वर्ष १९९४ की बात है, संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने अपने जीवनकाल में ही राजेन्द्र सिंह का सरसंघचालक पद पर अभिषेक कर दिया। यह संघ में पहली घटना थी। परंतु राजेन्द्र सिंह की प्रसिद्धि और विनम्र व्यवहार के कारण लोग उनसे इतना प्यार करते थे कि सदा गंभीर और संयमी सरसंघचालक बालासाहेब देवरस भी भावना में बह गए। ऐसा नहीं था कि भावना क्षणिक थी, राजेन्द्र सिंह के संबंध विभिन्न राजनीतिक दलों और विभिन्न विचारधारा के राजनेताओं और लोगों से इतने अच्छे थे कि पूजनीय सरसंघचालक जी को देश हित में इससे अच्छा निर्णय कोई और जान ही नहीं पड़ा। राजेन्द्र सिंह की सभी संप्रदाय के आचार्यों और संतों के प्रति गहरी श्रद्धा थी। इसके कारण सभी वर्ग के लोगों का स्नेह और आशीर्वाद उन्हें प्राप्त था। देश-विदेश के वैज्ञानिक, खासकर सर सी.वी. रमण जैसे श्रेष्ठ वैज्ञानिक का राजेन्द्र सिंह से गहरा लगाव था।
परिचय…
राजेन्द्र सिंह जी का जन्म २९ जनवरी, १९२२ को उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर जिला अंर्तगत बनैल नामक गाँव के रहने वाले श्री कुंवर बलवीर सिंह जी एवम उनकी धर्मपत्नी श्रीमती ज्वालादेवी के यहाँ हुआ था। श्री बलवीर सिंह जी स्वतंत्र भारत में उत्तरप्रदेश के प्रथम भारतीय मुख्य अभियंता नियुक्त हुए थे। अत्यंत शालीन, तेजस्वी और ईमानदार अफसर के नाते उनकी ख्याति थी। पिताजी की सादगी, मितव्ययता और जीवन मूल्यों के प्रति सजगता का विशेष प्रभाव राजेन्द्र सिंह जी के जीवन पर पड़ा।
शिक्षा…
राजेन्द्र सिंह की प्रारंभिक पढाई बुलंदशहर, नैनीताल, उन्नाव और दिल्ली में हुई। बी.एस.सी. व एम.एस.सी. परीक्षा प्रयाग से उत्तीर्ण की। कॉलेज में एक दिन एक एंग्लोइंडियन से उनका गांधीजी को लेकर वादविवाद हो गया। एंग्लोइंडियन गांधीजी को गलत ठहरा रहा था, जबकि राजेन्द्र सिंह गांधीजी को सही बता रहे थे। इस पर उस एंग्लोइंडियन ने उन्हें दो घूंसे लगा दिए। इसपर राजेन्द्र सिंह ने बदला लेना तय किया और नियमित रूप से व्यायाम करना शुरू कर दिया। वे आवेश वश प्रतिदिन दो दो घंटे व्यायाम करते। फिर एक दिन जब पुनः उस एंग्लोइंडियन से विवाद का मौक़ा आया तो उसे एक मजबूत घूँसा जड़ दिया।
उन दिनों राजेन्द्र सिंह का सम्बन्ध संघ से नहीं था, किन्तु समाजिक कार्य के प्रति उनका रुझान प्रारम्भ से ही था। जब वे बी.एस.सी. के फाइनल में थे तभी २० वर्ष की आयु में ही, उन्हें बिना बताये उनका विवाह तय कर दिया गया। उनकी एम-एस.सी. की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार विजेता डा. सी.वी.रमन आये थे। वे उनकी प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपने साथ बंगलौर चलकर शोध करने का आग्रह किया; परंतु राजेन्द्र सिंह के जीवन का लक्ष्य तो कुछ और ही था, उन्होंने बड़े आदर भाव से इस आग्रह को मना कर दिया।
संघ कार्य…
संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से वे बहुत प्रभावित थे। परंतु एक समाजिक कार्य के दौरान प्रयाग में उनकी प्रथम भेंट संघ से हुआ और वे नियमित रूप से शाखा जाने लगे। वर्ष १९४३ में राजेंद्र सिंह ने काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। वहाँ श्री गुरुजी का ‘शिवाजी का पत्र, जयसिंह के नाम’ विषय पर जो बौद्धिक हुआ, उससे प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। अब वे अध्यापन कार्य से बचे शेष समय की संघ कार्य में लगाने लगे। उन्होंने घर में बता दिया कि वे विवाह के बन्धन में नहीं बधेंगे। राजेंद्र सिंह संघ कार्य के दौरान रज्जू भैया होकर अब पूरे उ.प्र.में प्रवास करने लगे। वे प्राध्यापक रहते हुए अपनी कक्षाओं का तालमेल ऐसे करते थे, जिससे छात्रों का अहित न हो तथा उन्हें सप्ताह में दो-तीन दिन प्रवास के लिए मिल जायें। पढ़ाने की रोचक शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते थे। रज्जू भैया सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। वे सदा तृतीय श्रेणी में ही प्रवास करते थे तथा प्रवास का सारा व्यय अपनी जेब से करते थे। इसके बावजूद जो पैसा बचता था, उसे वे चुपचाप निर्धन छात्रों की फीस तथा पुस्तकों पर व्यय कर देते थे।
