आचार्य गिरिराज किशोर जी का जन्म ४ फ़रवरी, १९०२ को उत्तरप्रदेश के मिसौली नामक गांव के रहने वाले श्री श्यामलाल जी एवं श्रीमती अयोध्या देवी जी के मंझले पुत्र के रूप में हुआ था। उनकी शुरुवाती पढ़ाई हाथरस और अलीगढ़ में तथा उच्च माध्यमिक शिक्षा आगरा से हुई। जहां उनकी मुलाकात पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्री भव जुगादे से हुई। और यही थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी उनकी पहली मुलाकात जो उनके अंतर्मन में इस तरह पैठ कर गया की १३ जुलाई, २०१४ को ९६ वर्ष की उम्र में निधन से पूर्व तक आत्मसात रहा। उन्होंने संघ के लिए ही अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया।

आचार्य जी प्रचारक थे अतः मैनपुरी, आगरा, भरतपुर, धौलपुर आदि स्थान उनके कार्यक्षत्र में रहे। वर्ष १९४८ में जब संघ पर प्रतिबंध लगा तो उन्हें भी अन्य स्वयंसेवकों की भांति जेल में बंद कर दिया गया, १३ महीने तक वे बारी बारी से मैनपुरी, आगरा, बरेली तथा बनारस की जेल में बंद रहे। वहां से छूटने के बाद संघ कार्य के साथ ही आचार्य जी ने स्नातक की शिक्षा तथा इतिहास, हिन्दी व राजनीति शास्त्र में एमए की शिक्षा पूर्ण की। इसके अलावा साहित्य रत्न और संस्कृत की प्रथमा परीक्षा भी उन्होंने उत्तीर्ण कर ली। वर्ष १९४९ से १९५८ तक वे उन्नाव, आगरा, जालौन तथा उड़ीसा में प्रचारक रहे। यही वह समय था जब उनके परिवाजनों पर विपदा का पहाड़ गिर पड़ा, उनके छोटे भाई वीरेन्द्र की आकस्मात मृत्यु हो गयी। ऐसे में परिवार की आर्थिक दशा बिगड़ने लगी, अतः उन्हें संभालने हेतु वे भिण्ड (म.प्र.) के अड़ोखर कॉलेज में सीधे प्राचार्य बना दिये गये।

आचार्य जी की रुचि सार्वजनिक जीवन में अधिक थी, इसलिए उन्हें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और फिर संगठन मंत्री बनाया गया। नौकरी छोड़कर वे विद्यार्थी परिषद को सुदृढ़ करने लगे। उनका केन्द्र दिल्ली था। उनकी देख रेख में दिल्ली विश्वविद्यालय में पहली बार विद्यार्थी परिषद ने अध्यक्ष पद जीता। फिर आचार्य जी को जनसंघ का संगठन मंत्री बनाकर राजस्थान भेजा गया। आपातकाल के दौरान एक बार फिर से उन्हें १५ माह तक भरतपुर, जोधपुर और जयपुर जेल में रहना पड़ा।

वर्ष १९७९ में मीनाक्षीपुरम कांड ने पूरे देश में हलचल मचा दी। जहां गांव के सभी तकरीबन ३,००० हिन्दू एक साथ मुसलमान बना दिए गए। तात्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सामाजिक बहिष्कार से डरकर डॉ॰ कर्णसिंह को कुछ करने को कहा। जिन्होंने संघ से मिलकर ‘विराट हिन्दू समाज’ नामक संस्था बनायी। संघ की ओर से श्री अशोक सिंहल और आचार्य जी को इस काम में लगाया गया। दिल्ली तथा देश के अनेक भागों में विशाल कार्यक्रम हुए; पर धीरे-धीरे संघ के ध्यान में आया कि डॉ॰ कर्णसिंह और इंदिरा गांधी इससे अपनी राजनीति साधना चाहते हैं। अतः संघ ने हाथ खींच लिया। ऐसा होते ही वह संस्था जिस नियत से बनी थी उसी प्रकार बैठ गई। इसके बाद अशोक जी और आचार्य जी को विश्व हिन्दू परिषद के काम में लगा दिया गया।

वर्ष १९८० के बाद इन दोनों के नेतृत्व में विहिप ने अभूतपूर्व काम किये। संस्कृति रक्षा योजना, एकात्मता यज्ञ यात्रा, राम जानकी यात्रा, रामशिला पूजन, राम ज्योति अभियान, राममंदिर का शिलान्यास और फिर छह दिसम्बर को बाबरी ढांचे के ध्वंस आदि ने विश्व हिन्दू परिषद को नयी ऊंचाइयां प्रदान कीं। आज विश्व हिन्दू परिषद गोरक्षा, संस्कृत, सेवा कार्य, एकल विद्यालय, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, पुजारी प्रशिक्षण, मठ-मंदिर व संतों से संपर्क, परावर्तन आदि आयामों के माध्यम से विश्व का सबसे प्रबल हिन्दू संगठन बन गया है।

विश्व हिन्दू परिषद के विभिन्न दायित्व निभाने के लिए आचार्य जी इंग्लैंड, हालैंड, बेल्जियम, फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, रूस, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, इटली, मारीशस, मोरक्को, गुयाना, नैरोबी, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, सिंगापुर, जापान, थाइलैंड आदि देशों की यात्रा पर गए। इस समय तक वे काफी वृद्ध हो चुके थे। वृद्धावस्था के कारण उन्हें अनेकों रोगों ने घेर लिया था मगर वे सब मिलकर भी उनकी सक्रियता को ना रोक पाए।

About The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *