images

महर्षि सान्दीपनी की परम्परा के वाहक पण्डित सूर्यनारायण व्यास जी हिन्दी के व्यंग्यकार, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी एवं ज्योतिर्विद थे। उन्हें उनके साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में किए गए महानतम कार्यों के लिए वर्ष १९५८ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था, परंतु पं॰ व्यास ने वर्ष १९६७ में अंग्रेजी को अनन्त काल तक जारी रखने के विधेयक के विरोध में अपना पद्मभूषण लौटा दिया था।

परिचय…

पं॰ सूर्यनारायण व्यास का जन्म २ मार्च, १९०२ को मध्यप्रदेश के उज्जयिनी के सिंहपुरी मोहल्ले के रहने वाले पण्डित नारायणजी व्यास के घर में हुआ था। वे बचपन से ही बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वे इतिहासकार, पुरातत्त्ववेत्ता, क्रान्तिकारी, “विक्रम” पत्र के सम्पादक, संस्मरण लेखक, निबन्धकार, व्यंग्यकार, कवि आदि थे। उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मन्दिर, सिन्धिया शोध प्रतिष्ठान और कालिदास परिषद की स्थापना भी की थी। इतना ही नहीं वे अखिल भारतीय कालिदास समारोह के जनक तथा ज्योतिष एवं खगोल के अपने युग के सर्वोच्च विद्वान भी थे। जानकारी के लिए यह भी बताते चलें कि वे वे महर्षि सान्दीपनी की परम्परा के वाहक थे। खगोल और ज्योतिष के अपने समय के इस असाधारण व्यक्तित्व का सम्मान लोकमान्य तिलक एवं पं॰ मदनमोहन मालवीय जी भी करते थे। पं॰ नारायणजी के देश और विदेश में लगभग सात हजार से अधिक शिष्य फैले हुए थे जिन्हें वे वस्त्र, भोजन और आवास देकर निःशुल्क विद्या अध्ययन करवाते थे। अनेक इतिहासकारों ने यह भी खोज निकाला है कि पं॰ व्यास के उस गुरुकुल में स्वतन्त्रता संग्राम के अनेक क्रान्तिकारी वेश बदलकर रहते थे।

साहित्य सेवा …

पण्डित व्यास हिन्दी के अतिरिक्त गुजराती, मराठी, बंगला, संस्कृत के भी मर्मज्ञ थे। वे एक श्रेष्ट व्यंग्यकार, कवि, निबन्धकार, इतिहासकार थे। अकेले विक्रम मासिक में ‘व्यास उवाच’ एवं ‘बिन्दु-बिन्दु’ विचार शीर्षक से लिखे उनके संपादकीय की संख्या २५०० से ऊपर है। वर्ष १९३७ में वे सारा यूरोप घूमे और यात्रा साहित्य पर उनकी कृति ‘सागर प्रवास’ मील का पत्थर मानी जाती है।

पं. सूर्यनारायण व्यास अठारह बरस या उससे भी कम आयु में रचना करने लगे थे। सिद्धनाथ माधव आगरकर का साहचर्य उन्हें किशोरावस्था में ही मिल गया था, लोकमान्य तिलक की जीवनी का अनुवाद उन्होंने आगरकर जी के साथ किया। सिद्धनाथ माधव आगरकर का पण्डितजी को अन्तरंग साहचर्य मिला और शायद इसी वजह से वे पत्रकारिता की ओर प्रवृत्त हुए।

व्यंग्यकार…

पं. सूर्यनारायण व्यास अत्यन्त प्रसन्नमन, हँसमुख और विनोदप्रियत व्यक्ति थे। हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा के प्रारम्भिक स्वरूप और विकास–क्रम के प्रतिनधि साक्ष्य के रूप में उनकी उपस्थिति आश्वस्तकारी रही हैं। व्यंग्य विधा अपनी शैशवावस्था में कितनी चंचल, परिपक्व और सतर्क थी यह व्यास जी के व्यंग्यों को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता हैं। पं. सूर्यनारायण व्यास का पहला व्यंग्य–संग्रह ‘तू-तू : मैं-मैं’ पुस्तक भवन काशी से वर्ष १९३५ में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसी विषय पर लगभग ६० वर्ष बाद ‘तू-तू : मैं-मैं’ धारावाहिक सेटेलाइट चैनल पर प्रसारित हुआ। उनकी प्रतिनिधि रचनाओं के सम्पादक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने ‘अनुष्टुप’ में लिखा हैं…

