December 4, 2024

पद्मश्री, वेदरत्न, महर्षि वाल्मीकि सम्मान, राष्ट्रपति सम्मान आदि जैसे सम्मानों से विभूषित एवं वेद, वेदाङ्ग, संस्कृत व्याकरण एवं भाषाविज्ञान के अप्रतिम विद्धान डॉ. कपिलदेव द्विवेदी जी का जन्म १६ दिसम्बर, १९१८ को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के बारा (बारे, बिहार के बक्सर जिला अंतर्गत प्रसिद्घ चौसा के निकट यानी कर्मनाशा नदी के पार) में एक प्रतिष्ठित परिवार के श्री बलरामदास जी और माता श्रीमती वसुमती देवी के यहां हुआ था। पिता जी त्यागी, तपस्वी समाजसेवी थे जिन्होने अपना पूरा जीवन देश सेवा में लगाया। बाबा यानी दादाजी श्री छेदीलाल जी प्रसिद्ध उद्योगपति थे।

कपिल देव जब चौथी कक्षा पास हो गए तब अध्ययन के लिए उन्हें १० वर्ष की अल्प आयु में ही गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर, हरिद्वार में संस्कृत की उच्च शिक्षा के लिए भेजा गया। जहां उन्होंने वर्ष १९२८ से १९३९ तक गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की। गुरुकुल में रहते हुए उन्होंने शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की और गुरुकुल की उपाधि विद्याभास्कर प्राप्त हुई। सभी परीक्षाओं में उन्होंने प्रथम श्रेणी प्राप्त की। यहाँ रहते हुए उन्होंने दो वेद (यजुर्वेद और सामवेद ) कंठस्थ किए और उसके परिणामस्वरूप गुरुकुल से द्विवेदी की उपाधि प्रदान की गई।गुरुकुल में रहते हुए बंगला और उर्दू भाषा भी सीखी। साथ ही उन्होंने भारतीय व्यायाम, लाठी, तलवार, युयुत्सु और पिरामिड बिल्डिंग आदि की शिक्षा भी प्राप्त की। साथ ही वहां रहते हुए वर्ष १९३९ में स्वतंत्रता संग्राम के अंग हैदराबाद आर्य-सत्याग्रह आन्दोलन में ६ मास कारावास में भी रहे।

पूर्ण परिचय…

वर्ष १९४६ में पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से प्रथम श्रेणी में प्रथम रहते हुए एमए संस्कृत की परीक्षा उत्तीर्ण की। वहीं से एमओएल की उपाधि भी प्राप्त हुई। तदनन्तर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में डॉ० बाबूराम सक्सेना के निर्देशन में भाषा विज्ञान विषय में वर्ष १९४९ में डीफिल् की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से व्याकरण विषय में आचार्य की उपाधि प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम रहते हुए उत्तीर्ण की। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आचार्य डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में प्रथम श्रेणी में एमए (हिन्दी) की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। साथ ही उन्होंने अनेक भाषाओं में विशेष योग्यता प्राप्त की। प्रयाग विश्वविद्यालय से जर्मन, फ्रेंच, रूसी, चीनी आदि भाषाओं में प्रोफिसिएन्सी परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके अतिरिक्त पालि, प्राकृत, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी और उर्दू में भी उनकी विशेष दक्षता प्राप्त थी।

नारायण स्वमी हाईस्कूल रामगढ नैनीताल से शिक्षण कार्य आरम्भ किया। तदन्तर सेंट एण्ड्रयुज कालेज, गोरखपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे। नवम्बर १९५४ से १९६५ तक डीएसबी राजकीय महाविद्यालय नैनीताल में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे। वर्ष १९६५ में नैनीताल से ज्ञानपुर (भदोही) आये। काशी नरेश राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय ज्ञानपुर में संस्कृत विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य पद पर वर्ष १९७७ तक कार्य किया। राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय गोपेश्वर से प्राचार्य पद पर कार्य करते हुए यहीं से अवकाश प्राप्त हुए। उन्होंने ज्ञानपुर को अपनी कर्मभूमि बनाया और यही बस गये। वर्ष १९८० से १९८२ तक गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के कुलपति रहे। आपने ज्ञानपुर में विश्वभारती अनुसन्धान परिषद की स्थापना की और उसके निदेशक रहे।

वर्ष १९५३ में उनका विवाह चन्दौसी निवासी श्री रामशरणदास जी की पुत्री ओमशान्ति से हुआ। जिनसे उन्हें पाँच पुत्र और दो पुत्रियाँ प्राप्त हुए।

