आचार्य श्री रमेशचन्द्र मजुमदार जी देश के प्रसिद्ध इतिहासकार थे। उन्हें इतिहास का हर एक विद्यार्थी आर सी मजुमदार’ नाम से जानता है। उन्होने प्राचीन भारत के इतिहास पर बृहद कार्य किए हैं। इतना ही नहीं, उन्होने भारत की स्वाधीनता के इतिहास पर भी बहुत कुछ लिखा है। उनके अनुसार, “१८५७ का विद्रोह, न तो पहला, न ही राष्ट्रीय, न ही स्वतंत्रता संग्राम था।”
श्री मजूमदार का जन्म ४ दिसंबर, १८८८ को भारत(अब बांग्लादेश) के फरीदपुर अंतर्गत खंडारपारा में हुआ था। उनका प्रारंभिक जीवन आसान नहीं था, क्योंकि जब मात्र १८ महीने के थे तब उन्होंने अपनी माँ को खो दिया था। भाई-बहनों के साथ उनका पालन पोषण उनकी चाची द्वारा किया गया। उनके जीवन में ऐसा भी समय आया जब वह बिना भोजन किये दो दो दिन तक रहे। और आश्चर्य की बात यह कि जब वे पाँच या छह वर्ष के हुए, तब जाकर उन्हें शर्ट पहनने को मिली थी। आप सोचिए वे दिन बेहद दर्दनाक रहे होंगे। तब एक जोड़ी जूते की बात ही कौन करे। और अजब संयोग यह कि जब वे अभी शिशु अवस्था में थे तो एक दिन, रात में बाढ़ आई और उसमें वे बह जाने वाले थे। किसी तरह उनकी चाची ने उन्हें बचाया।
इतिहास से प्यार…
यह तब की बात है जब उन दिनों न तो बसें हुआ करती थीं और न ही रेलगाड़ी। उन दिनों सड़कें भी नहीं हुआ करती थीं। इसलिए तैराकी सीखना जरूरी होता था। ईंधन की जरूरत नहीं, लाइन में खड़े होने की कोई मजबूरी नहीं। बस पानी में कूदो और तैर कर पार कर जाओ। जब स्कूल जाना हुआ, तो केले के पेड़ की मोहरों या खोखले ताड़ के टुकड़ों से राफ्ट बनाते थे। लिखने के लिए ताड़ के पत्ते थे, लेकिन उन्होंने केले के पत्तों को प्राथमिकता दी, कारण यह था कि उनकी प्रचुरता अधिक थी। लिखने के लिए बांस की छड़ियों का इस्तेमाल किया। उनका स्वयं का जीवन पूरी तरह एक इतिहास है शायद इसीलिए उन्होंने इतिहास से आजीवन प्यार किया और सत्तर से अधिक वर्षों तक खुद को इसके लिए समर्पित रखा।
जुलाई १९१४ के वर्ष में श्री मजूमदार ने प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विभाग में व्याख्याता के रूप में विश्वविद्यालय में प्रवेश किया। प्राचीन भारत में कॉर्पोरेट जीवन शीर्षक वाली उनकी पीएचडी थीसिस प्रकाशित हुई।
प्राचार्य के रूप में नियुक्त…
वर्ष १९२१ में वे ढाका विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त हुए। वर्ष १९३६ से १९४२ तक वे इस विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। तत्पश्चात वर्ष १९५० में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारत विद्या महाविद्यालय के रेक्टर रहे। उन्होने शिकागो विश्वविद्यालय में भी शिक्षण कार्य किया साथ ही वे पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के विजिटिंग प्रोफेसर थे। यूनेस्को के मानव इतिहास कमीशन के उपाध्यक्ष रहे। वे रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड और बॉम्बे के मानद फैलो थे। वे पूना के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट के मानद सदस्य, कलकत्ता के एशियाई सोसाइटी के अध्यक्ष बने। उन्हें भारतीय इतिहास कांग्रेस और अखिल भारतीय प्राच्य सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया था। उन्हें रामकृष्ण मिशन इंस्टीट्यूट ऑफ कल्चर, कलकत्ता का अध्यक्ष भी बनाया गया था।
अपनी बात…
शायद ही इतिहास का कोई ऐसा छात्र हो जिसने आचार्य रमेश चंद्र मजूमदार को न पढ़ा हो। वह खुद में चलता फिरता इतिहास थे। वह एक किंवदंती थे और उन्हेंन एक पूर्ण, उत्पादक और उपयोगी जीवन लगभग सदी तक जिया। आर.सी. मजूमदार अपने स्कूल के दिनों में ईश्वर चंद्र विद्यासागर से बहुत प्रभावित थे और बाद में रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बहुत बड़े भक्त बन गए।
३० जून, १९४२ यानी अपने जीवन के अंत तक, आचार्य श्री आर सी मजूमदार ने गर्व से स्वामी विवेकानंद की एक आदमकद पेंटिंग को अपने लिविंग रूम में प्रदर्शित किया। इन और अन्य प्रेरणाओं से, उन्होंने भारतवर्ष की शाश्वत प्रतिभा में एक अटल विश्वास विकसित किया और एक महान देशभक्त के रूप में अपनी पहचान बनाई। वास्तव में, यह भारत के प्रति उनका लगाव ही था जिसने उन्हें हमारे अतीत की पड़ताल करने और इस तथ्य को स्थापित करने के लिए प्रेरित किया कि हम दो हजार वर्षों तक निर्बाध रूप से दुनिया में सबसे बड़ी सभ्यता थे।
पुस्तकें…
१. The Struggle for Empire
२. An Advanced History of India. London, 1960.
३. भारतीय जनगनेर संस्कृति ओ इतिहास
४. Ancient India
५. The sepoy Mutiny and the rebellion of 1857-1957
६. भारतेर स्बाधीनता आन्दोलनेर इतिहास
७. चम्पा
८. Vakataka – Gupta Age Circa 200-550 A.D.
९. बांगलार इतिहास
१०. Main currents of Indian history
११. Classical accounts of India
१२. Hindu Colonies in the Far East
१३. Majumdar, R.C. (1979). India and South-East Asia. I.S.P.Q.S. History and Archaeology Series Vol. 6.