आईए आज हम आपको एक नए इतिहास से परिचय करवाते हैं, आज मारवाड़ के एक वीर व प्रतापी राजा राव मालदेव राठौड़ से आपको मिलवाते हैं…
जोधपुर के शासक गांगा के पुत्र राव मालदेव राठौड़ का जन्म आज ही के दिन यानी ९ मई, १५११ को जोधपुर में हुआ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् १५३१ ई. में जब वे सोजत में मारवाड़ की गद्दी पर बैठे उस समय तक इनका शासन सिर्फ सोजत और जोधपुर के परगनों पर ही था। जैतारण, पोकरण, फलौदी, बाड़मेर, कोटड़ा, खेड़, महेवा, सिवाणा, मेड़ता आदि के सरदार आवश्कतानुसार जोधपुर नरेश को केवल सैनिक सहायता दिया करते थे। मगर अन्य सभी प्रकार से वे अपने-अपने अधिकृत प्रदेशों के स्वतन्त्र शासक ही थे।
मगर इतिहास उनके शासनकाल को मारवाड़ में “शौर्य युग” कहता है, तथा राव मालदेव को युग का महान् योद्धा, महान् विजेता और विशाल साम्राज्य का स्वामी भी कहता है। इतिहास का कहना है की उसने अपने बाहुबल से एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया था। मालदेव ने सिवाणा जैतमालोत राठौड़ों से, चौहटन, पारकर और खाबड़ परमारों से, रायपुर और भाद्राजूण सीधलों से, जालौर बिहारी पठानों से, मालानी महेचों से, मेड़ता वीरमदेव से, नागौर, सांभर, डीडवाना मुसलमानों से, अजमेर साँचोर चौहाणों से छीन कर जोधपुर राज्य में मिलाया। इस प्रकार राव मालदेव ने अपने साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार कर लिया। उत्तर में बीकानेर व हिसार, पूर्व में बयाना व धौलपुर तक एवं दक्षिण-पश्चिम में राघनपुर व खाबड़ तक उसकी राज्य सीमा पहुँच गई थी। पश्चिम में भाटियों के प्रदेश (जैसलमेर) को उसकी सीमाएँ छू रही थी। इतना विशाल साम्राज्य न तो राव मालदेव से पूर्व और न ही उसके बाद ही किसी राजपूत शासक ने स्थापित किया।
रूठी रानी…
राव मालदेव का विवाह जैसलमेर के राव लूणकरण की पुत्री उमादे के साथ हुआ था। विवाह के उपरांत राव मालदेव व उमादे में अनबन हो जाने के कारण राजस्थान के इतिहास में रानी उमादे को रूठी रानी के नाम से जाना जाता है, रानी ने अपना सम्पूर्ण समय तारागढ़ दुर्ग में व्यतीत कर दिया था।
एक गलती भारी पड़ गई…
राव मालदेव जबरदस्त योद्धा थे मगर वे जिद्दी भी बहुत थे। अब देखिए ना ज्यादातर क्षेत्र इन्होंने अपने ही सामन्तों से छीना था। १५३५ में मेड़ता पर आक्रमण कर मेड़ता राव वीरमदेव से छीन लिया। उस समय अजमेर पर राव वीरमदेव का अधिकार था, वहाँ भी राव मालदेव ने अधिकार कर लिया। वीरमदेव को इधर-उधर भटकना पड़ रहा था अतः वो शेरशाह सूरी के पास दिल्ली चला गया।
वर्ष १५४२ में राव मालदेव ने बीकानेर पर हमला कर दिया। बीकानेर राव जैतसी साहेबा पाहोबा के युद्ध में हार गए और वीरगति को प्राप्त हो गये। अब बीकानेर पर मालदेव का अधिकार हो गया। उन्होने बीकानेर का प्रबंधन सेनापति कूंम्पा को सोंप दिया। इधर राव जैतसी का पुत्र कल्याणमल और भीम भी शेरशाह के पास दिल्ली चले गए। राव वीरमदेव और भीम दोनों मिलकर शेरशाह को मालदेव के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए उकसाने लगे अथवा याचना करने लगे।
