क्या हम लोगों ने कभी हिन्दी साहित्य के विकास में अहिन्दी भाषी भारतीय विद्वानों के योगदान पर गम्भीरतापूर्वक सोचा है? खासकर बंगाल और बांग्ला भाषा से संबंधित विद्वानों के योगदान को लेकर। आइए आज हम इनमे से एक विद्वान आचार्य क्षितिमोहन सेन की बात करते हैं…
आचार्य सेन ने अपने साहित्य दर्शन में मध्यकाल और कबीर को लेकर काफी कुछ लिखा है साथ ही उन्होंने जायसी, दादू और तुलसीदास पर भी लिखा है।
परिचय…
अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन के नाना एवं विश्वभारती के कार्यकारी उपाचार्य आचार्य क्षितिमोहन सेन जी भारतीय विद्वान, लेखक तथा संस्कृत के प्राध्यापक थे। जिनका जन्म २ दिसंबर, १८८० को बांग्लादेश के ढाका के भुबनमोहन सेन के यहां हुआ था।
उन्होने काशी के क्वीन्स कालेज से संस्कृत में एमए करने के बाद चम्बाराज्य के शिक्षा विभाग में कार्य किया। वर्ष १९०८ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बुलाने पर विश्वभारती के ब्रह्माचर्याश्रम में योगदान करने लगे तथा विश्वभारती विद्याभवन के अध्यक्ष के रूप में शेष जीवन व्यतीत किया। कुछ दिन विश्वभारती के अस्थायी उपाचार्य पद पर भी रहे।
उनकी कृतियों में सन्तदेर बाणी, बाउल संगीत एवं साधनतत्त्ब उल्लेखनीय हैं।
कुछ प्रमुख रचनाएं हैं:-
१. कबीर (४ खण्ड)
२. भारतीय मध्ययुगेर साधनार
३. धारा
४. दादु
५. भारतेर संस्कृति
६. बांलार साधना
७. जातिभेद
८. हिन्दु मुसलमानेर युक्तसाधना
९. प्राचीन भारते नारी
१०. युगगुरु राममोहन
११. बलाका काब्य परिक्रमा
१२. बांलार बाउल
१३. चिन्मय बंग
१४. मेडिभ्याल मिस्टिसिजम अफ इन्डिया; आदि
आचार्य सेन की एक पुस्तक ‘भारतवर्षे जाति भेद’ का हिंदी अनुवाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘भारतवर्ष में जाति भेद’ शीर्षक से प्रकाशित कराया था। उस पुस्तक में श्री सेन ने भारत की जाति व्यवस्था पर चर्चा प्रारंभ करने के पहले कई दूसरे देशों की जाति व्यवस्था का परिचय देते हैं। वे लिखते हैं, “प्राचीन काल में मिस्र में जमींदार, श्रमिक और क्रीतदास तीन श्रेणियां थीं। धीरे-धीरे वहां योद्धा व पुरोहित का गौरव ऊंचा माना जाने लगा और शिल्पी तथा क्रीतदास (गुलाम) का नीचे। चीन में भद्र श्रेणी, किसान, शिल्पी व वणिक चार श्रेणियां थीं। वणिक का स्थान नीचे था। जापान में भी ये चार श्रेणियां थीं। लेकिन इन श्रेणियों में छूआछूत न था। जिस देश के आदमी जितनी ही आदिम अवस्था में होते हैं, छूआ-छूत का विचार उनमें उतना ही कठोर होता है। स्पर्श दोष से अपनी विशेष शक्ति खो देने की और दूसरों के निकट से नाना अमंगल के पाने की आशंका इस प्रकार के विचार के मूल में होती है।” स्पर्श दोष के बारे में क्षितिमोहन सेन की यह टिप्पणी दलित विमर्श की बुनियाद रखती है। उस टिप्पणी के बाद क्षितिमोहन सेन का ध्यान वेदों पर जाता है। वेद चूंकि भारत के प्राचीनतम ग्रंथ हैं इसलिए भारत में जाति भेद का संदर्भ उठाते ही क्षितिमोहन सेन ऋग्वेद का उद्धरण देते हैं:-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः ॥
(ऋग्वेद संहिता, मण्डल 10, सूक्त 90, ऋचा 12)
अर्थात् ब्राहमण की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की भुजाओं से, वैश्य की जंघाओं से और शूद्र की पैरों से हुई थी। ऋग्वेद के उद्धरण के बाद श्री सेन गीता का संदर्भ उठाते हैं;
“चातुर्वण् र्यं मयां सृष्टं गुणकर्मविभागशः”
अर्थात् गीता में भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि गुण-कर्म विभाग के अनुसार चारों वर्णों की सृष्टि उन्होंने ही की है।
क्षिति मोहन सेन ने आगे लिखा है कि श्रीकृष्ण ने जिस तरह चातुर्वण्य का निर्देश किया था, अगर वह प्रचलित होता तो भारतीय जाति व्यवस्था से हमारा शायद उपकार ही होता। उस हालत में समाज में एक गति और स्पंदन दिखाई पड़ता। मनु तक ने कहा है कि अवसर विशेष पर ब्राह्मण शूद्र हो जाता है और शूद्र ब्राह्मण हो जाता है। परंतु ये व्यवस्थाएं और विधियां इस देश में धीरे-धीरे अचल हो उठीं। संस्कृत के काव्य, पुराण, नाटक आदि में हीनवृत्ति ब्राह्मण और उच्च वृत्त शूद्र की कम चर्चा नहीं है। चरित्र और शील में कभी-कभी शूद्रों को ब्राह्मणों से भी अधिक उन्नत पाया गया है। इस तरह क्षितिमोहन सेन जन्मना वर्ण व्यवस्था को मानने से इंकार करते हैं।