प्यार एहसास है, जो दिमाग से नहीं दिल से होता है और इसमें अनेक भावनाओं व अलग अलग विचारो का समावेश होता है। प्रेम स्नेह से लेकर खुशी की ओर धीरे धीरे अग्रसर करता है। ये एक मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है जो सब भूलकर उसके साथ जाने को प्रेरित करती है।
१. बचपन का प्यार…
हम दोनों साथ ही साथ स्कूल जाते, एक ही बैंच पर बैठते, साथ ही लंच करते और फिर साथ ही घर आ जाते। दोनों का घर पास पास ही था। दोनों के घरवालों में पारिवारिक संबंध था। दोनों की उम्र और कक्षा एक ही थी, और स्कूल में नामांकन भी एक ही साथ हुआ था तो एक साथ रहना स्वाभाविक ही था। दिन भर मैं उसके घर या फिर वो मेरे घर। समय बदला हम कुछ बड़े हुए, वो लड़कियों वाली कक्षा में और मैं लड़कों वाले कक्षा में दिन गुजारने लगे, मगर स्कूल आना और फिर स्कूल से जाना बना रहा। मगर समय था कि या फिर घरवाले ऐसे थे कि हमें अलग कर दिया। वो उसी स्कूल में रही और मैं उसके भाई के साथ दूसरे ब्वॉयज स्कूल में जाने लगा। अब हम पूरे दिन अलग रहने लगे, और एक दुसरे के घर आना जाना भी पहले से कुछ कम हो गया, शायद घरवालों को अब हमारा मिलना पचता नहीं था, तो हमने एक न्यूट्रल जगह और सेफ जगह की तलास कर ली। हम दोनों के परिवारों की एक काफी नजदीकी पड़ोसी थीं, वो बुजुर्ग भी थीं, उन्हीं के घर हम एक दम समय से जाने लगे, उनके पास हम बैठते, उनके साथ हम खेलते, उनसे हम बातें करते, कभी कभी उनकी पुस्तकों को पलटते और उनसे अध्यात्मिक, दर्शन, शास्त्र और ज्ञान की बातें सुनते, बड़ा मजा आता। मगर हम ऐसा क्यूं करते थे, उस समय पता नहीं था। बस अच्छा लगता था। कभी कभी वह नहीं आती या फिर आने में देरी करती तो मन बेचैन हो उठता। उसके आते ही मन के फूल खिल उठते, जैसे ओस की एक बूंद फूल की पंखुड़ी से होते हुए अंतः स्थल में समा गई हो। मगर समय बड़ा ही कठोर होता है, उसमें हृदय नहीं होता। उसने हमें एक बार फिर से दूर कर दिया, और वो भी आजीवन के लिए। मैं वहां से सात सौ किलोमीटर दूर भेज दिया गया, पढ़ने के लिए। यहां जानकारी के लिए बताते चलूं कि मैं उस समय सातवीं कक्षा की पढ़ाई कर रहा था और आठवीं में नए शहर के नए स्कूल में मेरा दाखिला करवाया गया। समय का काम तो बस चलाना है तो वह चल ही रहा है, कभी कभी हम हीं ठहर जाते हैं तो कभी पीछे मुड़कर ताक लेते हैं, एक गाना उसके लिए गा लेते हैं…
जानू मेरी जानेमन
बचपन का प्यार मेरा भूल नहीं जाना रे
जैसा मेरा प्यार है
जान तुझे किया है
बचपन का प्यार मेरा भूल नहीं जाना रे
२. दाखिला वाला प्यार…
