आज १२ जनवरी है, स्वामी विवेकानन्द जी की जयंती!
स्वामी जी के अध्यात्म की ऊंचाइयों को कौन ऐसा है, इस जग में जो नहीं जानता। १८९३ में उन्होंने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में दुनिया को हिंदुत्व और आध्यात्म का पाठ पढ़ाया था। यहां उन्होंने भारतीय संस्कृति और भारतीय ज्ञान से दुनिया को रुबरू करवाया था।
मगर माफ कीजिए दोस्तों हम यहां स्वामी जी के विषय में चर्चा नहीं करने वाले, क्यूंकि आज सारे अखबार, सारे चैनल्स, मिडिया के सारे साधन, सभी संस्थाएं आदि स्वामी जी पर ही चर्चा करेंगे तो हम आज क्या खास कर लेंगे।
हम आज चर्चा करने वाले हैं, एक ऐसे प्रमुख शिक्षाशास्त्री, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, दार्शनिक एवं कई संस्थाओं के संस्थापक के बारे में जो स्वामी जी से उम्र में पांच या छः साल ही छोटे थे मगर ज्ञान कहीं से भी कम नहीं था, इसका सीधा प्रमाण तो यही है की स्वामी जी इनसे अध्यात्म पर चर्चा करने स्वयं कलकत्ता से बनारस आए थे और जिनके एक इशारे मात्र से ही काशी नरेश स्वामी जी के सहायता हेतू तत्पर हो गए थे।
अब आप सोच रहे होंगे की वो कौन है जो स्वामी जी के तुलना के योग्य है… जी तो वो हैं…
डाक्टर भगवान दास जी
इनका जन्म १२ जनवरी १८६९ में वाराणसी में हुआ था। वे एक समृद्ध परिवार के सदस्य थे। इन्होने उत्तरप्रदेश के विभिन्न जिलों में मजिस्ट्रेट के रूप में सरकारी नौकरी करते रहे मगर अंतरात्मा इसकी गवाही नहीं दे रहा था तो इन्होने नौकरी छोड़ दी।
भगवान दास जी ने डॉक्टर एनी बेसेन्ट के साथ मिलकर व्यवसायिक उद्देश्य हेतू एक संस्थान की स्थापना की, मगर यह भी उनकी आत्मा को रास नहीं आया। उन्होने उस संस्थान को शिक्षा के प्रसार के लिए बदल कर
सेन्ट्रल हिन्दू कालेज के रूप में स्थापित कर दिया।
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी के द्वारा सन् १९१६ में वसंत पंचमी के पुनीत दिवस पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। मगर दस्तावेजों के अनुसार इस विश्वविद्यालय की स्थापना मे मदन मोहन मालवीय जी का योगदान केवल सामान्य संस्थापक सदस्य के रूप मे था, क्यूंकि भगवान दास जी एवं डॉक्टर एनी बेसेन्ट का वही व्यवसायिक संस्थान जो बाद में सेन्ट्रल हिन्दू कालेज के रूप में स्थापित हुआ था, बाद में दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह के सहयोग से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्तित हो गया।
डॉ॰ भगवान दास जी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक-सदस्यों में से एक थे। उन्होने १९२१ मे बनारस में ही काशी विद्यापीठ नामक एक अन्य शिक्षण संस्थान की स्थापना की, जहां १९२१ से १९४० तक उसके कुलपति बने रहे।
असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्होने घर से अलग काशी विद्यापीठ में एकांतवास करके अपनी कारावास की अवधि पूरी की। १९३५ में BHU एवं विद्यापीठ के साथ अन्य सात भारत की केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा से त्यागपत्र दे दिया और एकांत रूप से दार्शनिक चिंतन एवं भारतीय विचारधारा की व्याख्या में संलग्न हो गए।
दर्शन, मनोविज्ञान, धर्मविज्ञान एवं वैयक्तिक सामाजिक संगठन पर आधारित हिन्दी और संस्कृत मे ३० से भी अधिक पुस्तकों का लेखन किया है।
‘अहं एतत् न’ अर्थात मैं-यह-नहीं पर जो दर्शन उन्होने संसार को दिया है, श्री कृष्ण दर्शन के बाद विश्व का सबसे उच्चतम दर्शन है। आज विश्व के तकरिबन सभी विश्वविद्यालयों में यह दर्शन पढ़ाया जाता है। नासा आदि संस्थान इस पर शोध कर रहे हैं।
मनोविज्ञान में डॉ॰ भगवानदास का नाम आवेगों अथवा रागद्वेष के परंपरित वर्गीकरण के लिए स्मरण किया जाता है।
डॉ॰ भगवान्दास ने तटस्थ रूप से धर्मो का वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। उनके मत से सभी धर्मो के उसूल एक हैं। सभी धर्मो में यह माना गया है कि परमात्मा सबके हृदय में आत्मा रूप से मौजूद है तथा उन्होने सभी धर्मो के अनुयायियों की नासमझी में भी समता दिखाई है, जैसे मेरा मजहब सबसे अच्छा है आदि आदि।
अब हम उनके चौथे विषय पर आते हैं, जो वैयक्तिक सामाजिक संगठन पर आधारित है।
परमात्मा के स्वभाव से, प्रकृति से उत्पन्न तीन गुण हैं, सत्व, रजस् एवं तमस ही ज्ञान, क्रिया और इच्छा के मूलतत्व या बीज हैं मगर डाक्टर साहब के विचारानुसार तीन प्रकृति के मनुष्य होते हैं…
ज्ञानप्रधान, पोषक, संग्रही; मगर इनके अलावा भी एक चौथी प्रकृतिभी हैं “बालकबुद्धि’ जिसमें किसी एक गुण की प्रधानता, विशेष विकास, न देख पड़े “गुणसाम्य’ हो।
माफ कीजिएगा मित्रों अगर डॉक्टर साब पर हम और चर्चा करने चलें तो, यह चर्चा कितनी लंबी हो जाएगी इसका कोई अंदाजा हमें नहीं है, अतः चर्चा को विराम देते हुए, एक बात आपको बता देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ की १९५५ में भारत के प्रथम राष्ट्रपति श्री डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी ने डॉक्टर साब को भारत रत्न से सम्मानित कर के स्वयं को सम्मानित महसूस किया था।
मैं अश्विनी राय ‘अरुण’ डॉक्टर श्री भगवान दास जी को बारम्बार नमन करता हूँ।
धन्यवाद !