२४अगस्त१९०८
शिवराम हरि राजगुरु का जन्म भाद्रपद के कृष्णपक्ष की
त्रयोदशी सम्वत् १९६५ (विक्रमी) तदनुसार सन् १९०८ में पुणे जिला के खेडा गाँव में हुआ था। ६ वर्ष की आयु में पिता का निधन हो जाने पर बड़े भाई और माँ ने मिलकर पाला था। बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी विद्याध्ययन करने एवं संस्कृत सीखने आ गये थे। इन्होंने हिन्दू धर्म-ग्रंन्थों तथा वेदो का अध्ययन तो किया ही लघु सिद्धान्त कौमुदी जैसा क्लिष्ट ग्रन्थ बहुत कम आयु में कण्ठस्थ कर लिया था। इन्हें कसरत का बेहद शौक था और छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध-शैली के बड़े प्रशंसक थे।
बनारस में रहते हुये राजगुरु की मुलाकात क्रान्तिकारी दलों के सदस्यों से हुई जिनके सम्पर्क में आने के बाद ये पूरी तरह से हिन्दूस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दल के सक्रिय सदस्य बन गये। इनका दल का नाम रघुनाथ था। राजगुरु निशाना बहुत अच्छा लगाते थे जिससे दल के अन्य सदस्य इन्हें निशानची (गनमैन) भी कहते थे। दल के सभी सदस्य घुल मिलकर रहते थे लेकिन दल के कुछ सदस्य ऐसे भी थे जिनके लिये समय आने पर ये अपनी जान भी दे सकते थे। पार्टी में इनके सबसे घनिष्ट साथी सदस्य आजाद, भगत सिंह, सुखदेव और जतिनदास थे और देशभक्ति के रास्ते में भगत सिंह को तो ये अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वन्दी मानते थे। राजगुरु पार्टी द्वारा किसी भी क्रान्तिकारी गतिविधि को निर्धारित किये जाने पर उस गतिविधि में भाग लेने के लिये सबसे आगे रहते थे।
बात उनदिनो की है जब लाला ज़ी की मृत्यु लाठी चार्ज से हुई, अपने नेता की मृत्यु का बदला लेने के लिये एच.एस.आर.ए. के सभी सदस्यों ने मिलकर पुलिस अधिक्षक स्कॉट को मारने की योजना बनायी। इस योजना को कार्यान्वित करने का कार्यभार आजाद, भगत सिंह, राजगुरु और जयगोपाल पर था।
१७ दिसम्बर १९२८ को शाम ७ बजे योजना के अनुसार जयगोपाल मॉल रोड चौकी के सामने अपनी साइकिल को ठीक करने का बहाना करते हुये बैठ गये और स्कॉट का इंतजार करने लगे। जयगोपाल से कुछ ही दूरी पर भगत सिंह और राजगुरु निशाना साधे खड़े थे। जैसे ही जयगोपाल ने पुलिस अधिकारी सांडर्स को आते हुये देखा उसने सांडर्स को गलती से स्कॉट समझकर राजगुरु को इशारा किया। इशारा मिलते ही राजगुरु ने पहली गोली चलायी जो सीधे सांडर्स को लगी और वो एक ही गोली में मोटर से गिर गया। उसकी मृत्यु को सुनिश्चित करने के लिये भगत ने एक के बाद एक 5-6 गोलियाँ चलायी।
जब ये सब क्रान्तिकारी सांडर्स को गोली मारकर भाग रहे थे तो हवलदार चमन सिंह ने इनका पीछा किया। आजाद की चेतावनी देने के बावजूद जब वो वापस नहीं लौटा तो आजाद को मजबूरी में उस पर गोली चलानी पड़ी। दूसरी ओर से आजाद ने दोनों को वहाँ से चलने के लिये आदेश दिया और स्वंय दोनों को पीछे से सुरक्षा प्रदान करते हुये डी.ए.वी. कॉलेज से होते हुये फरार हो गये।
ऐसी बहूत सारी कहानिया हैं राजगुरु की जो इतिहास के पन्नों मे कहीं गुम हो गई हैं…
ऐसे वीर पुरोधा क़ो उनके जन्मोत्सव पर…
शत ! शत ! नमन ! !