दूसरा प्यारा, दाखिला वाला प्यार था। उस प्यार की शुरुवात की कहानी भी मजेदार है। हुवा यूं कि मैं अपने दाखिले के लिए एंट्रेंस एग्जाम देने एक स्कूल में गया हुआ था। मैं जहां बैठा था, ठीक बगल में वो भी बैठी थी। मैंने उसे देखा उसने भी मुझे देखा और हो गया प्यार। धत्त! ऐसा कहीं होता होगा हमारे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हम दोनों कौन हैं, कहां से आए हैं, किस कक्षा में नामांकन कराना है? यह हम दोनों में से किसी ने भी नहीं पूछा। दोनों ने अपनी अपनी परीक्षा दी,और परिणाम के इंतजार में परिमाण का ध्यान किए बिना ही हम अपने घोंसले में आ गए।
समय सबसे बड़ा खिलाड़ी है। वह हमसे खेलता है और तब तक खेलता है, जब तक हम हार ना जाएं। उसने अपना खेल शुरू कर दिया था और हम थे कि उससे अनजान थे। एक दिन सर्दी की धूप सेंकने के लिए, हम छत पर थे। हमारे साथ हमारे भाई भी थे, हम अपने में ही मशगूल थे कि एकाएक हमारी नजर ठीक सामने के छत पर उसी को देखा, जो हमारी तरफ ही देख रही थी और शायद पहचानने की कोशिश कर रही थी। हमने उसे देखा, झट से पहचान गए, चौंके और फिर बिना कुछ बोले, बिना कुछ सोचे, झट से छत से नीचे उतर गए।
उस दिन तो हम छत से नीचे उतर गए, किंतु अब रोज धूप में पढ़ने के बहाने छत पर जाने लगे। मगर सर्दी को हमसे गर्मी होने लगी, शायद उसे हमसे जलन होने लगा था, शायद वह भी उसका आशिक था। तभी तो उसने सूरज महाराज को रिश्वत देकर हमें नीचे भगा दिया, मगर हम भी जिद्दी थे, हमने भी छत पर जाने का समय शाम को चुना। तब तक सर्दी अपना रास्ता बदल चुका था, अब वह आड़े नहीं आता था। बिन बोला प्यार चार साल तक चला। हमनें बारहवीं पास की, और हमारे घर वाले, हमें पढ़ने के लिए बड़े शहर की पास थमा दी। दाखिला वाला प्यार, जीवन में बिना दाखिल हुए ही, घरवालों द्वारा बेदखल कर दिया गया।
तेरा मेरा एक होना नसीब नहीं,
साथ है, मगर आज करीब नहीं।
हां! माना कि तुमसे बिछड़ना
किस्मत में पहले से ही लिखा था,
यकीन कर मेरा कि मैंने दूर से ही
तूझसे जी भरकर इश्क़ किया था।
३. कॉलेज वाला प्यार…
बड़े शहर के एक अच्छे कॉलेज में मेरा दाखिला हो गया था। बड़ा ही मजा आ रहा था। कुछ दोस्त भी बन गए थे, उनमें सिर्फ लड़के ही थे। कक्षा रंगीनियत से भरी हुई थी, हर तरह के रंग थे यहां। कोई पढ़ाकू तो कोई आवारा, कोई माडर्न तो कोई बेचारा। लड़कों के साथ यहां लड़कियां भी पढ़ती थीं, मगर बैठने के लिए दोनों दो तरफ बैठते थे।
उन्हें पहली बार तब देखा, जब वो कक्षा में प्रवेश करने के लिए प्रोफेसर सर से आज्ञा मांग रही थी, साथ ही कभी अपनी जुल्फों को तो कभी अपनी किताबों को सम्हाल रही थी। हमारे साथ पूरी कक्षा उसकी ओर आकर्षित हो गई। वह आई, जगह देखा और बैठ गई। हमारी तो ड्यूटी सी लग गई, रोजाना समय से आना और उसका इंतजार करना। वह आती, बिना किसी की ओर देखे सीधे अपनी जगह पर बैठ जाती। उसका ना देखना बड़ा ही अखरता, मगर खुशी इस बात की थी कि उसे रोजाना जी भरकर देख पा रहा था। हमें कभी कभी ऐसा लगता है कि कहीं मोहब्बतें फिल्म हम से इंस्पायर हो कर तो नहीं बनाया गया था, क्योंकि एकतरफा और अधूरे प्यार की कहानी पर फिल्माई गई यह फिल्म, ठीक एक साल बाद ही आई थी।
एक दिन क्लास में, सर एक सवाल सीखा रहे थे, मगर वो बार बार एक जगह आकर अटक जाते थे। जब वो उस गलती को पकड़ नहीं पाए तो उन्होंने हम सबसे कहा कि अगर किसी को मेरी गलती दिख रही हो तो यहां आकर बोर्ड पर दिखा दे, नहीं तो मैं कल बता दूंगा, आज के लिए अब बस। उसके बाद वो यह कह चले गए, मैने अपने दोस्तों के साथ मिलकर उस सवाल को हल कर लिया, हमें करते हुए शायद वह देख रही थी। इसीलिए उसने बिना कुछ बोले ही तुरंत अपनी कॉपी हमारी ओर बढ़ा दी। हमने भी कुछ बोला नहीं, सीधे सावल को उसकी कॉपी पर बनाया और उसे वापस पकड़ा दिया। अब आप सोच रहे होंगे कि मैं उसके साथ इतना रूखा व्यवहार क्यों किया? तो भाई साब मैंने जान बूझकर कोई रूखा व्यवहार नहीं किया था, सच कहूं तो उसके एक्शन का यह रिएक्शन था, उस समय मैं नर्वस नाइंटी का शिकार हो गया था। मेरे तो पसीने छूट गए थे। किसी तरह उससे उस समय पीछा छुड़ाना था। कभी कभी हद से ज्यादा खुशियां भी इंसान बर्दास्त नहीं कर पाता। मैं ये भागा वो भागा, और सीधे ग्राउंड में आकर घास पर बैठ गया। काफी देर तक बैठा रहा, कभी हंसता, कभी चुप हो जाता तो कभी अपने से ही बड़बड़ाता। उस समय कुछ पागल सा हो गया था। पागलपन का दौरा अभी कुछ और देर तक चलाता, अगर मेरे दो खास मित्रों ने आकर मुझे टोका नहीं होता। वो मेरी नजर में तो थी ही, उस दिन के बाद से मैं भी उसकी नजरों में आ गया। रोजाना नजरों से बाते होती।
आँखें खुली हो या हो बंद
दीदार उनका होता है,
कैसे कहूँ मैं ओ यारा
ये प्यार कैसे होता है।
इस बार हमने दिल से ठान लिया था कि हर बार की तरह अब अपने प्यार को पा कर ही रहूंगा। इसके लिए मेरे दोनों दोस्तों ने प्रोत्साहित किया और साथ भी दिया। हम तीनों ने यह तय किया कि पहले उसके घर का पता लगाया जाए, मगर कैसे? तभी एक ने कहा, ‘उसकी गाड़ी का पीछा करते हैं।’ हम तैयार हो गए। एक साइकिल पर हम तीन लोग और वो मोटरकार में थी। पीछा शुरू हुआ और तुरंत खत्म भी हो गया, क्योंकि कार चालू हुई, आगे बढ़ी और एक मोड़ पर जाकर गायब हो गई। हम निराश हो गए, मगर एक मित्र ने कहा, ‘इसमें निराश होने कोई बात नहीं है, हम कल इस मोड़ पर आकर पहले से ही खड़े होंगे और उसकी गाड़ी जैसे ही आएगी हम उसके पीछे लग जायेंगे।’ दूसरे दिन भी वही हुआ, गाड़ी मोड़ से मुड़ी, कुछ दूर तक दिखती रही, फिर दूसरे मोड़ पर गायब हो गई।