दूसरी ओर चौसा के युद्ध में हुमायूँ, शेरशाह से परास्त होकर मारवाड़ में भी कुछ समय तक रहा था। इसका फायदा उठाकर वीरमदेव और राव कल्याणमल अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त करने की आशा से शेरशाह से सहायता प्राप्त करने का अनुरोध करने लगे। इस प्रकार अपने स्वजातीय बन्धुओं के राज्य छीन कर राव मालदेव ने अपने पतन के बीज बो दिए थे। वीरम व कल्याणमल के उकसाने पर शेरशाह सूरी अपनी ८०,००० सैनिकों की एक विशाल सेना लेकर मालदेव पर आक्रमण करने निकल पड़ा। वैसे तो मालदेव महान् विजेता था परन्तु उसमें कूटनीतिक छल-बल और ऐतिहासिक दूर दृष्टि का अभाव था। इधर शेरशाह में कूटनीतिक छल-बल और सामरिक कौशल से भरा था।
उस समय के दो बेहतरीन शासको की सेनाओं ने सुमेल-गिरी के मैदान (पाली) में आमने-सामने पड़ाव डाला। राव मालदेव भी अपनी विशाल सेना के साथ था। राजपूतों के शौर्य की गाथाओं से और अपने सम्मुख मालदेव का विशाल सैन्य समूह देखकर पहले तो शेरशाह भयभीत होकर लौटने का निश्चय कर लिया था। मगर रोजाना दोनों सेनाओं में छुट-पुट लड़ाई होती रही, जिसमें शत्रुओं का नुकसान भी अधिक होता रहा।
मुसलमानो एवं पठानों द्वारा किया जाने वाला छल कपट फिर से दोहराया गया… शेरशाह सूरी ने नकली जा़ली पत्र मालदेव के शिविर के पास रखवा दिया। उनमें लिखा था कि सरदार जैंता व कूंम्पा राव मालदेव को बन्दी बनाकर शेरशाह को सौंपे देंगे। ये जाली पत्र चालाकी से राव मालदेव के पास पहुँचा दिए थे। इससे राव मालदेव को अपने ही सरदारों पर सन्देह हो गया। यद्यपि सरदारों ने हर तरह से अपने स्वामी की शंका का समाधान करने की चेष्टा की, तथापि उनका सन्देह निवृत्त न हो सका और वह रात्रि में ही अपने शिविर से मूल सेना लेकर वापस लौट गया। मारवाड़ की सेना बिखर गई। ऐसी स्थिति में मगरे के नरा चौहान अपने नेतृत्व में ३००० राजपूत सैनिको को लेकर युद्ध के लिए आगे आये। अपनी स्वामीभक्ति पर लगे कलंक को मिटाने के लिए जैता, कूम्पा आदि सरदारों ने पीछे हटने से इन्कार कर दिया और रात्रि में अपने ८००० सवारों के साथ समर के लिए प्रयाण किया। सुबह जल्दी ही शेरशाह की सेना पर अचानक धावा बोल दिया। जैता व कूपां के नेतृत्व में ८००० राजपूत सैनिक अपने देश और मान की रक्षा के लिए सम्मुख रण में जूझकर कर मर मिटे। इस युद्ध में राठौड़ जैता, कूम्पा पंचायण करमसोत, सोनगरा अखैराज, नरा चौहान आदि मारवाड़ के प्रमुख वीर इतनी वीरता से लड़ें की शेरशाह सूरी को बहुत मुश्किल से ही विजय प्राप्त हुई थी। तब शेरशाह ने कहा था कि “खुदा का शुक्र है कि किसी तरह फतेह हासिल हो गई, वरना मैंने एक मुट्टी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादशाहत ही खो दी होती।” यह रक्तरंजित युद्ध ५ जनवरी, १५४४ को समाप्त हुआ।
शेरशाह का जोधपुर पर शासन हो गया। राव मालदेव पीपलोद (सिवाणा) के पहाड़ों में चला गया। शेरशाह सूरी की मृत्यु पश्चात राव मालदेव ने १५४६ में जोधपुर पर दुबारा अधिकार कर लिया और धीरे-धीरे पुनः मारवाड़ के क्षेत्रों को दुबारा जीत लिया गया। राव जयमल से दुबारा से मेडता छीन लिया था। ७ दिसंबर, १५६८ को अपने स्वर्गवास होने तक राव मालदेव ने ५२ युद्ध में से ५१ युद्ध जीते थे। एक समय तक तो इनका छोटे बड़े ५८ परगनों पर अधिकार रहा।
फारसी इतिहासकारों ने राव मालदेव को “हिन्दुस्तान का हशमत वाला राजा” कहा है।तबकाते अकबरी के लेखक निजामुद्दीन लिखते हैं कि “मालदेव जो जोधपुर व नागौर का मालिक था, हिन्दुस्तान के राजाओं में फौज व हशमत (ठाठ) में सबसे बढ़कर था। उसके झंड़े के नीचे ५०,००० राजपूत थे।”