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कोई हमारे दर्द का मरहम नहीं
आशना नहीं दोस्त नहीं हम-दम नहीं

आलम-ए-दीवानगी क्या ख़ूब है
बे-कसी का वहाँ किसी कूँ ग़म नहीं

ख़ौफ़ नहीं तीर-ए-तग़ाफूल सीं तिरे
दिल हमारा भी सिपर सीं कम नहीं

शर्बत-ए-दीदार का हूँ तिश्‍ना लब
आरज़ू-ए-चश्‍म-ए-ज़मज़म नहीं

मुझ नज़र में ख़ार है हर बर्ग-ए-गुल
यार बिन गुलशन में दिल ख़ुर्रम नहीं

अश्‍क-ए-बुलबुल सीं चमन लबरेज़ हैं
बर्ग-ए-गुल पर क़तरा-ए-शबनम नहीं

कौन सी शब है कि माह-रू बिन ‘सिराज’
दर्द के आँसू से दामन नम नहीं

ग़ज़ल, नज़्म, शेर और शायरी के सरताज “सिराज” उर्फ सिराज औरंगाबादी या सिराज औरंगजेब आबादी का जन्म ११ मार्च, १७१२ में औरंगाबाद में हुआ था। सिराज रहस्यवादी कवि थे। उनका पूरा नाम सैयद सिराजुद्दीन था, औरंगाबाद में जन्म के कारण वे औरंगाबादी कहलाये। सिराज की शायरी में गीत, गाने, कहानियां, कविताएँ और विचारधाराओ का एक पूरा दौर शामिल है।

ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही
न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही

सिराज की शिक्षा औरंगाबाद में ही हुई थी। वे एक प्रतिष्ठित परिवार से थे। बारह वर्ष की अल्प आयु में जाने ऐसा क्या धुन हुआ की वे घर छोड़ सन्यासी हो गए। मगर यह उतना आसान नहीं था उनके जिंदगी का यह दौर बेहद कठिन रहा। उन्होंने फारसी सीख कर, उर्दू और फारसी दोनों भाषाओं में कविता करने लगे।दक्षिण भारत के शायरों में वली मुहम्मद वली के बाद सिराज औरंगाबादी का नाम ही सबसे ऊपर है।

मत करो शम्अ कूँ बदनाम जलाती वो नहीं
आप सीं शौक़ पतंगों को है जल जाने का

उनकी कविताओं को कुलियत-ए-सिराज की पौराणिक कथाओं में और उनके गजल मस्नवी नाज़म-ए-सिराज में शामिल हैं। सिराज फारसी कवि हाफिज से बेहद प्रभावित थे। उन्होंने फारसी कवियों के संकलनों को चयन कर के मंतखिब दीवान नामक ग्रंथ को संपादित किया। सिराज-ए-सुखान नामक कविताओं की पौराणिक कथाओं को कुलीयत-ए-सिराज में शामिल किया।

हर तरफ़ यार का तमाशा है
उस के दीदार का तमाशा है

इश्क़ और अक़्ल में हुई है शर्त
जीत और हार का तमाशा है

ख़ल्वत-ए-इंतिज़ार में उस की
दर-ओ-दीवार का तमाशा है

सीना-ए-दाग़ दाग़ में मेरे
सहन-ए-गुलज़ार का तमाशा है

है शिकार-ए-कमंद-ए-इश्क़ ‘सिराज’
इस गले हार का तमाशा है

कालांतर में सिराज एक महान सूफी संत हुए, पूरे भारत में उनके अनगिनत शिष्य बने।

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