तीसरे दिन हम दूसरे मोड़ पर खड़े हो गए, फिर चौथे दिन, पांचवे दिन…. इस तरह सत्रह दिन के कठिन परिश्रम के बाद उसके घर का पता चल ही गया। अब सबसे बड़ा सवाल यह था कि अब क्या करें? जिसका जवाब हममें से किसी के पास नहीं था तो वापस अपने अपने डेरे के कमरे में आ गए। हम आज तक यह समझ नहीं पाए कि हमने इतनी मेहनत क्यूं की थी, जब उसके घर के पास कभी जाना ही नहीं था। रोजाना एक दूसरे को देखना, आंखों से बाते करना, क्लास में जाना, पढ़ना और फिर वापस अपने अपने घोंसले में वापस जाना, यही दिनचर्या थी। हां! एक बार उसने हमें बधाई देने के लिए तब बोला था, जब मैं फर्स्ट क्लास फर्स्ट से पास हुआ था। उसके बोल थे, ‘बधाई हो’।
पूरे तीन साल बीत गए, हम तो ग्रेजुएट हो गए, मगर हमारा प्यार बिना ग्रेच्युटी के ही रह गया। फिर से यायावर वाली जिंदगी जीने के लिए अन्य शहर की ओर निकल गए।
खिज़ा के फूल पे आती कभी बहार नहीं,
मेरे नसीब में ऐ दोस्त, तेरा प्यार नहीं…
ना जाने प्यार में कब मैं, ज़ुबां से फिर जाऊं
मैं बनके आँसू खुद अपनी, नज़र से गीर जाऊं
तेरी क़सम है मेरा कोई, ऐतबार नहीं
मेरे नसीब में ऐ दोस्त, तेरा प्यार नहीं…
४. एक बार फिर बचपन वाला प्यार…
हम वापस अपने पुराने शहर में आ गए, वापस अपने उसी मुहल्ले में आ गए, जहां कभी हमारा बचपन गुजरा था। पूरे सात साल बाद आना हुआ था। सात सालों में बहुत कुछ बदल चुका था।
जो कभी किशोर थे,
पूरी तरह जवान हो चुके थे।
सड़कें तो वैसी ही थीं,
मगर नए मकान हो चुके थे।
कभी जहां हम पले थे,
वो अब विरान हो चुके थे।
कुछ बुजुर्गों को छोड़ा था,
आज वो शमशान हो चुके थे।
मासूमियत यहीं रह गई थी,
अब हम बेईमान हो चुके थे।
कभी रिश्ते बहते थे हमसे
आज बस सामान चुके थे।
ऊंची डिग्री लेनी थी, तो ऊंचे विश्वविद्यालय की ओर मेरे कदम बढ़ चले थे। परंतु उसकी घर की ओर आकर्षित हुए बिना ना रह सका। घर के दरवाजे मुझे अब पहचानते नहीं थे। घर तो वही था, मगर बूढ़ा हो चला था, शायद इसीलिए वह भी पहचान नहीं पाया। मेरा नामांकन ऊंची पढ़ाई के लिए हो गया। रोजाना तो कोई जाना नहीं था, तो घर पर ही पड़ा रहता, कुछ पढ़ता तो कुछ खालीपन की वजह से दिनोदिन सड़ता। आखिर क्या करता ? कुछ परिचित थे, तो दो दिन में ही उनसे मिल आया। बचपन के कुछ स्कूली दोस्त थे, तो वे स्कूल तक ही सीमित थे अतः उनसे मिलने का कोई जरिया नहीं था। मुहल्ले के कई दोस्त मेरी तरह यायावर बन चुके थे, तो कुछ अपने खानदानी व्यवसाय में आ चुके थे, जिनकी अपनी नई जिंदगी बन चुकी थी, जिसमें मेरे लिए अब कोई स्थान खाली नहीं था।
वापसी के समय बड़े सपने संजोए थे, वो चकनाचूर हो चुके थे। ना वो मिली ना कोई और मिला। बस खालीपन था। तो उसे भरने के लिए मैंने एक जगह नौकरी कर ली। पैसे तो कम थे, मगर चैन था। अब रोज का समय से आना जाना चालू हो गया। सुबह नौ बजे निकलना शाम को सात बजे आना, और फिर अपनी पढ़ाई। अब सारी पुरानी बातें दिमाग से निकलने लगी थी, अंतर्मन में अब एक नया सवेरा होने लगा था, कि एक दिन ऑफिस जाने के लिए जैसे ही निकला, वो भी अपने घर से निकली। उसके दरवाजे पर एक गाड़ी खड़ी थी, शायद वो कहीं जा रही थी। गोद में उसके दो ढाई साल का एक बच्चा था। मांग में सिंदूर गले में मंगलसूत्र देख मैं सारी बातें भली प्रकार से समझ गया। मुझे देख वो काफी खुश हुई और बोली, ‘कब आए?’, ‘आना तो था ही तो आ गया, अच्छा बाद में बात करेंगे, अभी थोड़ा जल्दी में हूं।’ यह कह मैं झट से निकल गया। उसके बाद से आज तक, मैंने उसे नहीं देखा।
