एक विधान, एक निशान और एक प्रधान’ की मांग पर आंदोलन का आगाज करने वाले… पंडित प्रेमनाथ डोगरा जी का जन्म २३ अक्तूबर, १८९४ को जम्मू के समैलपुर गांव में हुआ था। उनके पिताजी का नाम पं॰ अनन्त राय था। जम्मू-कश्मीर के महाराजा रणवीर सिंह के समय पं. अनंत राय रणवीर गवर्नमेंट प्रेस के अधीक्षक रहे और उसके पश्चात लाहौर में कश्मीर प्रापर्टी के अधीक्षक रहे थे। पंडित जी तब राजा ध्यान सिंह की लाहौर की हवेली में रहते थे, वहीं पं. प्रेमनाथ का बचपन बीता और शिक्षा दीक्षा भी सम्पन्न हुई।
पंडित प्रेमनाथ जी बचपन से ही पढ़ाई में अत्यंत योग्य और खेलों में अत्यंत चुस्त एवं निपुण थे।१९०४ में उन्होंने मॉडल स्कूल, लाहौर से मैट्रिक की परीक्षा पास की और एफ.सी.कालेज में प्रवेश लिया। वहां उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में विशेष रुचि दिखाई और १०० गज, ४०० गज, आधा मील, एक मील की दौड़ में प्रथम स्थान प्राप्त किया। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर, जो उस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे, से इनाम भी प्राप्त किया। पंडित जी को एक जेब घड़ी इनाम में मिली थी उन्होंने उस घड़ी को बहुत दिनों तक संभाल कर रखा, आज भी वह उनके परिवार के पास सुरक्षित है। कालेज जीवन में पंडित जी फुटबाल के भी ऊंचे दर्जे के खिलाड़ी थे। कालेज की फुटबाल टीम में शामिल थे। जम्मू राज्य के तत्कालीन गवर्नर चेतराम चोपड़ा ने एक बार कहा था,”मैं समझता हूं कि पंडित जी की स्फूर्ति और तेज गति का कारण यही फुटबाल का खेल था, जिसका प्रभाव उनके जीवन में अंतिम दिन तक रहा था।
१९३१ में जब महाराजा ने सभी के लिए धार्मिक स्थलों के द्वार खोलने का आदेश दिया तो उन्होंने अपनी अत्यंत बुद्धिमता के साथ छुआछूत की बुराई के विरुद्ध सफल संघर्ष किया और ऐसे पग उठाए जिनसे तनाव की संभावनाएं समाप्त हो गर्ईं।
कई स्थानों और उच्च पदों पर काम करते हुए पं. डोगरा १९३१ में मुजफ्फराबाद जिले के मंत्री बने। १९३१ में शेख अब्दुल्ला का ‘कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ जोरों पर था। मुजफ्फराबाद में भी शांति भंग होने की संभावना बहुत अधिक थी, परंतु पंडित जी ने उपद्रव करने वालों के प्रति सख्ती नहीं दिखाई, लाठी चार्ज या गोली नहीं चलाई वरन् नरमाई से काम लिया। उन्होंने कहा, “साम्प्रदायिकता एक आंधी है जिसमें कई व्यक्ति उलझ जाते हैं, परंतु ऐसे समय में दमन चक्र चलाने से स्थिति बिगड़ जाया करती है। यदि कुछ स्नेह प्रदर्शित किया जाय तो हर्ज ही क्या है।” पंडित जी ने बिना लाठी व बंदूक चलाये उपद्रव शांत कर दिया, परंतु उनकी यह नीति उस समय की सरकार को ठीक नहीं लगी और इसी वजह से सरकार ने उसके बाद उनको नौकरी से अलग कर दिया।
१९३१ में शेख अब्दुल्ला जम्मू के डोगरा सदर सभा में आये, जहाँ के अध्यक्ष सरदार बुद्ध सिंह थे। वहां शेख अब्दुल्ला ने कहा कि सरकार ने पंडित प्रेमनाथ डोगरा को नौकरी से निकालकर अच्छा नहीं किया और उनको नौकरी पर दोबारा लेना चाहिए। पंडित जी सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद जनसेवा में जुट गए। १९४० में पंडित जी जम्मू में प्रजा सभा के पहली बार सदस्य चुने गये। उसके पश्चात वह लोगों के अधिक से अधिक निकट आते गए। १९४७ के दौरान देश विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर में बड़ा संकटपूर्ण और भयावह राजनीतिक माहौल बना था। महाराज हरिसिंह को रियासत से बाहर जाना पड़ा और यहां जवाहर लाल नेहरू की शह पर शेख अब्दुल्ला ने अपने “नया कश्मीर” के एजेंडा के अनुसार “अलग प्रधान, अलग निशान व अलग विधान” का नारा छेड़ा और भारतीय तिरंगे के स्थान पर हल के निशान वाला कश्मीर का लाल रंग का झंडा लहराने लगा।
