आज हम बात करने वाले हैं ७ सितम्बर, १८७७ में प्रथम बार प्रकाशित एक मासिक पत्र हिंदी प्रदीप के बारे में, जिसे श्री बालकृष्ण भट्ट जी द्वारा निकाला गया था और इसके सम्पादक भी स्वयं बालकृष्ण भट्ट जी ही थे। अब विस्तार से…
परिचय…
प्रयाग से निकलने वाली हिन्दी प्रदीप पत्र का विमोचन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने किया था। हिन्दी प्रदीप में नाटक, उपन्यास, समाचार और निबन्ध आदि सभी कुछ छपते थे। प्रकाशन के समय हिंदी प्रदीप के मुखपृष्ठ पर लिखा था,
शुभ सरस देश सनेह पूरित, प्रगट होए आनंद भरै
बलि दुसह दुर्जन वायु सो मनिदीप समथिर नहिं टरै।
सूझै विवेक विचार उन्नति कुमति सब या मे जरै,
हिंदी प्रदीप प्रकाश मूरख तादि भारत तम हरै॥
विस्तार..
प्रदीप से कई महानतम लेखकों ने अपनी लेखनी की शुरुवात की, जैसे; राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, आगम शरण, पंडित माधव शुक्ल, मदन मोहन शुक्ल, परसन और श्रीधर पाठक आदि जैसे नाम थे। इनके अलावा भी कुछ ऐसे भी नाम थे, जो इसके प्रभाव से वंचित ना रह सके, उनमें से बाबू रतन चंद्र, सावित्री देवी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, जगदंबा प्रसाद आदि मुख्य हैं। पुरुषोत्तम दास टंडन की प्रदीप में १२ रचनाएं प्रकाशित हुई जो उन्होंने वर्ष १८९९ से लेकर वर्ष १९०५ के बीच लिखी थी।
चरित्र…
हिंदी प्रदीप खरी बातों के लिए मशहूर था। १४ मार्च, १८७८ को वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट परित हुआ जिसके तहत भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई। इस अधिनियम की निर्भीक व तीखी आलोचना कर ‘हिन्दी प्रदीप’ ने संपूर्ण भारतीय पत्रकारिता का मार्गदर्शन किया था। हिन्दी प्रदीप में ‘हम चुप न रहें’ शीर्षक से अग्रलेख प्रकाशित हुआ था जिसमें पाठकों से इस एक्ट के विरुद्ध आन्दोलन करने का आग्रह किया गया था। तत्पश्चात अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने अधिनियम का विरोध किया और परिणामस्वरूप लॉर्ड रिपन को १८ जनवरी, १८८२ को यह एक्ट वापस लेना पड़ा।
इतना ही नहीं देवनागरी लिपि को न्यायालय-लिपि और कार्यालय-लिपि की मान्यता प्रदान कराने की दिशा में भी हिन्दी प्रदीप का बहुमूल्य योगदान रहा है। अपने प्रकाशन के दसवें माह से ही इस पत्र ने इस विषय में जोरदार आन्दोलन किया और सम्पूर्ण हिन्दी भाषी जनता को जागरूक किया। भट्टजी ने हिन्दी प्रदीप के माध्यम से वर्ष १८७८ में कहा था, ‘खैर हिन्दी भाषा का प्रचार न हो सके तो नागरी अक्षरों का बरताव ही सरकारी कामों में हो, तब भी हम लोग अपने को कृतार्थ मानें।’ वर्ष १८९६-९७ के दौरान हिन्दी प्रदीप ने देशी अक्षर अर्थात देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा का संयुक्त प्रश्न खड़ा कर दिया। उस समय कहा गया था कि हमारे अक्षर और हमारी भाषा अदालतों में पदास्थापित नहीं हैं। वर्ष १८९८ को उन्होने हिन्दी प्रदीप के माध्यम से कहा था, “भाषा उर्दू रहे। अक्षर हमारे हो जाएं, तो हम और वे दोनों मिलकर एक साथ अपनी तरक्की कर सकते हैं। और सच पूछे तो जिसे वे हिन्दी कहते हैं, वह भी उनकी भाषा है। वही हिन्दी जो सर्व साधारण में प्रचलित है।”
अंत में…
हिन्दी प्रदीप एक साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक मासिक पत्र था। इसमें राजनैतिक वयस्कता थी। समाज के प्रति दायित्व-बोध प्रचुर मात्रा में था। राजनैतिक वयस्कता की परिपक्वता की झलक हिन्दी प्रदीप में प्रकाशित विभिन्न नाटकों और संपादकीय अग्रलेखों से स्पष्ट होती थी। पुस्तक समीक्षा प्रकाशन की पहल हिन्दी प्रदीप ने ही की थी। परंतु वर्ष १९०९ के अप्रैल के चौथे अंक में माधव शुक्ल ने ‘बम क्या है’ नामक कविता लिखी जो अंग्रेज सरकार को नागवार लगी और उन्होंने पत्रिका पर तीन हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया। यह उस समय की बात है, जब भट्टजी के पास भोजन तक के पैसे नहीं थे, जमानत कहां से भरते अतः विवश होकर उन्हें पत्रिका को ही बंद कर दिया। हिन्दी प्रदीप लगभग ३३ वर्ष तक प्रकाशित होता रहा और प्रकाशन की सम्पूर्ण अवधि तक भट्टजी स्वयं ही संपादक बने रहे। तत्कालीन विषम परिस्थितियों में इतनी लम्बी अवधि तक पत्र का प्रकाशन स्वयं में एक उपलब्धि थी। यह भारतेन्दु युग के सर्वाधिक दीर्घजीवी पत्रों में से एक था।