‘साहित्य के क्षेत्र में किसी भी विधा की अपेक्षा व्यास जी ने हास्य–व्यंग्य सबसे अधिक लिखे हैं। समकालीन विकृति पर उन्होंने मखौल–भरे व्यंग्य यथासमय किये हैं। यद्यपि आज व्यंग्य की चुभन और आस्वाद बदल गये हैं, लेकिन यदि इन व्यंग्यों को अपने युग की कसौटी पर कस सकें तो वे एक विशिष्ट स्थान के अधिकारी होंगे, क्योंकि उनके अतिरिक्त किसी हास्य-व्यंग्यकार ने अपने लेखों में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्रयोग नहीं किया है। यह हिन्दी–व्यंग्य की दृष्टि से एक सार्थक प्रयोग है। व्यास जी के व्यंग्य में चुभन कम, मखौल या उपहास ज्यादा है, लेकिन उनके सांस्कृतिक व्यक्तित्व के कारण उसमें कहीं भी फूहड़पन नहीं आ पाया है, अलबत्ता ‘उग्रजी’ से एक अरसे तक उनकी संगत रही है। उनके व्यंग्य–लेखन सन्दर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि यह उनका केन्द्रीय लेखकर नहीं हैं।’

क्रांतिकारी जीवन…

तिलक जी की जीवनी का अनुवाद करते-करते वे क्रान्तिकारी बन गए। विनायक दामोदर सावरकर का साहित्य पढ़ा। उनकी कृति अण्डमान की गूँज ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। प्रणवीर पुस्तकमाला की अनेक जब्तशुदा पुस्तकें वे नौजवानों में गुप्त रूप से वितरित किया करते थे। वर्ष १९२०-२१ के काल से तो उनकी अनेक क्रान्तिकारी रचनाएँ प्राप्त होती हैं जो मालव मयूर, वाणी, सुधा, आज, (बनारस) सरस्वती, चाँद, माधुरी, अभ्युदय और स्वराज्य तथा कर्मवीर में बिखरी पड़ी हैं। वे अनेक ‘छद्म’ नामों से लिखते थे, जैसे- खग, एक मध्य भारतीय, मालव-सुत, डॉ॰ चक्रधर शरण, डॉ॰ एकान्त बिहारी, व्यासाचार्य, सूर्य-चन्द्र, ‘एक मध्य भारतीय आत्मा’ जैसे अनेक नामों से वे बराबर लिखते रहते थे। वर्ष १९३० में अजमेर सत्याग्रह में पिकेटिंग करने पहुँचे, मालवा के जत्थों का नेतृत्व भी किया, सुभाष बाबू के आह्वान पर अजमेर में लॉर्ड मेयो की प्रतिमा तोड़ा और बाद के काल में वर्ष १९४२ में ‘भारती-भवन’ से गुप्त रेडियो स्टेशन का संचालन भी किया जिसके कारण वर्ष १९४६ में उन्हें इण्डियन डिफ़ेन्स ऐक्ट के तहत जेल-यातना भी मिला।

कृतियाँ…

१. वसीयतनामा
२. सागर प्रवास
३. यादें

आजादी के बाद…

भारत के स्वतन्त्र होने के बाद पेंशन और पुरस्कार की सूची बनी तो उसमें उन्होंने तनिक भी रुचि नहीं ली। वर्ष १९५८ में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी के द्वारा उन्हें पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया जिसे उन्होंने अंग्रेजी को अनंत काल तक जारी रखने वाले विधेयक के विरोध में वर्ष १९६७ में लौटा भी दिया। उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य-वाचस्पति, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी-लिट, मध्य प्रदेश शासन द्वारा राजकीय फरमान जैसे सम्मानों से अलंकृत किया गया।

और अंत में…

ज्योतिष जगत के सर्वोच्च न्यायालय एवं सूर्य कहे जाने वाले पं. व्यास जी आजादी से पहले तक ११४ रियासतों के राज ज्योतिष भी रहे थे। २२ जून, १९७६ को कर्नाटक के बंगलौर में उनका निधन हो गया। वर्ष २००२ में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।

About The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *