आज हम बात करने वाले हैं, देव भाषा संस्कृत की प्रसिद्ध नीतिपुस्तक पंचतन्त्र के रचनाकार पंडित विष्णु शर्मा जी के बारे में, जिन्होंने नीतिकथाओं में प्रथम स्थान पर स्थित पंचतन्त्र की रचना अस्सी वर्ष की आयु में लिखी थी। इस रचना के पीछे भी एक कहानी है या यूं कहें तो एक इतिहास है।
परिचय…
वैसे तो आज पंडित विष्णु शर्मा जी के बारे में कोई ठोस जानकारी आज उपलब्ध नहीं है, परन्तु उनके महान कृति पंचतंत्र के शोध को आधार बनाया जाए तो अस्सी वर्ष की आयु में वे दक्षिण भारत के महिलारोप्य नामक नगर में रहते थे।
चर्चा…
महामहोपध्याय पं॰ सदाशिव शास्त्री के अनुसार पंचतन्त्र के रचयिता विष्णु शर्मा थे और विष्णु शर्मा चाणक्य का ही दूसरा नाम है। अत: पंचतन्त्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ही हुई है और इसका रचनाकाल ३०० ईसापूर्व मानते है। (उस समय मौर्यों की राजधानी मगध थी)
परंतु पाश्चात्य तथा कुछ भारतीय विद्वान् ऐसा नहीं मानते, उनका कथन है कि चाणक्य का दूसरा नाम विष्णुगुप्त था विष्णुशर्मा नहीं, तथा उपलब्ध पञ्चतन्त्र की भाषा की दृष्टि से तो यह गुप्तकालीन रचना प्रतीत होती है। (गुप्त राजवंश की राजधानी भी मगध ही थी)
महामहोपाध्याय पं॰ दुर्गाप्रसाद शर्मा ने विष्णुशर्मा का समय अष्टमशतक के मध्य भाग में माना है क्योंकि पंचतन्त्र के प्रथम तन्त्र में आठवीं शताब्दी के दामोदर गुप्त द्वारा रचित कुट्टनीमतम् की “पर्यङ्कः स्वास्तरणः” इत्यादि आर्या देखी जाती है, अतः यदि विष्णुशर्मा पञ्चतन्त्र के रचयिता थे तो वे अष्टम शतक में हुए होंगे। परन्तु केवल उक्त श्लोक के आधार पर पंचतन्त्र की रचना अष्टम शतक में नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह श्लोक किसी संस्करण में प्रक्षिप्त भी हो सकता है।
हर्टेल और डॉ॰ कीथ, इसकी रचना २०० ई.पू. के बाद मानने के पक्ष में है। चाणक्य के अर्थशास्त्र का प्रभाव भी पंचतन्त्र में दिखाई देता है इसके आधर पर भी यह कहा जा सकता है कि चाणक्य का समय लगभग चतुर्थ शताब्दी पूर्व का है अतः पंचतन्त्र की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व हुई होगी। (इस आधार पर भी पंडित विष्णु शर्मा मगध या उसके आस पास के जान पड़ते हैं।)
इस प्रकार पंचतन्त्र का रचनाकाल विषयक कोई भी मत पूर्णतया सर्वसम्मत नहीं है, परंतु उनकी रचनावली की भाषा को आधार बनाया जाए तो कार्यस्थली या जन्मस्थली मगध के रूप में ही ठहरती है।
पंचतन्त्र की रचना…
दक्षिण भारत में एक राज्य था, महिलारोप्य, जिसपर अमरशक्ति नामक एक राजा राज्य करते थे। राजा हर तरह से सुखी और संपन्न थे, मगर उन्हें एक बात हमेशा सताती रहती थी कि उनके बाद उनके राज्य का क्या होगा, क्योंकि राजा के तीन माह मूर्ख पुत्र थे। राजा उन्हें राजनीति एवं नेतृत्व गुण सीखने में असफल थे। उन्होंने उन्हें सिखाने के लिये बहुत से पण्डित एवं आचार्य रखे पर कोई भी उन्हें पढ़ा लिखा न सका। राजा ने एक दिन यह घोषणा करवा दी कि जो विद्वान उन्हें पढ़ा लिखा देगा उसे बड़ा इनाम दिया जायेगा, परंतु वही ढाक के तीन पात। अपने पुत्रों से हारा हुआ राजा, एक दिन अपने मन्त्रियों से सलाह ली। मंत्रियों ने कहा कि महाराज आप आचार्य विष्णु शर्मा को अपने पुत्रों के प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त करें, शायद कुछ हो जाए।
आचार्य विष्णुशर्मा राजनीति तथा नीतिशास्त्र सहित सभी शास्त्रों के महान ज्ञाता थे। राजा उन्हें पहले से ही जानते थे, तो तुरंत तैयार हो गए। उन्होंने आचार्य विष्णु शर्मा को दरबार में बुलाकर घोषणा की कि यदि वे उनके पुत्रों को कुशल राजसी प्रशासक बनाने में सफल होते हैं तो वह उन्हें सौ गाँव तथा बहुत सा स्वर्ण देंगे। आचार्य विष्णु शर्मा इस पर हँसे और कहा, ‘हे राजन्! मैं अपनी विद्या को बेचता नहीं, मुझे किसी उपहार की इच्छा या लालच नहीं है। आपने मुझे विशेष सम्मान सहित बुलाया है, यही काफी है। मैं आपके पुत्रों को छह महीने के भीतर कुशल प्रशासक बनाने की शपथ लेता हूँ। अगर मैं अपने संकल्प को पूरा करने में असफल रहा तो अपना नाम बदल लूंगा।’ राजा ने हर्षपूर्वक तीनों राजकुमारों की जिम्मेदारी आचार्य विष्णु शर्मा को दे दी। आचार्य यह भली भांति जानते थे कि वे उन राजपुत्रों को पुराने तरीकों से कभी पढ़ा नहीं सकते। उन्हें थोड़ा सरल तरीका अपनाना होगा। उन्होंने एक तरीका निकाला, जन्तु कथाओं की कथायें सुनाकर आवश्यक बुद्धिमता सिखाने का। इसलिये उन्होंने उन्हें शिक्षित करने हेतु कहानियों की रचना की जिनके माध्यम से वे उन्हें नीति सिखाया करते थे। शीघ्र ही राजकुमारों को उसमें रुचि आने लगी और उन्होंने ज्ञान लेना आरम्भ कर दिया। अंततः उन्होंने नीति सीखने में सफलता प्राप्त की। इन्हीं कहानियों का संकलन है, पंचतन्त्र, जो दो हजार वर्ष पूर्व पाँच समूहों में संकलित है।