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स्वतन्त्र भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश सर हरिलाल जय किशुन कनिया को पद पर रहते हुए निधन के पश्चात् मंडकोलतुर पतंजली शास्त्री भारत के सर्वोच्च न्यायालय के दूसरे न्यायाधीश हुए जो ७ नवम्बर, १९५१ से ३ जनवरी, १९५४ तक इस पद पर रहे। आइए आज हम मंडकोलतुर पतंजली शास्त्री जी के बारे में बात करते हैं। जिन्हें बोलचाल की भाषा में एमपी शास्त्री भी कहा जाता था।

परिचय…

एमपी शास्त्री का जन्म ४ जनवरी, १८८९ को मद्रास के पचैयप्पा कॉलेज के वरिष्ठ संस्कृत विद्वान पंडित कृष्ण शास्त्री जी के यहां हुआ था। कला स्नातक के बाद मद्रास विश्वविद्यालय से उन्होंने वकालत पूरी कर ली।

कार्य…

वर्ष १९१४ में मद्रास उच्च न्यायालय से उन्होंने वकालत शुरू कर दिया। मगर यह अभ्यास कुछ दिनों का ही था। चेट्टियार ग्राहकों के साथ कर (टैक्स) कानून में विशेष विशेषज्ञता हासिल की। वर्ष १९२२ में, उनकी क्षमताओं को देखते हुए उन्हें आयकर आयुक्त के स्थायी सलाहकार नियुक्त किया गया, जहां वे १५ मार्च, १९३९ तक, जब तक उन्होंने खंडपीठ का पद नहीं सम्हाल लिया। खंडपीठ के दौरान, उन्होंने सर सिडनी वाड्सवर्थ के साथ मद्रास के कृषक ऋण मुक्ति अधिनियम को पारित कराने में उल्लेखनीय रूप से कोशिश की।

६ दिसंबर, १९४७ को, मद्रास उच्च न्यायालय में वरिष्ठता में तीसरे स्थान पर होने के कारण उन्हें संघीय न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया, जो कि बाद में सर्वोच्च न्यायालय बन गया। चीफ जस्टिस सर हरिलाल कानिया की अप्रत्याशित मृत्यु के बाद शास्त्री जी को सबसे वरिष्ठ होने के कारण न्यायमूर्ति के रूप में नियुक्त किया गया। शास्त्री जी ३ जनवरी, १९५४ तक इस पद पर रहे। तत्पश्चात १६ मार्च, १९६३ को एक न्यायाधीश होने के बावजूद इस जग के सबसे बड़े न्यायमूर्ति से न्याय मांगने निकल गए।

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