स्वाभाविक रूप से ये तीनों बातें देशहित में नहीं थीं इसलिए इसका तीखा विरोध करते हुए पं. प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में प्रजा परिषद् का गठन हुआ और एक देश में ‘एक प्रधान, एक निशान और एक विधान का आंदोलन’ छिड़ गया। १९४९ में उन्हें गिरफ्तार किया गया था। उन्हें मुक्त कराने के लिए आन्दोलन हुआ। उस समय नारा था “जेल के दरवाजे खोल दो, पंडित जी को छोड़ दो।” इस आंदोलन में पंडित जी तीन बार जेल गये और काफी दिनों तक जेल में रहे जहां शेख अब्दुल्ला सरकार ने उन्हें बहुत कष्ट दिए। इनकी सरकारी पेंशन भी बंद कर दी।
भारत की अखण्डता के लिए श्रीनगर कूच करने का श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जबरदस्त आंदोलन देश भर में मचल उठा। परंतु २३ जून, १९५३ को श्रीनगर जेल में डा. मुखर्जी का देहान्त हो गया। उस समय पंडित जी भी श्रीनगर जेल में कैद थे। डा. मुखर्जी के देहांत के पश्चात उनके शव को कोलकता ले जाया गया। उस समय पंडित जी दिल्ली तक साथ थे। उनको केन्द्रीय सरकार के आदेश पर दिल्ली हवाई अड्डे पर उतार दिया गया। इसके पश्चात पंडित जी दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू से मिले और जम्मू कश्मीर के बारे में उनसे विशेष बातचीत की। उस दौरान बख्शी गुलाम मोहम्मद भी मौजूद थे। पंडित जी १९५३ के प्रजा परिषद के आंदोलन के पश्चात देश भर में एक राष्ट्रनिष्ठ राजनेता के रूप में उभरकर सामने आये। इसके बाद वह एक वर्ष जनसंघ के अखिल भारतीय अध्यक्ष भी रहे।
वह जम्मू कश्मीर के एकमात्र ऐसे नेता थे जो किसी राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष रहे। उसके बाद से आज तक यह सौभाग्य किसी को भी नहीं प्राप्त हो सका है। १९५७ में जम्मू नगर क्षेत्र से पंडित जी प्रदेश की विधानसभा के सदस्य चुने गए और १९७२ तक हर चुनाव जीतते रहे। जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह के संबंध में उनका साफ कहना था कि विलय पत्र में जनमत संग्रह का कोई जिक्र नहीं है। रियासत के सभी नेताओं और राजनीतिक दलों ने, जिनमें नेशनल कांफ्रेंस भी शामिल थी, इस विलय को मान्यता दे दी थी। उसके पश्चात चुनाव होने पर शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली विधान सभा ने भी विलय को प्रामाणिक माना इसलिए जनमत की बात करना देशभक्त नागरिक का काम नहीं है।
२१ मार्च, १९७२ को अपने निवास स्थान कच्ची छावनी में देश के इस प्रखर नेता एवं राष्ट्र की अखंडता को समर्पित जुझारू व्यक्तित्व का निधन हो गया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐसे अनेक कार्यकर्ता हैं जिन्होंने पंडित जी के साथ अनेक अवसरों पर कार्य किया, उनमें प्रमुख हैं केदारनाथ साहनी, विजय कुमार मल्होत्रा, जगदीश अबरोल, बलराज मधोक, श्यामलाल शर्मा, दुर्गा दास वर्मा, चमन लाल गुप्ता, सहदेव सिंह, राजेन्द्र सिंह, मुलख राज परगाल और गोपाल सच्चर।