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१८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में से एक राव तुलाराम सिंह जिन्हें हरियाणा में आज भी “राज नायक” माना जाता है। क्रांति काल मे हरियाणा के दक्षिण-पश्चिम इलाके से सम्पूर्ण बिटिश हुकूमत को अस्थायी रूप से उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से तथा दिल्ली के ऐतिहासिक शहर में क्रांति के सैनिको को, सैन्य बल, धन व युद्ध सामाग्री से सहता प्रदान करने का श्रेय राव तुलाराम को जाता है। जिनका जन्म ९ दिसंबर, १८२५ को हरियाणा के रेवाड़ी शहर में एक यदुवंशी परिवार के मुखिया राव पूरन सिंह तथा माता जी ज्ञान कुँवर के यहां हुआ था।

१८५७ की क्रांति…

१८५७ की क्रांति में राव तुलाराम ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करते हुये राजा की उपाधि धारण कर ली थी। उन्होने नसीबपुर- नारनौल के मैदान में अंग्रेजों से युद्ध किया जिसमें उनके पाँच हजार से अधिक क्रन्तिकारी सैनिक मारे गए थे। उन्होने दिल्ली के क्रांतिकारियों को भी सहयोग दिया व १६ नवम्बर, १८५७ को, स्वयं ब्रिटिश सेना से नसीबपुर- नारनौल में युद्ध किया, और ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर दी तथा ब्रिटिश सेना के कमांडर जेरार्ड और कप्तान वालेस को मौत के घाट उतर दिया, परंतु अंत में उनके सभी क्रन्तिकारी साथी मारे गए और राव तुलाराम भी बेहद घायल ही गए। अतः उन्हें इस अवस्था में युद्ध क्षेत्र से हटना पड़ा। मगर उन्होंने हार नहीं मानी और आगे की रणनीति तय करने हेतु वह तात्या टोपे से मिलने गए, परंतु १८६२ में तात्या टोपे के बंदी बना लिए जाने के कारण वे सैनिक सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से वे ईरान व अफगानिस्तान चले गए जहाँ अल्पायु में उनकी मृत्यु हो गयी। इधर क्रांति में भागीदारी की वजह से ब्रिटिश हुकूमत ने १८५९ में राव तुलाराम की रियासत को जब्त कर लिया था। परंतु सशर्त उनकी दोनों पत्नियों का संपत्ति पर अधिकार कायम रखा गया था। जिसे वर्ष १८७७ में उनकी उपाधि उनके पुत्र ‘राव युधिष्ठिर सिंह’ को अहिरवाल रणनीति के तहत मुखिया पदस्थ करके लौटा दी गयी।

सम्मान…

१. भारत सरकार ने महाराजा राव तुलाराम की स्मृति में २३ सितम्बर, २००१ को डाक टिकेट जारी किया।

२. जफरपुर कलाँ का “राव तुलाराम मेमोरियल चिकित्सालय

३. महाराजा राव तुलाराम मार्ग पर स्थित ‘रक्षा अध्ययन व विश्लेषण संस्थान’

४. महाराजा राव तुलाराम पोलिटेक्निक, वजीरपुर चिराग दिल्ली प्रमुख है।

५. राव तुलाराम चिकित्सालय , दिल्ली

विशेष…

अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराने के उद्देश्य अपनी पूरी रियासत और पांच हजार से अधिक सैनिकों को खोने के बाद, एक और युद्ध लड़ने की तैयारी के उद्धेश्य से वे ईरान और अफगानिस्तान के शासकों से मुलाकात की, तत्पश्चात रूस के ज़ार के साथ सम्पर्क स्थापित करने की उनकी योजनाएँ बनाईं। परंतु इस काल के मध्य ३७ वर्ष की आयु में २३ सितंबर, १८६३ को काबुल में पेचिश रोग की वजह से उनकी मृत्यु हो गई।

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