चिंगारी कोई भड़के, तो सावन उसे बुझाये
सावन जो अगन लगाये, उसे कौन बुझाये
हो ओ उसे कौन बुझाये…
पतझड़ जो बाग़ उजाड़े, वो बाग़ बहार खिलाये
जो बाग़ बहार में उजड़े, उसे कौन खिलाये
हो ओ उसे कौन खिलाये…
५. एक बार फिर से प्यार हो गया…
हम अब जिंदगी में आगे निकल चुके थे, बस काम काम काम और बस काम। प्यार व्यार मजाकिया शब्द जान पड़ते थे। हां कभी कभार छः महीने साल भर में किसी बात पर दिल में एक हूक सी उठती, मन बोझिल होता और फिर अपने आप सब गायब। इस दौरान प्रोफेसनल लाइफ में कितनी लड़कियां आईं कितनी गईं, उनका कोई प्रभाव मेरी जिंदगी में नहीं पड़ा और ना ही यहां उनके बारे में कोई चर्चा करने की जरूरत ही है।
एक दिन की बात है, मुझे मेरे भाई के द्वारा एक लड़की की फोटो दिखाई गई। बड़ी ही खूबसूरत थी, जो मेरी मां की पसंद थी। वैसे तो विवाह पहले से ही तय था, बस वह फोटो मेरे भाई बहनों द्वारा मजे लेने के लिए दिखाया गया था, जो एक बार फिर से मेरे हृदय पटल की सुखी धरती पर फूल खिलाने के लिए काफी था। एक बार फिर से मैं खुले आसमान में उड़ने लगा था, क्योंकि एक बार फिर से मुझे प्यार हो गया था।
मेरे सपनो की रानी कब आएगी तू
आई रुत मस्तानी कब आयेगी तू
बीती जाए जिंदगानी कब आएगी तू, चली आ…
प्यार की गलियां, सब रगरलियाँ
गीत पनघट पे किस दिन गायेगी तू
मेरे सपनो की रानी कब आएगी तू
यह उन्हीं दिनों की बात जब, अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय के विवाह की चर्चा हो रही थी और उसी समय शाहिद कपूर और अमृता राव अभिनीत विवाह नामक एक फिल्म आई थी। इस फिल्म की कहानी सगाई से लेकर विवाह तक की थी, और वही कहानी हमारी भी थी।
दो अनजाने अजनबी
चले बांधने बंधन
हाय रे दिल में है ये उलझन
मिलकर क्या बोले…
वो दिन आ ही गया, जब हम अपने दिल को साथ लिए विजई हुए। आखिकार हमने अपने स्वप्न सुंदरी को पा ही लिया, उसे अपना बना ही लिया। प्रत्यक्ष तौर पर वो परी अब हमारे सामने थी, और मैं यह गीत गुनगुना रहा था…
मेरे दिल में आज क्या है, तू कहे तो मैं बता दूँ
तेरी ज़ुल्फ़ फिर सवारूँ, तेरी मांग फिर सजा दूँ
मुझे देवता बनाकर, तेरी चाहतों ने पूजा
मेरा प्यार कह रहा है, मैं तुझे खुदा बना दूँ
मेरे दिल में आज…
कोई ढूंढने भी आये, तो हमे ना ढूंढ पाए
तू मुझे कहीं छूपा दे, मैं तुझे कही छूपा दूँ
मेरे दिल में आज…
मेरे बाजुओं में आकर तेरा दर्द चैन पाए
तेरे गेसुओं में छूपकर, मैं जहां के गम भूला दूँ
मेरे दिल में आज…