December 3, 2024

“ग़ालिब” बुरा न मान जो वैज बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहे जिसे।

ग़ालिब और असद नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था कि दुनिया में यूं तो बहुत से अच्छे कवि-शायर हैं, लेकिन अपनी तो कोई और बात है;

“हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”

और सच में उनकी शैली सबसे निराली है…

पूछते हैं वो की ‘ग़ालिब’ कौन है ?
कोई बतलाओ की हम बतलायें क्या

नहीं जनाब आप क्यूँ बताएंगे हम हैं ना आप का परिचय देने के लिए… ग़ालिब का जन्म आगरा में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। उन्होने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, ग़ालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था (वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी थे)। ग़ालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन् १७५० के आसपास भारत आए थे। उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गये। उनके दो पुत्र व तीन पुत्रियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके दो पुत्र थे। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग (गालिब के पिता) ने इज़्ज़त-उत-निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर में रहने लगे। उन्होने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ काम किया। १८०३ में अलवर में एक युद्ध में उनकी मृत्यु के समय गालिब मात्र ५ वर्ष के थे।

नादान हो जो कहते हो क्यों जीते हैं “ग़ालिब”,
किस्मत मैं है मरने की तमन्ना कोई दिन और।

जब ग़ालिब छोटे थे तो एक नव-मुस्लिम-वर्तित ईरान से दिल्ली आए थे और उनके सान्निध्य में रहकर ग़ालिब ने फ़ारसी सीखी।उन्होंने फारसी और उर्दू दोनो में पारंपरिक गीत काव्य की रहस्यमय-रोमांटिक शैली में सबसे व्यापक रूप से लिखा और यह गजल के रूप में जाना जाता है।

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई,
दोनों को एक अदा में रजामंद कर गई।

मारा ज़माने ने ग़ालिब तुम को,
वो वलवले कहाँ, वो जवानी किधर गई॥

१३ वर्ष की आयु में उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था। विवाह के बाद वह दिल्ली आ गये थे जहाँ उनकी तमाम उम्र बीती। अपने पेंशन के सिलसिले में उन्हें कोलकाता कि लम्बी यात्रा भी करनी पड़ी थी, जिसका ज़िक्र उनकी ग़ज़लों में जगह–जगह पर मिलता है।

ख्वाहिशों का काफिला भी अजीब ही है ग़ालिब,
अक्सर वहीँ से गुज़रता है जहाँ रास्ता नहीं होता।

मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” का जन्म आज ही के दिन यानी २७ दिसंबर, १७९६ को हुआ था। वे उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है। यद्दपि इससे पहले के वर्षो में मीर तक़ी अर्थात “मीर” को भी इसी वजह से जाना जाता है। ग़ालिब के लिखे पत्र, जो उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, उनको भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है। उन्हे दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला।

क़ासिद के आते-आते खत एक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में।

मैं अश्विनी राय ‘अरूण’ इस महान शायर को उनकी ही कुछ पंक्तियो से याद करता हूँ और उन्हें नमन करता हूँ…

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल के खुश रखने को “ग़ालिब” यह ख्याल अच्छा है।

निकलना खुद से आदम का सुनते आये हैं लकिन,
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी की,
हर ख्वाहिश पे दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान,
लेकिन फिर भी कम निकले!॥

वो आये घर में हमारे, खुदा की कुदरत है,
कभी हम उन्हें कभी अपने घर को देखते है।

पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के, ग़ालिब,
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है।

हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया, पर याद आती है,
जो हर एक बात पे कहना की यूं होता तो क्या होता।

इश्क़ पर जोर नहीं, यह तो वो आतिश है, ग़ालिब,
के लगाये न लगे और बुझाए न बुझे।

और अंत में…

लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब”,
हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है।

धन्यवाद !

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