्चिम बंगाल का जनजीवन तो उनकी विचारधारा के साथ आमूलचूल एकाकार हो गया। फलस्वरूप न केवल हिन्दू अपितु तत्कालीन मुसलमान भी उनके मत से प्रभावित हुए बिना न रह सके। भक्ति भावना के अपेक्षाकृत ह्रास के बावजूद अब भी चैतन्य का प्रभाव समाज में लगातार अक्षुण्ण बना हुआ है। महाप्रभु की प्रभुता बढ़ाने और बनाए रखने में उनकी सुन्दरता, मृदुता, साहसिकता, सूझबूझ, विद्वत्ता और शालीनता का बड़ा हाथ रहा है।

अंत में…

महाप्रभु चैतन्य के विषय में वृन्दावनदास द्वारा रचित ‘चैतन्य भागवत’ नामक ग्रन्थ में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण कृष्णदास जी ने १५९० में ‘चैतन्य चरितामृत’ शीर्षक से लिखा था। जिसके अनुसार उनका महाप्रयाण वर्ष १५३४ को उड़ीसा के पूरी में हुआ था।

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