रज्जू भैया संघ के साथ ६० वर्षों तक जुड़े रहे और विभिन्न प्रकार के दायित्वों का निर्वहन करते रहे। इस तरह वर्ष १९४३ से वर्ष १९६६ तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए भी अपने प्रचारक के दायित्वों का निर्वाह करते रहे। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने वर्ष १९४३ में लिया। इस दौरान वे नगर कार्यवाह का दायित्व निभा रहे थे। द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने वर्ष १८५४ में लिया। इस दौरान भाऊराव उन्हें पूरे प्रांत का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने वर्ष १९५७ में लिया और उत्तरप्रदेश के दायित्व का निर्वहन करने लगे।
वर्ष १९६१ में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुन: उनके सहयोगी बन गए। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो वर्ष १९६२ से वर्ष १९६५ तक उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक, वर्ष १९६६ से वर्ष १९७४ तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। वर्ष १९७५ से वर्ष १९७७ तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। वर्ष १९७७ में सह-सरकार्यवाह बने तो वर्ष १९७८ मार्च में माधवराव मुले का सर-कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दे दिया गया। वर्ष १९७८ से वर्ष १९८७ तक इस दायित्व का निर्वाह करके वर्ष १९८७ में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर पुनः सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बन गए।
सरसंघचालक…
उनकी प्रसिद्धि और विनम्र व्यवहार के कारण वर्ष 1994 में संघ के तीसरे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने अपने जीवनकाल में ही राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया का सरसंघचालक पद पर अभिषेक कर दिया। यह संघ में पहली हर्षोल्लास वाली घटना थी।
उत्प्रेरक आत्मकथ्य…
एक पुस्तक में उन्होंने यह रहस्योद्घाटन उस समय किया था जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के पद को सुशोभित कर रहे थे, “मेरे पिताजी सन् १९२१-२२ के लगभग शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे। उनके समीप ही इंजीनियरों की उस कालोनी में काकोरी काण्ड के एक प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ बहुधा इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि ‘बिस्मिल’ जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बडा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बडा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे प्राय: ‘बिस्मिल’ जी के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।”
– प्रो॰ राजेन्द्र सिंह सरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
अपनी बात…
संवेदनशील अन्त:करण के साथ ही रज्जू भैया घोर यथार्थवादी भी थे। वे किसी से भी कोई भी बात निःसंकोच भाव से कह देते थे और उनकी बात को किसी को टालना कठिन हो जाता था। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में जब नानाजी देशमुख को उद्योग मन्त्री का पद देना निश्चित हो गया तो रज्जू भैया ने उनसे कहा, “नानाजी अगर आप, अटलजी और आडवाणी जी – तीनों सरकार में चले जायेंगे तो बाहर रहकर संगठन को कौन सँभालेगा?” नानाजी ने उनकी इच्छा का आदर करते हुए तुरन्त मन्त्रीपद ठुकरा दिया और जनता पार्टी का महासचिव बनना स्वीकार कर लिया। अटल जी हों या आडवाणी जी, अशोक सिंहल हों या दत्तोपन्त ठेंगडी जी, सभी शीर्ष नेता रज्जू भैया की बात का आदर करते थे क्योंकि उसके पीछे उनकी स्वार्थ, कुटिलता या गुटबन्दी की कोई भावना नहीं होती थी। इस दृष्टि से देखें तो रज्जू भैया सचमुच संघ-परिवार के न केवल बोधि-वृक्ष अपितु सबको जोड़ने वाली कड़ी थे, नैतिक शक्ति और प्रभाव का स्रोत भी थे। १४ जुलाई, २००३ को पुणे में ८१ वर्ष की आयु में उनके चले जाने से केवल संघ ही नहीं अपितु भारत के सार्वजनिक जीवन में एक युग का अन्त हो गया। रज्जू भैया केवल हाड़-माँस का शरीर नहीं थे। वे स्वयं में ध्येयनिष्ठा, संकल्प व मूर्तिमन्त आदर्शवाद की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। इसलिए रज्जू भैया सभी के अन्त:करण में सदैव जीवित रहेंगे।