गोवर्द्धनमठ पुरी पीठ के ११६वें श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य एवं भावार्थदीपिका नामक ग्रन्थ के रचयिता श्रीधर स्वामी पाद का जन्म १३वीं शताब्दी के अन्त में ओडिशा प्रान्त के बालेश्वर जिले में हुआ था। आपको बताते चलें कि भावार्थदीपिका, भागवतपुराण की सबसे प्रसिद्ध टीका श्रीधरीटीका के रचयिता श्रीधर स्वामी पाद ही हैं। १४७१ ई. के आसपास इनका निर्वाण हुआ था। वैसे तो आज श्रीधर स्वामी जी महाराज के विषय में प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है, परंतु किंवदन्तियां की मानें तो हम यहां उनके बारे में कुछ कहना चाहते हैं। क्योंकि संत·महात्मा अथवा महापुरुषों के जीवन की सत्यता को किंवदन्तियां ही प्रकट कर सकती हैं।
किवदंती…
अपनी बात शुरू करने से पूर्व हम एक बार पुनः आपसे अपनी बात रखने की आज्ञा ले रहे हैं। शायद दसवीं या ग्यारहवीं सदी की बात होगी। किसी नगर (शायद बालेश्वर) में वहाँ के राजा और मंत्री के मध्य मार्ग चलते वक्त भगवत चर्चा चल रही थी। मंत्री ने कहा, “भगवान की उपासना से उनकी कृपा प्राप्त करके अयोग्य भी योग्य हो जाता है, कुपात्र भी सत्पात्र हो जाता है, मूर्ख भी विद्वान हो जाता है।” संयोग की बात होगी कि उसी समय एक बालक ऐसे पात्र में तेल लिये जा रहा है, जिसका उपयोग कोई भी नहीं करेगा। यह देख राजा ने मंत्री से पूछा, “क्या यह बालक भी बुद्धिमान हो सकता है? मंत्री ने बड़े विश्वास के साथ कहा, “भगवान की कृपा से अवश्य हो सकता है।” बालक बुलाया गया। बुलाने पर पता चला कि वह एक ब्राह्मण पुत्र है, जिसके माता और पिता दोनों उसे बचपन में ही छोड़कर परलोक वास करने चले गए हैं। परीक्षा हेतू उस बालक को एक विद्वान गुरू से नृसिंह मंत्र की दीक्षा दिलाकर आराधना में लगा दिया गया। बालक भी भगवान की सेवा में लग गया। अनाथ बालक की भक्ति को देखकर अनाथों के नाथ उस बालक के सामने नृसिंह रूप में प्रकट होकर यह वरदान दिया कि “तुम्हें वेद, वेदांग, दर्शनशास्त्र आदि सभी विषयों का सम्पूर्ण ज्ञान होगा और मेरी भक्ति तुम्हारे हृदय में सदा निवास करती रहेगी।” वह बालक और कोई नहीं, वे श्रीधर स्वामी पाद ही थे।
गृहस्थ आश्रम से सन्यास…
अब इस बालक की विद्वत्ता की चर्चा चहुं ओर होने लगी। आखिर भगवान की दी हुई विद्या की लोक में भला, कैसे कोई बराबरी कर सकता था। बड़े-बड़े विद्वान उस बालक का सम्मान करने लगे। राजा की आंख खुल गई। वे इनके शिष्य बन गए। मान·सम्मान, धन·सम्पदा का कोई अभाव नहीं रहा। कालांतर में विवाह भी हो गया, रूपवती पत्नी मिली। परंतु भगवान के भक्त इन सांसारिक विषयों में कहां उलझते हैं और भगवान भी भक्तों को ज्यादा दिन तक सांसारिक विषयों में रहने नहीं देते हैं। अब स्वामी जी का चित्त घर में नहीं लग रहा था। अब वे सब कुछ छोड़कर प्रभु की शरण लेना चाहते थे, वे सिर्फ भजन कीर्तन में रमना चाहते थे, इसके लिये उनके प्राण तड़पने लगे। भगवान की माया देखिए इस बीच इनकी स्त्री गर्भवती हुई और सन्तान को जन्म देकर परलोक सिधार गई। स्त्री की मृत्यु से उन्हें उतना दु:ख नहीं हुआ, जितना अब नवजात शिशु को देखकर होने लगा। वे अब उसके पालन-पोषण में व्यस्त रहने लगे, जो उन्हें बेहद अखरता। वे विचार करने लगे, “मैं मोहवश ही अपने को इस बच्चे का पालन-पोषण करने वाला मानता हूँ। जीव अपने कर्मों से ही जन्म लेता है और अपने कर्मों का ही फल भोगता है। विश्वभर का भगवान ही पालन पोषण तथा रक्षण करते हैं।” यह विचार कर वे शिशु को भगवान की दया पर छोड़कर घर छोड़ने को उद्यत हुए, परंतु बच्चे के मोह ने एक बार पुनः उनका रास्ता रोक दिया। प्रभु की लीला देखिए, इनके सामने एक पक्षी का अण्ड़ा भूमि पर गिर पड़ा और फूट गया। अण्डा पक चुका था। उससे बच्चा निकलकर अपना मुख हिलाने लगा। इनको ऐसा लगा कि इस बच्चे को भूख लगी है, यदि अभी कुछ न दिया गया तो यह मर जायगा। तभी उसी समय एक छोटा सा कीड़ा उड़कर अण्ड़े के रस पर आ बैठा और उसमें चिपक गया और वो भी शिशु पक्षी के चोंच के ठीक सामने, बच्चे ने उसे खा लिया। भगवान की यह लीला देखकर श्रीधर स्वामी के हृदय में प्रकाश हो गया। ये वहाँ से सीधे प्रभु शिव शम्भू की काशी चले आये। यहां आकर वे भगवान के भजन में तल्लीन हो गये।
टीकाएँ…
‘गीता’, ‘भागवत’, ‘विष्णुपुराण’ पर श्रीधर स्वामी पाद की अनेकों टीकाएँ मिलती हैं। इनकी टीकाओं में भक्ति तथा प्रकम का अखण्ड प्रवाह है। एकमात्र श्रीधर स्वामी ही ऐसे हैं कि जिनकी टीका का सभी सम्प्रदाय के लोगों ने आदर दिया है। कुछ लोगों ने इनकी भागवत की टीका पर आपत्ति अवश्य की, परंतु उस समय इन्होंने वेणीमाधव जी के मन्दिर में भगवान के पास उस ग्रन्थ को रख दिया। कहते हैं कि स्वयं भगवान ने साधु-महात्माओं के सम्मुख वह ग्रन्थ उठाकर हृदय से लगा लिया।