आज हम एक ऐसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी के बारे में बात करने वाले हैं, जिसके जीवन का सबसे बड़ा सपना भारतवर्ष की आज़ादी था और जिसे पूरा करने में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया। उनके साहसिक कार्य को सम्मान देने के लिए कोलकाता शहर की एक मार्ग का नाम ‘सुहासिनी गांगुली सरनी’ रखा गया है। जी हां सुहासिनी गांगुली नाम है उनका, जिनके बारे में हम आज बात करने वाले हैं…
परिचय…
सुहासिनी का जन्म ३ फ़रवरी १९०९ को ढाका के विक्रमपुर जिला अंतर्गत बाघिया नामक गाँव के रहने वाले अविनाश चन्द्र गांगुली और सरलासुन्दरी देवी के यहां हुआ। सुहासिनी की पूरी पढ़ाई ढाका के ईडन हाईस्कूल व ईडन कालेज से हुई। एक बार तैराकी स्कूल में उनकी मुलाकात कल्याणी दास और कमला दासगुप्ता से हुआ और फिर वे क्रांतिकारी दल का साथ देने के लिए प्रशिक्षण लेने लगीं। वर्ष १९२९ में विप्लवी दल के नेता रसिक लाल दास से परिचय होने के बाद तो वह पूरी तरह से दल में सक्रिय हो गईं। इसके लिए हेमन्त तरफदार ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया।
शिक्षण…
वर्ष १९३० में सुहासिनी गांगुली कलकत्ता में गूंगे-बहरे बच्चों के एक स्कूल में कार्य कर रहीं थीं। उन्हीं दिनों ‘चटगांव शस्त्रागार कांड’ के बाद क्रांतिकारी ब्रिटिश पुलिस की धर-पकड़ से बचने के लिए चन्द्रनगर को पलायन कर गए, तो सुहासिनी गांगुली भी क्रांतिकारियों को सुरक्षा के लिए कलकत्ता से चंद्रनगर आ गईं। चन्द्रनगर पहुँचकर उन्होंने वहीं के एक स्कूल में अध्यापन-कार्य ले लिया। शाम से सुबह तक वह क्रांतिकारियों की सहायक उनकी प्रिय सुहासिनी दीदी थीं। दिन भर एक समान्य अध्यापिका के रूप में काम पर जाती थीं और घर में शशिधर आचार्य की छद्म पत्नी बनकर रहती थीं ताकि किसी को संदेह न हो और यह घर एक सामान्य गृहस्थ का घर लगे और वह क्रांतिकारियों को सुरक्षा भी दे सकें। गणेश घोष, लोकनाथ बल, जीवन घोषाल, हेमन्त तरफदार आदि क्रांतिकारी बारी-बारी से यहीं आकर ठहरते।
गिरफ़्तारी…
इतना कुछ करने के बाद भी ब्रिटिश अधिकारियों को सुहासिनी गांगुली पर संदेह हो गया। उस घर पर चौबीसों घंटे निगाह रखी जाने लगी। एक दिन यानी १ सितम्बर, १९३० को उस मकान पर घेरा डाल दिया गया। आमने-सामने की मुठभेड़ में जीवन घोषाल मारे गए और अनन्त सिंह ने आत्म समर्पण कर दिया। शेष साथी और सुहासिनी गांगुली अपने तथाकथित पति शशिधर आचार्य के साथ गिरफ्तार हो गईं। उन्हें हिजली जेल भेज दिया गया, जहाँ इन्दुमति सिंह पहले से ही थीं। आठ साल की लम्बी अवधि के बाद वे वर्ष १९३८ को रिहा हो गईं।
अन्त में…
वर्ष १९४२ के आन्दोलन में उन्होंने फिर से अपनी भुमिका निभाई और फिर से जेल गईं। इस बार वे वर्ष १९४५ में जेल से बाहर आईं। उस समय हेमन्त तरफदार धनबाद के एक आश्रम में संन्यासी के भेष में रह रहे थे। रिहाई के बाद सुहासिनी गांगुली भी उसी आश्रम में पहुँच गईं और आश्रम की ममतामयी सुहासिनी दीदी बनकर वहीं रहने लगीं। २३ मार्च, १९६५ यानी मृत्यु आने तक के बाकी का सारा जीवन उन्होंने इसी आश्रम में बिताया।