उन्होंने संस्कृत और भारतीय संस्कृति की पताका फहराने के लिए अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड, जर्मनी, हालैण्ड, फ्रान्स, इटली, स्वीटजरलैण्ड, सूरीनाम, गुयाना, मारीशस, कीनिया, तंजानिया और सिंगापुर आदि देशों की कई बार यात्रा की।

ग्रन्थलेखन…

डा. कपिलदेव द्विवेदी जी ने ३५ वर्ष की अवस्था से ही ग्रन्थों का लेखन कार्य आरम्भ कर दिया था और देहान्त के एक वर्ष पूर्व तक निरन्तर लेखन कार्य करते रहे। उन्होंने ८० से अधिक ग्रन्थो की रचना की। उत्कृष्ठ रचनाओं से उन्होंने संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया और अनेक सम्मान और पुरस्कारों से अलंकृत हुए।

उनकी कृतियां से ५ लाख से भी अधिक व्यक्ति संस्कृत भाषा सीख चुके है। ये ग्रन्थ आज भी संस्कृत भाषा के प्रचार और प्रसार के महत्वपूर्ण माध्यम है। उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक वेदामृत ग्रन्थमाला ४० के माध्यम से वेदों के दुरूह ज्ञान को सरल बनाकर सामान्य जन तक पहुचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। ज्ञानपुर की धरती पर रहकर आपने अपनी कृतियो के साथ ज्ञानपुर को भी अमर कर दिया है।

रचनाएँ…

१. संस्कृत व्याकरण
२. संस्कृत व्याकरण और लघुसिद्धान्त कौमुदी
३. अर्थविज्ञान और व्यकरण-दर्शन
४. वेदों में विज्ञान
५. वेदों में आयुर्वेद
६. वेदों में राजनीतिशास्त्र
७. संस्कृत निबन्ध शतकम्
८. राष्ट्र गीताञ्जलिः
९. भक्ति कुसुमाञ्जलिः
१०.अथर्व वेद का सांस्कृतिक अध्ययन
११.आत्मविज्ञानम्
१२.अथर्ववेद का सांस्कृतिक अध्ययन
१३.अभिनन्दन भारती एवं संस्कृत वाङ्मय में पर्यावरण चेतना
१४.ए कल्चरल स्टडी आफ द अथर्ववेद
१५.गीतांजलिः
१६.जयतु सुरभारती
१७.द एसेन्स आफ द वेदाज
१८.देववाणी-वैभव
१९.नाट्यशास्त्र में आङ्गिक अभिनय
२०.प्रसाद के काव्यों में वक्रोक्ति-सिद्धान्त
२१.वेदामृतम् भाग १- सुखी जीवन
२२.वेदामृतम् भाग १० – सामवेद सुभाषितावली
२३.वेदामृतम् भाग ११ – अथर्ववेद सुभाषितावली
२४.वेदामृतम् भाग १२ – ऋग्वेद-सुभाषितावली
२५.वेदामृतम् भाग २- सुखी गृहस्थ
२६.वेदामृतम् भाग ३- सुखी परिवार
२७.वेदामृतम् भाग ४- सुखी समाज
२८.वेदामृतम् भाग ६- नीति-शिक्षा
२९.वेदामृतम् भाग ७- वेदों में नारी
३०.वेदामृतम् भाग ८- वैदिक मनोविज्ञान
३१.वेदामृतम् भाग ९- यजुर्वेद सुभाषितावली
३२.वेदामृतम्- आचार शिक्षा
३३.वेदों में लोक-कल्याण
३४.वेदों में समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और शिक्षाशास्त्र
३५.वैदिक कोशः
३६.वैदिक दर्शन
३७.वैदिक देवों का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक स्वरूप
३८.वैदिक संध्या एवं अग्निहोत्र
३९.शर्मण्याः प्राच्यविदः
४०.संस्कृत-कवि-हृदयम् संस्कृत काव्य-ग्रन्थ
४१.सारस्वत साधना के मनीषी एवं संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान
४२.स्मृतियों में नारी
४३.स्मृतियों में राजनीति और अर्थशास्त्र

सम्मान एवं पुरस्कार…

देश-विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा आपको दो दर्जन से अधिक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।

संस्कृत साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए आपको भारत सरकार ने वर्ष १९९१ में ‘पद्मश्री’ अलंकरण से विभूषित किया।

भारतीय विद्याभवन बंगलौर द्वारा गुरु गंगेश्वरानन्द वेदरत्न पुरस्कार (२००५)

दिल्ली संस्कृत अकादमी द्वारा महर्षि वाल्मीकि सम्मान (२०१०-२०११)

भारत सरकार द्वारा १५ अगस्त २०१० को संस्कृत भाषा की सेवा के लिए राष्ट्रपति सम्मान

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